सामान्यत: फ़िल्मी दुनिया के सितारों के बारे में यह कहा जाता है कि जब तक वे सफलता के शीर्ष पर होते हैं उनके दरवाज़े पर उन्हें साइन करने वाले और चाटुकारों की लाइन लगी रहती है। जैसे ही उनकी कोई फ़िल्म अच्छा व्यवसाय नहीं कर पाती, उनके घर के आगे की भीड़ छँट जाती है। इसी के बाद उनकी आँखें खुलती हैं इधर उधर एक ही आध कोई मित्र नज़र आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। पर फ़िल्मी दुनिया में कुछ सम्माननीय अपवाद भी हैं, पंकज उधास भी उन्हीं अपवादों में से एक थे। इसका अंदाज़ा मुझे कल हुआ जब मैं उनकी प्रार्थना सभा में नरीमन पॉइंट के ट्राइडेंट के रूफ टॉप पर पहुँचा।
श्रद्धांजलि देने वालों की भीड़ इतनी थी कि रूफ टॉप हॉल की तो बात क्या की जाए उसकी लिफ्ट लॉबी तक कहीं खड़े होने तक की जगह नहीं बची थी उसके वावज़ूद नम आँखें लिए सेलिब्रिटी बिना किसी एटीट्यूड के चुपचाप खड़े हुए थे। इसी भीड़ में जैकी श्रॉफ़, नितिन मुकेश, सोनू निगम, अलका याज्ञिक, घनश्याम वासवानी, शिवमणि, तलत अज़ीज़, पीनस मसानी शामिल थे।
पंकज की इस लोकप्रियता का क्या कारण था, यह सातवें और आठवें दशक के फ़िल्म कॉलमिस्ट चैतन्य पादुकोण ने मुझे दो वाक्यों में बताया। उनका कहना था, “मैं जब भी उनसे मिला उन्होंने कभी सेल्फ प्रमोशन के लिए इसरार नहीं किया जो फ़िल्म वालों की आम आदत होती है। अगर मेरी ओर से उनके कैरियर या फिर नये प्रोजेक्ट के बारे में कोई सवाल होता तो वे एक ही बात करते अरे भाई इस बारे में तो बाद में कभी बात कर लेंगे पहले हाल चाल बताओ। और फिर उनकी और से हल्की फुल्की बातचीत शुरू हो जाती। मुझे याद नहीं आता उन्होंने अपने किसी प्रतिद्वंद्वी के बारे में कोई तल्ख़ टिप्पणी या फिर घटिया बात करी हो।”
प्रार्थना सभा में उनके एक और अंतरंग मित्र और क्रिएटिव सहयोगी मिले उन्होंने उनकी व्यावसायिक प्रतिबद्धता के बारे में एक रोचक वाक़या बताया- पंकज 1993 में अपनी टीम के साथ साउथ अफ़्रीका से अपना पहला म्यूजिक वीडियो शूट करके लौटे थे। उसको स्टूडियो में अंतिम रूप देने का काम चल रहा था, इसी बीच जी टीवी ने उसके टेलीकास्ट की स्वीकृति दे और उसे ठीक पाँच दिन बाद के लिए शेड्यूल भी करने की सूचना भी भेज दे थी।
ये बात उस दौर की है जब रिकॉर्डिंग की सुविधाएँ एडवांस नहीं थी अधिकांश काम मैन्युअल रहता था जिस के कारण बहुत गति बहुत धीमी रहती थी। डेडलाइन से पहले काम पूरा हो जाये इसके लिए बिना सोये लगातार तीन दिन तक स्टूडियो में पंकज और हम सभी काम कर रहे थे, तीसरे दिन मैंने पंकज भाई को कहा घर जा कर दो तीन घंटे सो कर और नहा धो कर कपड़े बदल कर आ जाओ। बहुत इसरार के बाद वह गये लेकिन दो ही घंटे में वापस आ गये। वापस आने के बाद वे सीधे काम पर लग गये लेकिन मुझे लगा उनके साथ कुछ तो गड़बड़ है थोड़ी थोड़ी देर में अपना हाथ कभी ऊपर करके हिलाने लगते तो कभी हाथ को बाएं से दाएं घुमाते, मैं डर गया कहीं लगातार रात दिन काम करके हार्ट जैसी कोई गंभीर बीमारी तो नहीं लग गई है। जब पड़ताल की तो पता चला घर से जल्दी जल्दी में आते समय एक नहीं दो दो घड़ी बांध ली थीं जिनकी लगातार टिक टिक से हाथ में झनझनाहट हो रही थी। हंसते हंसते हम सभी का लगातार काम करने का तनाव चला गया और समय से पूर्व ही म्यूजिक वीडियो का टेप ज़ी को दे दिया गया। यह वीडियो ज़ी पर खूब चला।
पंकज के दोनों बड़े भाई मनहर और निर्मल पहले से ही गाने को करियर बना चुके थे। पंकज उन दिनों सेंट ज़ेवियर में बीएससी बाटनी के छात्र थे, घर में संगीत का माहौल था ही इसलिए वे ज़ेवियर के संगीत मंडल के सदस्य बन गये, इस समूह में फ़ारूख शेख़, ज़ाकिर हुसैन, स्मिता पाटिल, कविता कृष्ण मूर्ति (जिनका स्कूल का नाम शारदा था), सतीश शाह, हरेंद्र खुराना, पीनाज़ मसानी, शबाना आज़मी भी थे।
मज़े की बात यह कि उनके द्वारा पहला फ़िल्मी गीत/ग़ज़ल कामना फ़िल्म के लिए 1972 में ही रिकॉर्ड हो गया था। संगीतकार उषा खन्ना ने उन्हें मात्र बीस वर्ष की उम्र में नख़्श लायलपुरी का गाना “तुम कभी सामने आ जाओ तो पूछूँ तुमसे” गाने का अवसर प्रदान किया। इस संबंध में रोचक बात यह है कि मनहर उधास काफ़ी लंबे समय तक मरीन लाइंस के ‘टॉक ऑफ़ द टाउन’ में शाम को गाया करते थे जिसका नाम इन दिनों pizza by the bay हो चुका है।
जब मनहर भाई की कोई रिकॉर्डिंग वग़ैरह रहती थी तो पंकज भी वहाँ गाते थे। मनहर भाई ने ही मेरी मुलाक़ात पंकज से कराई थी, सिलसिला सरिता के लिए साक्षात्कार से हुआ लेकिन बाद में मुलाक़ात दोस्ती में बदल गई। काफ़ी समय तक उनके आमंत्रण पर जसलोक हॉस्पिटल के पीछे कार्ल माइकल रोड के उनके आवास पर उनका आतिथ्य उठाने का अवसर मिला।
उन्होंने ग़ज़ल गायक के रूप में केरियर की गंभीर शुरुआत 1980 में आहट नामक एक ग़ज़ल एल्बम के रिलीज़ के साथ की और उसके बाद 1981 में मुक़र्रर, 1982 में तरन्नुम, 1983 में महफ़िल, 1984 में रॉयल अल्बर्ट हॉल में पंकज उधास लाइव, 1985 में नायाब और 1986 में आफरीन जैसी कई हिट एल्बम रिकॉर्ड कीं। लेकिन शोहरत की बुलंदी उन्हें महेश भट्ट की फिल्म नाम के गाने “चिट्ठी आई है” से ही मिली।
पंकज अपने जीवन के आख़िरी साल कैंसर की गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे यह जानकारी पब्लिक डोमेन में बहुत बाद में आयी। पंकज की मृत्यु ने आठवें दशक के ग़ज़ल के शानदार दौर का बेहतरीन सितारा छीन लिया है जिसकी भरपाई मुश्किल से हो पाएगी। पता नहीं क्यों pizza by the bay से जब भी गुज़रना होता है उधास बंधुओं और टॉक ऑफ़ द टाउन के कनेक्शन और वहाँ की ख़ुशनुमा ग़ज़ल-शामों की याद आ जाती है।
(लेखक फिल्म व संगीत समीक्षक हैं और पंकज उधास के साथ उनकी गाढ़ी मित्रता रही है)