Friday, November 22, 2024
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फिल्मी चकाचौंध के पीछे कला, संस्कृति और भाषा का सौंदर्य बोध

वह कौन सा साल था याद नहीं. दूरदर्शन पर ऋत्विक घटक की फिल्में दिखाई जा रही थीं. रात करीब पौने ग्यारह बजे से ‘मेघे ढाका तारा’ दिखाई जानी थी. उम्र कम थी मगर किताबों-पत्रिकाओं की बदौलत निर्देशक के बारे में थोड़ा-बहुत जान गया था. टीवी की श्वेत-श्याम छवियों की उजास और परछाइयां उस अंधेरे कमरे में फैलती-सिटमती रहती थीं. मां मेरे साथ देखते-देखते जाने कब सो गईं. मुझे फ़िल्म समझ में नहीं आ रही थी मगर जाने किस सम्मोहन में बंधा पूरी फ़िल्म देखता जा रहा था. फिर एक वक्त आया जब खुले श्यामल आकाश के नीचे फ़िल्म की नायिका नीता की आर्त पुकार सुनाई देती है, “दादा, आमी बाचते चाई…”. कुछ समझ में नहीं आया मगर उस अनजान भाषा में उफनती बेचैनी मेरे भीतर घर कर गई. उसके बाद एक लंबा अर्सा गुजर गया. फिल्म भूल गई मगर सालों तक वो आवाज़ मेरे साथ रही, “दादा, आमी बाचते चाई…”.
कुछ आवाज़ें आपका जीवन भर पीछा करती हैं…
भाषाओं से परे, इन आवाज़ों में एक संगीत होता है, एक नाद, एक रिदम… जहां से वे हमारे लिए अर्थ ग्रहण करती हैं. उन अनजान ध्वनियों में कोई नया अर्थ है. यह अर्थ शब्दातीत होता है. ठीक उसी तरह जैसे किसी परिंदे की आवाज, या बादलों की गरज, या भरी दोपहर में मक्खियों की भनभनाहट. बांग्ला भाषा के इस सौदर्य से मेरा सबसे गहरा परिचय निःसंदेह सत्यजीत रे की फिल्मों से हुआ होगा.
जब उन्हें ऑस्कर मिला था तो उनकी एक-दो छोड़कर लगभग सभी फ़िल्में दूरदर्शन पर दिखाई गई थीं. ‘चारुलता’ फिल्म में बड़ी खूबसूरती से फिल्माया गया गीत “फुले फुले ढोले ढोले” सुनते हैं जिसे रवींद्रनाथ टैगोर के एक गीतिनाट्य ‘कालमृगोया’ से लिया गया था. दोपहर की खामोशी में झूले पर गुनगुनाती नायिका की बहुत हल्की अस्पष्ट सी आवाज, उस पंख सी हल्की, जो नीचे घास पर लेटे नायक के हाथों में है. धीरे-धीरे आवाज़ स्पष्ट होती जाती है. जिन्होंने भी ‘चारुलता’ देखी, झूले की लय के साथ वो गुनगुनाहट उन्हें हमेशा के लिए याद रह गई होगी.
इसके बिल्कुल उलट संदर्भ में याद रह जाता है फिल्म ‘प्रतिद्वंद्वी’ का वो दृश्य जब नायक इंटरव्यू देने जाता है. बहुत ही कुशलतापूर्वक संपादित दृश्यों के इस कोलाज़ में अचानक नायक से एक प्रश्न टकराता है, “व्हाट इज़ द वेट ऑफ द मून?” वह हैरत में पड़ जाता है. अंगरेज़ी की बजाय बंगाली में पूछ बैठता है कि इस सवाल का मेरी नौकरी से क्या रिश्ता? इंटरव्यू लेने वाला कहता है कि यह तय करना तुम्हारा काम नहीं है. अंत में नायक का बंगाली में थका-हारा सा जवाब “जानी ना…” भाषा की सीमाओं को तोड़ता-फोड़ता हर दर्शक को छू जाता है.
‘देवदास’, ‘साहब, बीबी और गुलाम’, परिणीता ‘अमानुष’, ‘आनंद आश्रम’, ‘अमर प्रेम’ जैसी सत्तर के दशक की बेहतरीन फ़िल्में बंगाल की कहानियों और वहां के परिवेश पर आधारित हैं. शरतचंद्र और बिमल मित्र तो जैसे किसी दौर में पढ़े-लिखे हिंदी भाषी मध्यवर्ग के घर-घर में पढ़े जाने वाले लेखक थे. दूरदर्शन पर आने वाले टीवी सीरियल में लंबे समय तक बंगाल की कहानियों का जादू छाया रहा. बिमल मित्र और शरत चंद्र के उपन्यासों पर आधारित ‘मुज़रिम हाजिर’ और ‘श्रीकांत’ जैसे सीरियल खूब लोकप्रिय हुए.
बंगाली सिनेमा से अलग मराठी सिनेमा सत्तर और अस्सी के दशक में बहुत लोकप्रिय नहीं हुआ था. न ही हिंदी के सिनेमा प्रेमियों के बीच मराठी फ़िल्मों पर कोई बात होती थी. सन 2004 में ‘श्वास’ जैसी फिल्म से मराठी सिनेमा ने अपनी क्षेत्रीय सीमाओं से निकलकर चर्चा पाई. जबकि इसके उलट हिंदी के समानांतर सिनेमा की जड़ें हिंदी और मराठी साहित्य में नज़र आती हैं. जहां एक तरफ राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर और मन्नू भंडारी की कहानियां और उपन्यास इस पैरेलल सिनेमा के लिए कच्ची सामग्री बन रहे थे, वहीं मराठी के जयवंत दलवी, विजय तेंडुलकर और महेश एलकुंचवार जैसे नाटककार हिंदी सिनेमा को समृद्ध कर रहे थे.
श्याम बेनेगल और गोविंद निहलाणी का सिनेमा में मराठी भाषा और संस्कृति की काफी अनुगूंज होती थी. हंसा वाडकर के जीवन पर आधारित श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘भूमिका’ की सिर्फ भाषा ही हिंदी है मगर उसके सारे स्रोत मराठी भाषा और संस्कृति में मौजूद हैं. गोविंद निहलाणी की ‘अर्ध सत्य’ में मराठी कवि दिलीप चित्रे की कविता का जितना प्रभावशाली इस्तेमाल हुआ है, वैसी कोई दूसरी मिसाल कम ही मिलती है. दिलचस्प बात यह है कि खुद दिलीप चित्रे ने हिंदी भाषा में ‘गोदाम’ के नाम से एक अनूठी फिल्म बनाई थी, जिसमें केके रैना ने अभिनय किया था. इसी तरह से सिर्फ एक ही फिल्म बनाने वाले रवींद्र धर्मराज ने जयवंत दलवी के नाटक पर बनी फिल्म ‘चक्र’ के जरिए झुग्गी-झोपड़ियों रहने वाले आवारा-उचक्कों के जीवन का बहुत ही यथार्थवादी चित्रण किया था.
भाषाओं ने एक-दूसरे से बहुत कुछ लिया है…
बहुभाषी सिनेमा दिखाने के लिए मुझे अस्सी के दशक के दूरदर्शन को शुक्रिया कहना होगा. किसी अन्य भाषा की पहली फिल्म देखी थी ‘निन्जरे किल्लते’, जिसे तमिल भाषा की बेस्ट फीचर फिल्म का अवार्ड मिला था. रविवार को दिखाई जाने वाली इन राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फ़िल्मों में बहुत सी बेहतरीन फ़िल्में देखने को मिलीं. इसमें एक यादगार तेलुगु फिल्म है ‘सागर संगमम’ (1983) जिसमें अद्भुत कंट्रास्ट के साथ मृत्यु और आंसुओं के बीच नृत्य की परिकल्पना की गई थी. इसे कमल हासन और जयाप्रदा के नृत्य से सजाया गया था.
कमल हासन अपनी असाधारण नृत्य प्रतिभा से यहां ‘डांस लाइक अ मैन’ की परिकल्पना साकार करते हैं. दक्षिण की फिल्में अपने परिवेश, सांस्कृतिक संदर्भों और कलात्मक आग्रह की वजह से तो ध्यान खींचती ही थीं, इनके निर्माण में एक अलग किस्म की लय होती थी. खास तौर पर दक्षिण की फिल्मों का संपादन नृत्य और तालबद्ध संगीत के प्रति उनके अनुराग से बहुत मेल खाता था. इस लिहाज से बहुत सी दक्षिण की फिल्में विश्व सिनेमा की धरोहर लगती हैं. हर भाषा के सिनेमा की अपनी एक अलग पहचान थी. मलयालम सिनेमा के पास ठहराव और कहानी कहने का धैर्य था. तमिल और तेलुगु सिनेमा अपनी कलात्मक उत्कृष्टता और सौंदर्य के कारण प्रभावित करता था. वहीं कन्नड़ सिनेमा का रवैया यथार्थवादी था.
बंगलुरु में हर शुक्रवार एक साथ छह भाषाओं में फिल्में रिलीज़ होती थीं. जिन दिनों मैं वहां नौकरी करता था विभिन्न भाषाओं के पोस्टर मेरा ध्यान खींचते थे. मेरा ऑफिस बीटीएम लेआउट में था और रास्ते में एक लंबी खाली दीवार पर उन फ़िल्मों के पोस्टर चिपके होते थे. धीरे-धीरे मैं उन पोस्टरों को देखकर यह अंदाजा लगाने लगा था कि वह किस भाषा की फ़िल्म होगी. एक बात और जो मेरा ध्यान आकर्षित करती थी, वह थी कि ये पोस्टर कहानी में आपकी रुचि जगाते थे. उत्तर
भारत में 80 और 90 के दशक वाले उबाऊ पोस्टर देखकर बड़े हुए लड़के के लिए यह सुखद आश्चर्य था. हमें तो आदत पड़ी थी हर फिल्म के पोस्टर पर चीखते हुए, थोड़ा सा खून बहाते नायकों के मुखड़े देखने की. मगर दक्षिण भारत के सिनेमा पोस्टरों कोई कहानी सी कहते नज़र आते थे. उन पोस्टरों में कुछ भी हो सकता था- तितली के पीछे भागती नायिका, पगडंडी पर साइकिल चलाते लड़का-लड़की, कार या ट्रक के बोनट पर बैठा हीरो या फिर उसके नायकत्व को ग्लोरीफाई करती उसकी कोई स्टाइल. इन सबसे बढ़कर पोस्टर पर कलात्मक शैली में लिखी गई उन भाषाओं की लिपियां…
भाषाओं का सौंदर्य उनकी ध्वनि और नाद में भी होता है…
शुरू-शुरू में सभी दक्षिण भारतीय भाषाओं की ध्वनि एक सी लगती थी, मगर बंगलुरु रहने के दौरान उन ध्वनियों में फ़र्क़ समझ में आने लगा. तमिल में ऐसा लगता था कि जैसे अनुस्वार की बहुतायत है, तेलुगु जो बोलते उसकी ध्वनि में मौजूद गीतात्मक लय बहुत सुरीली मालूम पड़ती और मलयालम सबसे अलग, ऐसा लगता मानो कोई अपनी हथेली से थपकियां या हथेली से ताल दे रहा है. जाहिर है इन उपमाओं के जरिए भाषा को अनुभव कर पाना मुश्किल होगा. मगर यही आरंभिक तरीका था. इसी कॉमन सेंस की बदौलत मैं दक्षिण भारतीय भाषाओं के बीच अंतर को पहचानने लगा था.
जब हम सिनेमा की तरफ आते हैं तो यही ध्वनि और नाद काफी हद तक संगीत में सामिल हो जाता है. कर्नाटक संगीत में ताल और पैटर्न का इस्तेमाल होता है जो गणितीय संरचना पर आधारित होता है. वायलीन और मृदंगम के इस्तेमाल को दौर से सुनें तो ऐसा लगता है कि जैसे इन्हीं दोनों वाद्ययंत्रों की संरचना पूरे कर्नाटक संगीत का आधार है. वायलीन की तान और मृदंगम की थाप. इलैया राजा को सबसे पहले सुना जिनके संगीत में आधुनिकता के साथ दक्षिण के परंपरागत शास्त्रीय संगीत की अनुगूँज थी. ‘मालगुड़ी डेज़’ के जरिए देश भर को “ता ना ना ताना नाना ना” की धुन सुनाने वाले एल वैद्यनाथ भी कर्नाटक शास्त्रीय संगीत में अपनी प्रतिभा के कारण अलग से पहचाने जाते थे. आने वाले समय में एआर रहमान और एमएम क्रीम ने भी भाषाओं की सीमाएं तोड़ीं और हिंदी सिनेमा के दर्शकों को कई लोकप्रिय गीत दिए.
अपनी भाषा में रचा-बसा कोई भी सिनेमा एक अलग गंध लेकर आता है, जो कुछ-कुछ बचपन में मिट्टी या हरी दूब से उठती हुई हमने महसूस की थी. भारतीय सिनेमा में भाषाएं हमें एक गहरे जमीनी सरोकार से जोड़ती हैं. इसकी शाखाएं हर दिशा में फैली हुई हैं. हिंदी क्षेत्र की संभवतः पहली आंचलिक भाषा की फ़िल्म ‘बिदेसिया’ फिल्म में महेंद्र कपूर और मन्ना डे जब गाते हैं –
हँसि हँसि पनवा खियवले बेइमनवा
कि अपना बसे रे परदेस
कोरी रे चुनरिया में
दगिया लगाइ गइले
मारी रे करेजवा में तीर
इस गीत के फिल्मांकन में ऊंट पर गुजरते गवैये और उनके पीछे आकाश में उमड़ते सफेद बादल एक अलग किस्म का प्रभाव पैदा करते हैं. अगले ही दृश्य में झर-झर पानी गिरने लगता है और नायिका की आँखों से आँसू भी. आँचलिक बोली इस दृश्य में और अधिक करुणा और विश्वसनीयता का संचार करती है. मुंबई के सिनेमा ने अपनी भाषा पारसी थिएटर से उधार ली और उसी को अपना लिया क्योंकि उन फिल्मों देश के हर क्षेत्र में कारोबार करना था. मगर जब उत्तर भारत की मिट्टी से जुड़ने की बात आई तो हिंदी सिनेमा ने हर बार अवधी मिश्रित हिंदी का सहारा लिया और इसने एक ऐसी अलग भाषा रच दी जिसका अस्तित्व दरअसल सिर्फ सिनेमा के स्क्रीन तक ही सीमित है मगर उसकी मिठास ऐसी की बरसों-बरस नहीं भुलाई जाएगी. सरल शब्दों में कही गई अर्थपूर्ण और जीवन में रस घोलती बात. इसके सबसे दिलचस्प और सफल दो उदाहरण आज भी हमारे सामने हैं, ‘गंगा जमुना’ और ‘नदिया के पार’. इन दोनों फ़िल्मों के गीतों और संवादों की मिठास आज भी कायम है. ‘गंगा जमुना’ के गीतों जैसा सुंदर प्रयोग अमूमन भाषा में नहीं मिलता है, जैसे –
मोरा बाला चन्दा का जैसे हाला रे
जामें लाले लाले हाँ,
जामें लाले लाले मोतियन की
लटके माला
दुर्भाग्य से आंचलिक भाषा का सिनेमा सस्ती व्यावसायिकता और अपसंस्कृति में लिपटता-घिसटता अपनी पहचान ही खो बैठा. सिनेमा ने एक बनावटी भोजपुरी भाषा का निर्माण किया जो द्विअर्थी या सीधे कहे गए अभद्र इशारों से भरी हुई है. पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर बंगाल की सीमा तक के विशाल हरे-भरे इलाके की भाषाई विविधता कभी सिनेमा में आ ही नहीं पाई. जिसमें अवधी, भोजपुरी, मगही, अंगिका, बज्जिका और मैथिली जैसी भाषाएं हैं. अभी इनमें नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया, कुरमाली जैसी सीमित क्षेत्रों की बोलियों का कोई अस्तित्व ही नहीं है, जो शायद ही कभी सिनेमा का हिस्सा बन पाएं. वहीं मुख्यधारा हिंदी सिनेमा में बीते 10 सालों में एक बड़ा बदलाव आया है कि उसने क्षेत्रीय टोन को पकड़ना आरंभ किया है. बुंदेलखंड, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, लखनऊ के आसपास की अवधी बोली के शेड्स अब सिनेमा में ध्वनित होने लगे हैं. ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’, ‘साहब, बीबी और गैंगस्टर’, ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘गुलाबो सिताबो’, ‘राम प्रसाद की तेरहवीं’, ‘बहुत हुआ सम्मान’ जैसी कई फ़िल्मों में हिंदी की अलग-अलग ध्वनियां देखी जा सकती है.
भाषा का एक सौंदर्य उसकी ध्वनि में होता है तो एक सौंदर्य उसकी लिखावट में बसता है…
सत्यजीत रे की फिल्मों के पोस्टर और स्क्रीन पर उभरते बंगाली लिपि के शीर्षक स्मृतियों में अंकित होते चले जाते थे. सबसे पहले ‘देवी’ फिल्म में शर्मिला टैगोर की अपलक आँखों और बड़ी बिंदी वाली छवि उभरती है और उसके साथ खूबसूरत बांग्ला कैलीग्राफी में देवी का लिखा होना. इसी तरह से रे की एक अन्य फ़िल्म में कैमरा कार में बैठे कुछ दोस्तों की कैजुअल बातचीत से होते हुए बाहर भागते पेड़ों पर जा ठिठकता है और जब स्क्रीन पर ‘अरण्य दिने रात्रि’ लिखा हुआ उभरता है तो हम हतप्रभ हो जाते हैं. सत्यजीत रे खुद एक आर्टिस्ट थे और उन्हें कैलीग्राफी की भी अच्छी समझ थी. उनकी फिल्मों में लिखावट का एक दृश्यात्मक सौंदर्य अलग से उभरता है जो अन्यत्र दुर्लभ है. कुछ ऐसा ही अनुभव असमिया फ़िल्मों के साथ भी होता है. जानू बरुआ की फिल्म ‘हलोधिया चोराये बोंधन खाये’ का शीर्षक पूरी स्क्रीन पर लिखा आता है और उसके बाद नदी उभरती है. जानू बरुआ से लेकर ‘विलेज़ रॉकस्टार’ वाली रीमा दास तक- असमिया सिनेमा में वहां की जमीन, आसमान, हवा और पानी को हम साफ-साफ महसूस कर सकते हैं. यह अलग बात है कि समय के साथ भाषाओं के बीच आवाजाही और बढ़नी चाहिए थी, समय के साथ सिनेमा की आंचलिक पहचान और गहरानी चाहिए थी, अस्मिताओं का सौंदर्य और निखरना चाहिए था. मगर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ है. सार्वजनिक जीवन में हम भले मल्टीकल्चरलिज़्म की तरफ बढ़ रहे हों, सांस्कृतिक रूप से भाषाओं के बीच दीवारें अभी भी खड़ी हैं.
भाषाएं कब हमारे जीवन दाखिल हो जाती हैं और निजी स्मृतियों का हिस्सा बन जाती हैं, हमें कभी नहीं पता चलता. सिनेमा में बहुभाषिकता हमें ‘अन्य’ के प्रति संवेदनशील होना सिखाती है. तभी हम ‘मेघे ढाका तारा’ में नीता की हृदय को बेध देने वाली पुकार सुन पाते हैं.
तभी वह पुकार हमें दिनों, महीनों, बरसों तक याद रहती है…
(लेखक कवि-कथाकार, पत्रकार तथा सिनेमा व लोकप्रिय संस्कृति के अध्येता हैं। देश की कई प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में फिल्मी दुनिया को लेकर उनके कई लेख प्रकाशित हो चुके हैं) 
(सदानीरा के बहुभाषिकता पर केंद्रित अंक में प्रकाशित आलेख)

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