समय कभी रुकता नहीं है चलता रहता है। समय के गाल पर न जाने कब कौन क्या लिख जाए कह नहीं सकते। बचपन में कक्षा पांच की अर्धवार्षिक परीक्षा के समय बीमार पड़ने और बड़े भाई की कविता की डायरी हाथ लग जाने से कविताएं पढ़ी तो समझ आया की बच्चें भी कविता लिख सकते हैं। समय के इस पल से ही मन में कविता लिखने के शोक ने जन्म लिया।
क्या लिखें विषय कोई सूझ नहीं रहा था। इसी कश्मकश के साथ अक्षयलता ने उस समय “करो परीक्षा की तैयारी” प्रथम तुक बंदी कविता लिखी। परिजनों, सहपाठियों और शिक्षकों ने खूब सराहा। उत्साहित कर उस समय ‘सुमन’, “यह स्वर्णमहल” और “चल रही वह लकुटी टेक” जैसी तुक बंदियों की झड़ी लग गई। फिर व्यस्तता के चलते यथा अवसर उद्वेलित करने वाली संवेदनाएं इन्हें झकझोरती हुई इनकी लेखनी को क्रियाशील करती रहीं। समय के साथ-साथ आज साहित्य में इन्होंने जिस प्रकार मुकाम बनाया है उस पर प्रसिद्ध संपादक अशोक बत्रा ने लिखा “जिन कवियों ने छंदों का निपुणता पूर्वक निर्वाह किया है और अपने भाव को विशेष अभिव्यक्ति-प्रवाह में निबद्ध किया है,उनमें से कई साहित्यकारों की तरह अक्षयलता शर्मा प्रभावित करती हैं।”
वर्तमान सामाजिक परिवेश में गिरते हुए जीवन मूल्यों मर्म को लेकर जीवन मूल्यों की पुनर्स्थापना,संरक्षण एवं संवर्धन के उद्देश्य के साथ पद्य विधा में कविताओं के साथ-साथ गीत, प्रहेलिका, चतुष्पदी और गद्य विधा में लेख, कहानी ,कहानी का नाट्य रूपांतरण, समीक्षा का लेखन कर सभी को जीवन मूल्यों को बचाने के लिए के सतत सजग एवं प्रयत्नशील रहने का संदेश पहुंचा रही हैं।
हिंदी, राजस्थानी, हाड़ौती और संस्कृत भाषा पर आपका समान अधिकार है। व्यंग शैली,प्रश्न शैली, हास्य-व्यंग्य शैली, गीत शैली,समास शैली, चित्र शैली को अपनाते हुए भक्ति रस,शांत रस,वीर रस, हास्य रस, श्रृंगार रस, अद्भुत रस और करुण रस भावों से आप्लावित साहित्य का सृजन करती हैं।
इनकी कहानियों में गिरते पारिवारिक मूल्य, विफल चरित्र का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण,आवास की समस्या प्रमुख विषय हैं। परिजनों के प्रति तथा मनुष्य को मनुष्य के प्रति सौहार्दपूर्ण व्यवहार करने, आवास की समस्या हल करने के लिए संवेदना जगाते हुए पीडितों की यथाशक्ति सहायता करने इनकी कहानियों में मुखर हैं और संदेश है कि पाठक मर्मस्पर्शी घटनाओं से प्रभावित होकर समस्याग्रस्त परिवार व समाज के हित में प्रयास करने को प्रेरित होंगे। इन्हीं विषयों के तानेबाने में बुनी “अंधेरे में”, “कृतघ्न” और “प्रारब्ध” कहानियां आंखों देखी घटनाओं पर आधारित हैं जिन्हें भावपूर्ण गद्य में लिखा गया है।
इनके काव्य सृजन में मानवीकरण, प्रतीकात्मकता, विविध शैलियों का प्रयोग, शब्द शक्तियों के सफल प्रयोग, विषय की गंभीरता, चिन्तन, विश्लेषण, दिशाबोध, प्रभावोत्पादकता, हास्य-विनोद, भावोत्तेजक, विशद शब्दकोश अवसरानुकूल क्लिष्ट शब्दावली व सामासिक शब्दों का प्रयोग, अलंकृत एवं प्रवाह पूर्ण भाषा, मौलिक अभिव्यंजना, माधुर्य, ओज व प्रसाद गुण सम्पन्नता की विशेषताएं हैं।
काव्य रचना “पुरुषार्थ” में हवा और समय का रिश्ता प्रतिपादित करते हुए मानव को पुरुषार्थ के लिए जाग्रत करने के भावपूर्ण संदेश की बानगी देखिए…
चलती हवा की धार में
बह चला –
तिनका कि आदमी?
हवा समय की,
समय हवा का,
जोर हवा का,
वाह! रिश्ता
हवा समय का
सशक्त!!
मानव तू क्या अपंग अशक्त?
रे! अस्थि ही तेरी,
इन्द्र का वज्र है।
मृत्यु भी मुट्ठी में
रख चुका है तू !
तेरे ही पदाघात से
जलधार बही रे !
है पुरुषार्थ! हे पुरुषार्थ! हे पुरुषार्थ !
लुप्त या सुषुप्त;
उठ, जाग, मानव के जन में।
इस सुंदर संसार में एक ओर चारों तरफ चीख पुकार, अभाव, गरीबी-अमीरी का भेद और विष भरा होने की पीड़ा झलकती हैं तो दूसरी ओर अभिलाषा भी है कि मुझे तेरा खजाना मिल जाए तो दिन हीन गरीबों पर तिनका-तिनका लूटा दूंगी। ईश्वरीय सत्ता को स्मरण कर “विश्व” शीर्षक रचना की इन भावपूर्ण पंक्तियों को देखिए…
इतना सुंदर विश्व
विष भरा है क्यों?
ए सुगढ़ रचनाकर!
ऐश्वर्य के धनी ईश्वर!
तेरी ही दुनिया में अभाव क्यों?
चीख-पुकार, दर्द क्यों?
राजा और रंक का भेद क्यों?
ठीक है, ठीक है,
तेरी भेदभाव की नीति
बिलकुल ठीक है
मगर,
सुख सम्पदा का तेरा खजाना
जो मिल गया कहीं,
बिखरा दूंगी तिनका-तिनका,
दीन-हीन,अनाथों पर
इनके द्वारा रचित दो सुंदर भावपूर्ण “चतुष्पदियों” की बानगी देखिए…
सुनील गगन के नीचे, प्रसून खिलते हैं ।
धन्य हो जाते लघुजन,जब विद्वान मिलते हैं।
भद्रों से जब मिलते भद्र, नजदीकियां ही होतीं। एकता के बंद होते, तरक्कियां ही होतीं।
दुष्कृत्य देते संताप, जो सदा ही खलते।
सत्य है गिरने वाले, आघात ही सहते।
लहर पर लहर चढ़ी आती,डूब डूब कर उतराती,
रत्न राशि की शोभा पाकर, स्वयंप्रभा-सी इठलाती।
राजस्थानी भाषा में लिखी “सपूताँ रखजो लाज” में स्वाभिमान और मातृभूमि प्रेम की रचना के कुछ अंश देखिए…
राणा प्रताप री धरती, आ शूराँ री धरती।
इँ धरती रे खातिर राणा, छोड्या राज निवास।
जंगल-जंगल भटक गया, वे पी गया गाढ़ीप्यास।
त्याग तप री धरती, आ शूराँ री धरती।
सपूताँ रख जो लाज; आ वीराँ री धरती।
इँ धरती रे खातिर राणा, रण में दी नहीं पाछ;
देस धरम दृढ़ता री, राणा ऊँची राखी पाग।
रणवीराँ री धरती, आ शूराँ री धरती।
ऐसी ही काव्य सृजन की इनकी दो कृतियां “जीवनमूल्य प्रथम” और “जीवनमूल्य द्वितीय सुमन” प्रकाशित हुई हैं। प्रथम कृति में तीन शीर्षकों में 105 कविताएं पाठक को अवसाद से आशावाद में ले जाने का प्रयास है। समाज में व्याप्त दोष, दुर्व्यसन, ज्ञान के प्रति ललक का अभाव, भ्रष्टाचार, अशांति, दबी हुई कराह, नैतिकता की पुनः स्थापना तथा बापू के आदर्शों के माध्यम से सुधार व उत्थान का मार्ग प्रशस्त करना कविताओं के विषय हैं।
दूसरी कृति में चार शिक्षकों में 85 कविताओं का संग्रह में स्त्री पुरुषों के बदलते मानक, पीड़ित चोटिल अभिभावकों की व्यथा, धूमिल होती कर्मठता, कर्मनिष्ठा और मूल्यांकन आदर्श, संकीर्णताजन्य अवसाद और वैमनस्य की पीड़ा, देश की मूलभूत दृढ़ता को खोखला करती दायित्वहीन अधिकारी की रुग्ण अथवा अजगरी मानसिकता, तथाकथित मानवता के विविध चेहरे, महानगरों की समस्याएं, शिक्षा में सुधार की सूझ और प्रबल उत्प्रेरक विषयक रचनाएं हैं।
जीवनमूल्य कृति से उद्धृत “वसंत ऋतु आनंद छायो’’ रचना की पंक्तियों का उल्लेख जितेन्द्र निर्मोही द्वारा लिखित “राजस्थानी काव्य मं सिणगार’’ कृति में भी किया गया है। इनकी “मानस की गूंज” और तुलसी महात्म्य (निर्माणाधीन) दो कृतियां अप्रकाशित हैं।
(लेखिका की रचनाएं कई पत्र-पत्रिका में प्रकाशित होती रहती हैं। भारतेंदु समिति द्वारा “साहित्य श्री” अलंकरण के साथ-साथ अन्य संस्थाओं द्वारा इनको सम्मानित किया गया है।)
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अपना बेंगलो, बालाजी विहार,
मोहनपुरा बालाजी, बी-34, सांगानेर,
जयपुर -302029 (राजस्थान)