Saturday, November 23, 2024
spot_img
Homeचुनावी चौपालबस्ती में बीजेपी के हरीश द्विवेदी की उपलब्धियां और उनके चुनाव हारने...

बस्ती में बीजेपी के हरीश द्विवेदी की उपलब्धियां और उनके चुनाव हारने के कारण

उत्तर प्रदेश के बस्ती जिला के तेलिया जोत (कटया) निवासी श्री हरीश द्विवेदी का जन्म 22 अक्टूबर 1973 को एक मध्यम वर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ है। उनके पिता श्री साधुशरण दुबे माता यशोदा देवी रहीं। पिता जी
किसान इंटर कालेज मरहा बस्ती में शिक्षक रहे है। 2006 में, उन्होंने विनीता द्विवेदी से विवाह किया, उनके एक बेटा और एक बेटी है 1991 से 1994 तक वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के जिला प्रमुख रहे है।हरीश द्विवेदी के जुझारू तेवर ही उनको हर किसी से अलग करते हैं।

आरएसएस की शाखा में 1990-91 में मुख्य शिक्षक के रूप में अपने दायित्वों का निर्वहन करने वाले हरीश ने उसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने पोस्ट ग्रेजुएट शिक्षा दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्व विद्यालय से की है। वह 1996 तक प्रदेश सहमंत्री रहे है। बाद में वह अभाविप के विभाग संगठन मंत्री बने।1999 से 2003 तक प्रयाग में संभाग संगठन मंत्री रहे है । 2004 से 2007 तक भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशरी नाथ त्रिपाठी के राजनीतिक सलाहकार रहे है। इस दौरान वह 2005 से 2007 तक भाजयुमो के प्रदेश महामंत्री भी रहे। 2007 से 2010 तक भाजयुमो के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे।

वह 2010 से 2013 तक भारतीय जनता युवा मोर्चा उत्तर प्रदेश इकाई के भाजयुमो के प्रदेश अध्यक्ष का दायित्व संभाला। उन्होंने भाजयुमो द्वारा सक्रिय रूप से तिरंगे यात्रा में भाग लिया था अनुराग ठाकुर और उन्हें अन्य वरिष्ठ भाजपा नेताओं के साथ पठानकोट में हिरासत में लिया गया था । 2012 के विधानसभा चुनाव में उन्हें बस्ती सदर विधान सभा क्षेत्र से टिकट मिला। लगभग 34 हजार वोट पाते हुए तीसरे स्थान पर असफल रहे । 2013 से अब तक वह भाजपा प्रदेश कार्यसमिति सदस्य के रूप में काम कर रहे हैं। श्री हरीश द्विवेदी 43 वर्ष में सांसद का चुनाव लड़ा था।

उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के एक सदस्य के रूप में 2014 के चुनावों में वे उत्तर प्रदेश की बस्ती सीट से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर निर्वाचित हुए। 3.58 लाख वोट हासिल करते हुए वह चुनाव जीत गए। सपा उम्मीदवार बृज किशोर सिंह “डिंपल” दूसरे व बसपा उम्मीदवार राम प्रसाद चौधरी तीसरे स्थान पर रहे।

2019 भारतीय आम चुनाव में , वे बस्ती (लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र) से लगातार दूसरी बार संसद सदस्य चुने गए। उन्होंने बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार राम प्रसाद चौधरी को 30,354 (2.88%) मतों के अंतर से हराया। वे वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय सचिव हैं ।

वह संसद में वित्त एवं ऊर्जा विभाग के स्टैडिंग कमेटी के सदस्य रहे हैं। संसद में उनका कामकाज औसत रहा है। पिछले 5 सालों के दौरान हरीश द्विवेदी का संसद में उपस्थिति 86 फीसदी रहा है, जबकि राष्ट्रीय औसत 80 फीसदी का है, जबकि राज्य औसत 86 फीसदी का है। वहीं उन्होंने महज 34 बहसों में हिस्सा लिया।

जबकि राष्ट्रीय औसत 67.1 फीसदी है, जबकि राज्य औसत 109 का है। अपने कार्यकाल के दौरान सांसद हरीश द्विवेदी ने सदन में 328 सवाल पूछे। जोकि राष्ट्रीय औसत 293 और राज्य औसत 198 से कहीं अधिक है। हालांकि, पूरे कार्यकाल के दौरान कोई भी प्राइवेट बिल सदन में पेश नहीं किया, जिसका राष्ट्रीय औसत 2.3 और राज्य औसत 1.8 है।

पहले के मुकाबले बस्ती का रेलवे स्टेशन बहुत बेहतर हो गया है, सड़के अच्छी हो गई हैं, लेकिन शहर गंदगी की मार झेल रही है। वैसे तो देश में स्वच्छ भारत अभियान जोरों से चलाया गया, लेकिन बस्ती में उनका कोई प्रभाव देखने को नहीं मिला। मुंडेरवा में काम तो हुआ है लेकिन रोजगार के कुछ हुआ है, मुंडेरवा चीनी मिल शुरु है, लेकिन स्थानीय लोगों को रोजगार कम मिला है।

सांसद का कामकाज अच्छा है, लेकिन उन्हें और सुधार करने की जरुरत है । पिछले पांच साल में जिले में मेडिकल कॉलेज का निर्माण और बंद पड़ी मुंडेरवा चीनी मिल को चलाने बड़ा प्रॉजेक्ट आ चुकी है। उन्होंने राम जानकी मार्ग ,बस्ती अंबेडकर नगर मार्ग को राष्ट्रीय राज मार्ग का दर्जा दिलवाया।बस्ती को रिंग रोड की सौगात दिलवाई। मनवर गंगा एक्सप्रेस ट्रेन चलवाई। कई और ट्रेन चलवाए और उनके स्टॉपेज बढ़वाए। स्वच्छ भारत अभियान , मुख्य मंत्री सामूहिक विवाह योजना ,निःशुल्क बोरिंग योजना ,अम्बेडकर विशेष रोजगार योजना ,मुख्यमंत्री सामग्र ग्राम विकास योजना तथा प्रधान मंत्री आवास योजना- ग्रामीण
,गैस कनेक्शन,कन्या विद्याधन, प्रधान मंत्री आयुष्मान योजना आदि अनेक जन योजनाओं को आम जनता को दिलवाया। साथ ही भोखरी में लगभग 1000 करोड़ रुपये की धनराशि से विद्युत केन्द्र का निर्माण कार्य कराया और
लगभग 6000 गांवों/मजरों का विद्युतीकरण कराया।

अन्य प्रमुख सहभागिता कार्य :-
(2014-वर्तमान)- सदस्य, ऊर्जा संबंधी स्थायी समिति ।
(2014-2019)- सदस्य, परामर्शदात्री समिति, कोयला मंत्रालय ।
(2016-2018)- सदस्य, सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी स्थायी समिति।
(2018-2019)- सदस्य, वित्त संबंधी स्थायी समिति ।
(2019-वर्तमान)- सदस्य, 17वीं लोकसभा (दूसरा कार्यकाल)। वे अध्यक्ष, याचिका समिति (लोकसभा)।
सदस्य, परामर्शदात्री समिति, सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय तथाअनुमान समिति के सदस्य के रूप में भी अपनी सहभागिता निभाते रहे। संगठन में राष्ट्रीय मंत्री के रूप में बिहार और पश्चिम बंगाल का दायित्व भी निभाया है।

2024 के (61लोकसभा चुनाव :-

इस बार के लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश में प्रीतिकूल परिणाम का सामना करना पड़ा है। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने 2024 के आम चुनाव में 80 में से 33 तथा सपा को 37 सीटें मिली हैं। 6 सीट कांग्रेस को मिली है। राष्ट्रीय लोकदल को 2 सीट, अपना दल (एस) को एक तथा आजाद समाज पार्टी को एक सीट मिली है।

उत्तर प्रदेश की सबसे हॉट सीट बनी फैजाबाद-अयोध्या लोकसभा सीट तथा उससे लगे हुए अंबेडकर नगर, बस्ती, खलीलाबाद, सुलतानपुर, अमेठी व रायबरेली आदि पर भी भारतीय जनता पार्टी को हार का सामना करना पड़ा है। यूपी के सियासी मैदान में अखिलेश यादव और राहुल गांधी एक साथ आए।

इसके कारणों और परिस्थितियों पर एक बार विहंगम दृष्टि डालना अनुचित ना होगा। बस्ती 61वे लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के श्री राम प्रसाद चौधरी को 524756 वोट मिले उन्होंने बीजेपी के श्री हरीश द्विवेदी को लगभग एक। लाख मतों से हराया।श्री हरीश द्विवेदी को 423798 वोट मिले। बीएसपी के
120957 मत मिले ।

बीजेपी के हार का विश्लेषण
1 .केंद्रीकरण और मशीनीकरण :-
भाजपा के यूपी में खराब प्रदर्शन के कई कारण रहे। इसमें सत्ताधारी दल का अत्यधिक केंद्रीयकरण और मशीनीकरण भी शामिल है। काफी पहले टिकट घोषित करने का भाजपाई प्रयोग भी सफल नहीं हुआ। अलबत्ता भाजपा प्रत्याशियों के हिसाब से विपक्षी दलों ने अपने पूर्व घोषित चेहरों को बदल दिया। तमाम सीटों पर टिकट वितरण को लेकर भारी असंतोष दिखा, जिसका असर नतीजों तक दिखाई दिया। वहीं भाजपा की रीढ़ कहा जाने वाला आरएसएस इस चुनाव में पूरी तरह नदारद दिखा। इसका असर मतदान प्रतिशत पर साफ नजर आया।

2. कार्यकर्ताओं में मायूसी :-

2014 के बाद यह पहला चुनाव था, जिसमें भाजपा कार्यकर्ताओं में हद दर्जे की मायूसी दिखाई दी। प्रदेश संगठन के तमाम बार कहने के बावजूद कार्यकर्ताओं ने वोटरों को घरों से निकालने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। पार्टी के कई नेताओं ने दबी जुबान से कहा कि जब सारे फैसले दिल्ली से ही होने हैं तो फिर भीषण गर्मी में कार्यकर्ता ही जान की बाजी क्यों लगाए?

दरअसल बीते कुछ समय में भाजपा में तमाम छोटे-बड़े फैसले दिल्ली दरबार से ही होते रहे हैं। यहां तक कि जिलाध्यक्षों के बदलाव का फैसला भी दिल्ली की मुहर के बाद ही हो सका। एमएलसी से लेकर राज्यसभा चुनाव से जुड़े अधिकांश फैसलों में यूपी की भूमिका लगातार घटी है। पार्टी ने केंद्रीय स्तर से इतने अधिक अभियान और कार्यक्रम चलाए कि उससे कार्यकर्ताओं में खिन्नता का भाव आ गया। यही कारण है कि बूथ स्तर तक सर्वाधिक संगठनात्मक कवायद करने वाली भाजपा को इस बार तमाम सीटों पर बड़ी हार का सामना करना पड़ा।

3. संघ की बेरुखी :-

भाजपा के उदय से अब तक माहौल बनाने से लेकर मतदान प्रतिशत बढ़ाने में संघ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह शायद पहला चुनाव था, जिसमें पूरे प्रदेश में आरएसएस और उससे जुड़े अन्य संगठन बिल्कुल सक्रिय नहीं दिखे। असल में संगठन और सरकार से जुड़े तमाम फैसलों में संघ बड़ी भूमिका निभाता रहा है। फिर चाहे वो विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति हो या संगठन से लेकर निगमों, बोर्डों आदि में नियुक्तियां, टिकट वितरण में भी संघ की राय खासा महत्व रखती थी।

इस लोकसभा चुनाव से पहले तीन बार संघ और भाजपा की समन्वय बैठकें हुईं। पांच चरणों के चुनाव के बाद भी संघ के पदाधिकारियों के साथ सरकार और संगठन के चेहरों ने बैठक की। मगर बंद कमरों की इन बैठकों का कोई प्रभाव जमीन पर नहीं दिखा। इसका भी सीधा असर चुनावी नतीजों पर पड़ा।

4. प्रत्याशियों का विरोध :-

भाजपा के बारे में 2014 से लगातार यह कहा जाता है कि कई तरह के सर्वे के बाद ही प्रत्याशियों का चयन किया जाता है। मगर इस बार ऐसा नहीं हुआ। पार्टी नेतृत्व का अति आत्मविश्वास तब दिखाई दिया, जब भाजपा की 51 नामों वाली पहली सूची में ही कई ऐसे सांसदों को प्रत्याशी घोषित किया गया, जिनकी जमीनी रिपोर्ट बेहद खराब थी। शुरुआती दौर में कई सीटों पर प्रत्याशियों को मुखर विरोध भी झेलना पड़ा। इसका नतीजा यह रहा कि तमाम सीटों पर पार्टी के विधायक और स्थानीय संगठन ही पार्टी प्रत्याशी को निपटाने में लगे रहे। नतीजा यह हुआ कि मोदी मैजिक भी नैया पार न लगा सका।

अपनों से दूरी के चलते हारे हरीश द्विवेदी:-

अपनों से दूरी के चलते हरीश द्विवेदी को जीत की हैट-ट्रिक लगाने की बजाय हार का सामना करना पड़ा है। जिन्होंने पहले साथ रहकर उन पर भरोसा जताया था, उनसे रिश्ता टूटता गया । चुनाव में वह कहीं साथ नजर नहीं आए। जिन पर हरीश ने आंख मूंद कर भरोसा किया वे लोग समय के साथ कदम से कदम मिलाकर तो चलते रहे, लेकिन उनके दिल में उपजे जख्म पर मरहम लगाने में वह सफल नहीं हो पाए। यही कारण रहा कि वह बड़े अंतर से चुनाव हार गए।

हरीश द्विवेदी लगातार राजनीतिक व सामाजिक रूप से सक्रिय रहे। टिकट को लेकर भी जिले में कई वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी खुलकर सामने आई। पार्टी ने भी कुछ ऐसे फैसले लिए, जिससे जिले में भाजपा की टीम कमजोर हुई।
बस्‍ती में 2014-2019 के चुनाव में जो लोग हरीश से जुड़े थे वह इनकी अनदेखी के चलते नाराज हो गए और धीरे-धीरे दूरी बना ली । पार्टी ने भी कुछ ऐसे फैसले लिए जिससे जिले में भाजपा की टीम कमजोर हुई। हार का एक कारण भाजपा के पूर्व जिलाध्यक्ष दयाशंकर मिश्र का विरोध में आ जाना रहा।

हरैया विधान सभा के विधायक श्री अजय सिंह बस्ती के एक मात्र भाजपा के विधायक थे।शेष चार विधायक पहले ही पराजित होने के कारण तटस्थ हो गए थे।एक मात्र विधायक की महत्वाकांक्षा अंदरूनी विरोध कर पार्टी को नुकसान पहुंचाया है। श्री अजय सिंह भाजपा के विधायक का असहयोग भी बड़ा कारण रहा है।

6,. पार्टी में शामिल लोगों का विरोध :-

आखिरी दौर में तमाम ऐसे लोगों को पार्टी में शामिल कराया गया, जिनका पार्टी के ही स्तर पर विरोध खुलकर सामने आया। हरीश द्विवेदी कार्यकर्ताओं व समर्थकों को मनाने के साथ दूसरे दलों से आए हुए नेताओं के सहयोग से समीकरण साधने में जुटे रहे, लेकिन वह अंदरखाने में अपने ही खिलाफ बिछाई जा रही बिसात को भांपने में सफल नहीं हो पाए। लोग आश्वासन व भरोसा देते रहे। कुछ पूर्व विधायकों व पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारियों ने भी विरोध किया। कुछ मंच पर दिखते थे तो कुछ मंच पर भी किनारा किए रहे। हार का एक कारण भाजपा के पूर्व जिलाध्यक्ष दयाशंकर मिश्र का विरोध में आ जाना रहा।
पहले तो उन्हें बसपा ने अपना प्रत्याशी बनाया लेकिन नामांकन के अंतिम दिन अचानक उनका टिकट कट गया। दयाशंकर मिश्र ने हरीश पर टिकट कटवाने का आरोप लगवाया।

7. आरक्षण और संविधान संशोधन को लेकर हमला:-

चुनाव प्रचार के दौरान सपा गठबंधन के प्रत्याशी लगातार आरक्षण और संविधान संशोधन को लेकर हमला बोलते रहे, लेकिन इसके जवाब में भाजपा प्रत्याशी समेत बड़े नेताओं ने चुप्पी साध ली, इसके चलते बसपा का बड़ा वोट बैंक सीधे सपा गठबंधन की तरफ शिफ्ट हो गया और भाजपा उन मतदाताओं को समझाने में सफल नहीं हो पाई, जो आरक्षण और संविधान संशोधन को लेकर आशंकित थे।

8. गोलबंदी और अंतर्कलह :-
.गोलबंदी और अंतर्कलह भाजपा के लिए दिन-ब-दिन भारी पड़ती गई। जैसे ही लोकसभा चुनाव का बिगुल बजा, यहां पार्टी में खेमेबंदी शुरू हो गई। शुरू में लगा टिकट के लिए दावेदारी का दौर है। प्रत्याशी घोषित होने के बाद स्थिति ठीक हो जाएगी, लेकिन हुआ उलटा। पार्टी ने चेहरा बदलने के बजाय लगातार तीसरी बार सांसद हरीश द्विवेदी पर भरोसा जताया। इसी के बाद अंर्तद्वंद्व और तेज हो गया। भीतर ही भीतर अपने ही लोग जुदा होने लगे। इस बिखराव को अंत तक न तो संगठन रोकने में सफल हो पाया और न ही प्रत्याशी। 2019 के चुनाव के बाद जिले में भाजपा का दबदबा इस कदर हुआ कि लोकसभा से लेकर विधानसभा सीट तक विपक्षी कहीं काबिज नहीं हो पाए। पांच विधायक के साथ सांसद पद भी भाजपा की झोली में थी। मगर, इस स्वर्णिम अवसर को भाजपा सहेज नहीं पाई। उस समय तत्कालीन विधायक और सांसद के बीच खींचतान जैसी स्थिति सामने आती रही। 2022 के पहले एक-दो बार प्रभारी मंत्री के सामने सरकारी बैठकों में भी भाजपा का अंर्तविरोध सामने आ चुका है।

9.सांसद और विधायक में अंर्तविरोध वा मतभिन्नता:-

सांसद और विधायक एक-दूसरे के खिलाफ आस्तीन चढ़ाते नजर आए। बहरहाल 2022 का विधानसभा चुनाव आ गया। यहां से पार्टी दिग्गजों की आपस में एक-दूसरे के प्रति त्योरी और चढ़ने लगी। इस चुनाव में सीटिंग एमएलए ही प्रत्याशी बना दिए गए। मोदी-योगी लहर के बाद भी यहां भाजपा को अंर्तविरोध से जमकर जूझना पड़ा। बस्ती सदर से तत्कालीन विधायक दयाराम चौधरी, रुधौली से तत्कालीन विधायक संजय जायसवाल, कप्तानगंज से तत्कालीन विधायक सीपी शुक्ल, महादेवा से तत्कालीन विधायक रवि सोनकर चुनाव हार गए। भाजपा के अंर्तविरोध का लाभ सपा प्रत्याशियों को मिला। भाजपा की झोली में केवल एक विधायक हर्रैया से अजय सिंह बचे रह गए। इसी चुनाव के बाद विपक्ष जहां हाबी होता गया, वहीं भाजपा में खेमेबंदी और मजबूत हुई। सांसद खेमे से नाराज पक्ष समय का इंतजार करने लगा। पहले उन्हें टिकट न मिले, इसे लेकर खींचतान हुई। मगर, जब यहां सफलता नहीं मिली तो नाराज खेमा चुनाव से ही तौबा कर लिया।

9. दिग्गजों का पलायन :-

सांसद हरीश द्विवेदी का टिकट घोषित होने के कुछ ही दिनों बाद भाजपा के पूर्व जिलाध्यक्ष दयाशंकर मिश्र ने बगावत कर बसपा का दामन थाम लिया। उन्हें बसपा से प्रत्याशी भी घोषित कर दिया गया। हालांकि, बाद में उनका टिकट कट गया तो विपक्षियों ने इसका भी ठीकरा भाजपा पर ही फोड़ा। यहां से चुनाव ने नया मोड़ लिया। टिकट कटने के बाद दयाशंकर सपा में शामिल होकर गठबंधन प्रत्याशी राम प्रसाद चौधरी के साथ प्रचार में जुट गए। इसके अलावा संगठन के कुछ अन्य वरिष्ठ पदाधिकारी और नेता चुनाव में भागदौड़ करने से अच्छा चुप्पी साध ली। भाजपा के चर्चित चेहरों में कुछ पूर्व विधायक, पूर्व पदाधिकारी बहुत सक्रिय नहीं दिखे। शीर्ष नेताओं के आगमन पर ही उन्हें मंचों पर देखा गया।

लेखक का परिचय:-
(लेखक ,भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं ।

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -

वार त्यौहार