कल पूनम विश्वकर्मा अपनी सद्य प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह “सुबह शब भर” के साथ मेरे घर आईं। पूनम एक अरसे से फ़िल्मी और ग़ैर फ़िल्मी गीत लिखती आ रही हैं जिन्हें उदित नारायण, अनुराधा पौड़वाल, उदित नारायण, अलका याग्निक, कुमार सानू, शान, अभिजीत, श्रेया घोषाल जैसे नामवर गायक इनको स्वर प्रदान कर चुके हैं।
यही नहीं उनकी आवाज़ भी बहुत मधुर है, कई नामवर संगीतकारों ने उनके गीत और भजन उनकी आवाज़ में रिकॉर्ड हो चुके हैं। उनका ग़ज़ल का सफ़र अधिक लंबा नहीं है लेकिन जो कुछ भी उन्होंने लिखा है वह आश्वस्त करता है कि स्त्रियों का पक्ष रखने वाला उनके सरोकारों की पैरोकार करने वाला और स्त्रियों द्वारा भोगे गए दुख दर्दों को ग़ज़ल के फॉर्मेट में प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने वाला सच में कोई है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले की पट्टी तहसील में जन्मी पूनम ने अपने विवाह के बाद जौनपुर के ग्रामीण अंचल में पहुँच कर अपने इर्द गिर्द महिलाओं की स्थिति देखी और ख़ुद भोगी वह भी किसी उपन्यास के कथानक से कम नहीं है। इक्कीसवीं शताब्दी में भी उस ग्रामीण अंचल में महिलायें घूँघट काढ़ कर रहती हैं और बाहर जाने के नाम पर कुछ विशेष अवसरों पर मंदिर जाने की आज़ादी रहती है वो भी घूँघट काढ़ कर। ऐसे परिवेश में रहने के बाद पूनम ने अपनी प्रतिभा और साधना के बलबूते पर फ़िल्मों में लिखने और गाने की शुरुआत की। अपने ही करीबी रिश्तेदारों के विरोध को भी झेला इस सब से अपनी इच्छाशक्ति से संघर्ष करके अपनी राह बनाई।
अपने ग़ज़ल संग्रह “सुबह शब भर” में पूनम की कोशिश है की आसान शब्दों में गहरी बात कह दे। बानगी देखिए:
एक औरत के हूँ जिस्म में।
इसका मतलब हिरासत में हूं।
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ज़बरदस्ती मरोड़ा जा रहा है,
किसी को मुझ से जोड़ा जा रहा है।
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मुझमें एक दर बना रहे तुम,
मुझको बेहतर बना रहे हो तुम।
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कुछ हाथ बस्तियों को जलाने में जल गए,
कुछ जल गये हैं आग बुझाने में उम्र भर।
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भूख है वो बला सिखा देगी,
आपको फ़लसफ़ा सिखा देगी।
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मेरी फ़िक्र है ये दिखाने लगे,
जलाकर मुझे वो बुझाने लगे।
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दर्द समझूँ कि मैं दवा समझूँ,
तुम ही कह दो तुम्हें मैं क्या समझूँ।
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लेकर पता मुझी से मेरे घर पे आ गए,
अपनों की शक्ल में जो मेरा घर जला गए।
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ज़िंदगी के गले लगी हूँ मैं,
मौत से कह दो इंतज़ार करे।
कुछ शेर तो ऐसे हैं जो बिलकुल अलग ज़मीन पर हैं:
न मेरा दिल डायरी है जानाँ, न तुम हो पेंसिल की लिखावट,
मिटा दे तुमको मेरे दिल से, जहाँ में ऐसा रबर नहीं है।
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दिल के खंडर सी एक हवेली है,
एक बच्ची वहाँ अकेली है।
चलके सोलह श्रृंगार के आंसू,
कोई बिरहन नई नवेली है।
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क्या कहूँ किस मुसीबत में हूँ,
मैं ख़ुद अपनी अदालत में हूँ।
एक औरत के हूँ जिस्म में,
इसका मतलब हिरासत में हूँ।
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जाने कब ज़िंदगी की लट सुलझे,
कितनी उलझी हुई पहेली है।
इस संग्रह को पढ़ कर लगता है कि अभी इसे पढ़ा ही नहीं है, अभी कई और मरतबा पढ़ना होगा। यही इस संग्रह की खूबी है।
पूनम इसी शिद्दत से लिखती रहें
प्रकाशक : परिदृश्य प्रकाशन, मुंबई