Sunday, November 24, 2024
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युगों युगों से पूजित चित्रकूट का परंपरागत मत्तगजेंद्र शिव महादेव

भगवान शिव अपने भक्तों से बहुत ही जल्द प्रसन्न हो जाते हैं, वे केवल अपने भक्तों की भावना को ही देखते हैं। महाशिवरात्रि के दिन उनके भक्त उन्हें अच्छत चावल, कंद मूल, बेलपत्र, भांग-धतूरा के साथ-साथ दूध और दूध से बने पदार्थ अर्पित करते हैं। महाशिवरात्रि के दिन रुद्राभिषेक और शिवाराधना करवाना भी बहुत शुभ और फलदाई माना जाता है।

यद्यपि धार्मिक नगरी चित्रकूट की पहचान भगवान श्रीराम से जुड़ी है।लेकिन यहां रामघाट स्थित मां मंदाकिनी के किनारे कैलाश पहाड़ी पर विश्वप्रसिद्ध प्राचीन मत्यगजेन्द्र नाथ का शिव मंदिर भी अति प्राचीन और विशिष्ट है। मंदिर का इतिहास चार युग पुराना है। जिसमें स्थापित शिवलिंग की महिमा का वर्णन शिवपुराण में भी मिलता है। मान्यता है कि इस मंदिर में स्थापित शिवलिंग की स्थापना स्वयं भगवान ब्रह्मा ने अपने हाथ से की थी। ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना के लिए रामघाट स्थित यज्ञदेवी अखाड़ा मे पर यज्ञ किया था। यज्ञ के प्रभाव से निकले शिवलिंग को स्वामी मत्यगजेन्द्र नाथ के नाम से सम्बोधित किया था।

इन्हें ब्रह्मा जी चित्रकूट का क्षेत्रपाल नियुक्त किया था। ये शिव जी के अंश माने जाते हैं। मत्तगजेन्द्र नाथ जी चित्रकूट के उसी तरह राजा माने जाते हैं जैसे उज्जैन में महाकालेश्वर। यहां ब्रह्मा जी द्वारा भगवान शिव के लिंग स्थापना भगवान राम जी के साधना और धर्म कार्य के लिए ही किया गया था।

कहा जाता है कि इस मंदिर में विराजमान चार शिवलिंग में से एक शिवलिंग भगवान ब्रम्हा द्वारा सृष्टि रचना से पूर्व स्थापित किया गया है। इसके अलावा एक को स्थापित श्री राम ने वनवास काल के दौरान किया था। एक एक शिवलिंग की स्थापना महर्षि अत्रि और अगस्त्य ऋषियों ने की थी। जब भगवान श्री राम यहां पर वनवास काल में आए तो उन्होंने चित्रकूट निवास के लिए स्वामी मत्यगेंद्र नाथ से आज्ञा ली थी।इसके बाद श्रीराम ने खुद उन शिवलिंगो के बगल में एक और शिवलिंग की स्थापना की थी।

सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी को पता था कि चित्रकूट में प्रभु राम पहुंचकर इस धरती को शुद्ध करेंगे। क्योंकि चित्रकूट में सबसे ज्यादा राक्षसों का राज सतयुग में और त्रेतायुग में था, इसीलिए चित्रकूट के यज्ञ वेदी मंदिर में ब्रह्मा जी ने 108 कुंड बनाकर हवन किया था। तब जाकर चित्रकूट की धरती शुद्ध हुई थी। जिसके बाद स्वयं ब्रह्मा जी ने चित्रकूट के राजा मत्यगजेंद्र नाथ को घोषित किया और शिवलिंग की स्थापना इस मंदिर में कर दी थी। इस मंदिर में चार शिवलिंग हैं, ऐसा विश्व में कहीं और होने का वर्णन नहीं है। इस मामले में अनोखा मंदिर है।

भगवान श्रीराम की वनवास स्थली चित्रकूट में अत्यंत प्राचीन ऐतिहासिक एवं धार्मिक स्थल है। इसमें स्थापित शिवलिंग का शिवपुराण में कुछ इस प्रकार वर्णन है।
नायविंत समोदेशी नब्रम्ह सद्दशी पूरी।
यज्ञवेदी स्थितातत्र त्रिशद्धनुष मायता।।
शर्तअष्टोत्तरं कुण्ड ब्राम्हणां काल्पितं पुरा।
धताचकार विधिवच्छत् यज्ञम् खण्डितम्।।
(शिवपुराण अष्टम खंड, द्वितीय अध्याय)
(अर्थात ब्रह्मा जी ने 30 धनुष के आयात में जगह लेकर 108 कुंड बनाकर यज्ञ किया था।फलस्वरूप उन्हें शिवलिंग प्राप्त हुए, वही शिवलिंग मंदिर में स्थापित हैं।)

त्रेता युग में जब भगवान राम वनवास के लिए चित्रकूट आए तो इन्हीं से आज्ञा लेकर चित्रकूट में साढ़े 11 वर्ष व्यतीत किए। मंदिर के पुजारी पं. विपिन तिवारी बताते हैं कि शिवपुराण के अष्टम खंड के दूसरे अध्याय मे मत्यग्येंद्र लिंग के बारे में वर्णन है। ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु की आज्ञा पर चित्रकूट के पवित्र पर्वत पर यज्ञ किया था, जिसमें शिवलिंग निकला। वही शिवलिंग मंदिर में स्थापित है।।यहां जलाभिषेक करने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। बताया कि जो मनुष्य प्रात: काल मंदाकिनी में स्नान कर मत्यग्येंद्रनाथ का पूजन करता है, उसके सभी मनोरथ पूरे होते हैं।

भगवान शिव के स्वरूप हैं मत्यगजेंद्र:ये मंदिर पवित्र मंदाकिनी नदी के किनारे रामघाट पर स्थित है। भगवान शिव के स्वरूप मत्यगजेंद्र को चित्रकूट का क्षेत्रपाल कहा जाता है, इसलिए बिना इनके दर्शन के चित्रकूट की यात्रा फलित नहीं होती है। मत्यगजेंद्र का अपभ्रंश के कारण मत्तगजेंद्र नाम भी प्रचलित है।

लक्ष्मण के सामने दिगंबर रूप में प्रकट हुएः त्रेता काल में भगवान श्रीराम, माता जानकी और भाई लक्ष्मण के साथ जब वनवास काटने चित्रकूट आए तो उन्होंने क्षेत्रपाल मत्यगजेंद्र से आज्ञा लेना उचित समझा। स्थानीय संत ऋषि केशवानंद जी कहते हैं कि श्रीराम ने लक्ष्मण को मत्यगजेंद्र नाथजी से निवास की आज्ञा के लिए आगे भेजा, जहां लक्ष्मण के सामने वो दिगंबर स्वरूप में प्रकट हुए।मत्यगजेंद्र एक हाथ गुप्तांग और दूसरा हाथ मुख पर रखकर नृत्य करने लगे। ये देखकर लक्ष्मण ने श्रीराम से इसका अर्थ पूछा। श्रीराम ने इसका अर्थ बताया कि ब्रह्मचर्य पालन करने और वाणी पर संयम रखने के संकेत है। दोनों भाइयों ने पूरे वनवास काल में मत्यगजेंद्र की दी गई सीख का पालन किया और 14 में से लगभग 12 वर्ष चित्रकूट में ही बिताए थे।

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल, आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)

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