जगत के नाथ भगवान जगन्नाथ नर रुप में नारायण हैं। वे कलियुग के एकमात्र पूर्ण दारुब्रह्म हैं जो साल के 365 दिन तक अपनी दो मुख्य लौकिक-अलौकिक लीलाओं के माध्यम से भक्तों की आस्था और विश्वास के इष्टदेव अनादि काल से बने हुए हैं। वे ओड़िशा प्रदेश के आध्यात्मिक राजराजेश्वर हैं। राजाओं के राजा हैं। वे आज भी साल में एकबार रथारुढ़ होकर सोना वेश धारण कर अपनी वास्विक ओड़िया अस्मिता को स्पष्ट करते हैं।
एक ओर उनकी पहण्डी विजय उनकी अपनी सेवायतों के प्रति उनके सखाभाव को स्पष्ट करती है ठीक उसी प्रकार सोना वेश के दिन तीनों रथों (तालध्वज,देवदलन तथा नंदिघोष रथ पर) पर श्रीमंदिर के सिंहारी, पालिया, खुंटिया, भंडार मेकप, चांगड़ा मेकप सेवकों के द्वारा सोना वेश धारण कर वे वास्तविक और यथार्य़ रुप में अपनी ओड़िया अस्मिता (ओड़िशा के आध्यात्मिक राजाधिराज) को स्पष्ट करते हैं।रथारुढ़ होकर सोना वेश धारण करना उनकी उनकी ऐश्वर्य लीला है जिसे आगामी 17 जुलाई को देखा जाएगा। श्रीमंदिर के रत्नभण्डार में रखे कुल बारह हजार तोले के सोने के अनेक आभूषण,हीरे-जवाहरात आदि से उनको सुशोभित किया जाएगा।
चतुर्धा देवविग्रह रथारुढ़ उस दिन नख से मस्तक तक स्वर्णाभूषणों से श्रीमंदिर प्रशासन पुरी के पूरे विधि-विधान के साथ सुशोभित किये जाएंगे।सच तो यह भी है कि दारुब्रह्म और ब्रह्मदारु भगवान जगन्नाथ के रुप में अपनी इस ऐश्वर्य लीला के माध्यम से यह भी संदेश देना चाहते हैं कि वे आज भी ओड़िशा के आध्यत्मिक राजाधिराज हैं।दारुब्रह्म का अभिप्राय ऋग्वेद तथा स्कंद पुराण में स्पष्ट है। जीव और ब्रह्म के निरुपाधिक धरातल पर एकत्व का द्योतक है-दारुब्रब्म शब्द और ब्रह्म और जीव के निरुपाधिक धरातल पर एकत्व का द्योतक है-ब्रह्मदारु शब्द।श्रीमद्भागवत में अष्टविध प्रतिमा में दारुमयी प्रतिमा का उल्लेख मिलता है।
इसीलिए नील मेघमण्डल के समान श्रीजगन्नाथ जी हैं।शंख तथा चन्द्रमा के समान श्री बलभद्रजी हैं।कुमकुम के समान अरुणा सुभद्राजी हैं तथा लाल वर्ण के सुदर्शनजी हैं।भगवान रुद्र ही कृष्ण जी की वंशी हैं।गौरतलब है कि श्रीमंदिर में भगवान जगन्नाथ के सोने वेश में सुशोभित किये जाने की परम्परा सुदीर्घ है। उनको साल में सिर्फ एक बार जगन्नाथ मंदिर के बाहर रथ के ऊपर सोना वेश में सजाया जाता है।इसके अलावा पांच बार श्रीमंदिर के रत्नसिंहासन पर चतुर्धा विग्रहों को सोना वेश में सजाया जाता है।वे पवित्र अवसर हैःकार्तिक पूर्णिमा, पौष पूर्णिमा, डोल पूर्णिमा अथवा दशहरा तथा कुमारपूर्णिमा के दिन।
भगवान जगन्नाथ के सुना वेशा (स्वर्ण वेश) की परम्पराः
ओड़िशा के सूर्यवंशी शासकों ने भगवान जगन्नाथ के लिए कीमती आभूषण और सोना दान किया है।जगन्नाथ मंदिर की दीवार पर एक शिलालेख में लिखा है कि गजपति कपिलेंद्र देव ने 1466 ईस्वी में भगवान जगन्नाथ को बड़ी मात्रा में सोने और रत्नों के आभूषण और बर्तन दान किए थे।हलफनामे के अनुसार, भीतरी कक्ष में 50 किलो 600 ग्राम सोना और 134 किलो 50 ग्राम चांदी है।बाहरी कक्ष में 95 किलो 320 ग्राम सोना और 19 किलो 480 ग्राम चांदी है।
श्रीमंदिर प्रशासन पुरी से प्राप्त जानकारी के अनुसार आगामी 17 जुलाई को श्रीमंदिर में मंगल आरती, मइलम, तड़प लागी, अवकाश, वेश संपन्न, गोपाल बल्लभ भोग, सकाल धूप, महास्नान तथा सर्वांग वेश आदि नीति संपन्न होने के बाद चतुर्धा विग्रहों को सोने के वेश में उन्हें रथारुढ़ ही सजाया जाएगा।सिंहारी, पालिया, खुंटिया, भण्डार मेकप, चांगड़ा मेकप सेवायत उन्हें अनेक प्रकार के स्वर्णाभूषणों से सजाएंगे।
सुना वेशा (स्वर्ण वेश) के प्रमुख आभूषणः महाप्रभु जगन्नाथ को श्रीभुज, श्रीपयर, किरीट, चन्द्र, सूर्य, आड़कानी, घागड़माली, कदम्बमाली, तिलक, चन्द्रिका, अलका, झोबा कंठी, स्वर्ण चक्र तथा चांदी के शंख, हरिड़ा, कदम्ब माली, बाहाड़ा माली, ताबिज माली, सेवती माली, त्रिखंडिका, त्रिखंडिका कमरपट्टी आदि आभूषणों से सजाया जाएगा।इसीप्रकार बलभद्र जी को श्रीपयर, श्रीभुज, कुंडल, चन्द्र,सूर्य, आड़कानी, घागड़ा माली, कदम्ब माली, तिलक, चन्द्रिका, अलका, झोबा कंठी, हल, एवं मुसल, बाहाड़ा माली, बाघनख, सेवती माली, त्रिखंडिका कमरपट्टी आदि आभूषण से सजाया जाएगा।देवी सुभद्रा के विशेष आभूषणों में शामिल है-किरीट, कान, चन्द्र सूर्य, घागड़ा माली, कदम्ब माली, दो तगड़ी, सेवती माली आदि।
इस प्रकार महाप्रभु जगन्नाथ अपनी माधुर्य लीला( साल के 12 महीनों में कुल 13 उत्सव का मनाया जाना,प्रतिदिन उनका विभिन्न वेश धारण करना,उनका 56 प्रकार का भोग ग्रहण करना,प्रतिदिन हीतगोविंद सुनना आदि शामिल हैं) तथा सोना वेश में अपनी ऐश्वर्य लीलाकर न केवल अपने लीलाश्रेत्र पुरी धाम को आनंदित करते हैं अपितु रथारुढ़ होकर वे सोना वेश धारणकर अपने राज-राजेश्वर रुप को स्पष्ट करते हैं,अपने आपको ओड़िशा का आध्यात्मिक सम्राट बताते हैं।