सीमा-विवाद तो उन दिनों भी चलते थे, जब भारत पर अंग्रेज़ों का पूर्ण प्रभुत्व और शासन था.
बंबई के उच्च न्यायालय में एक महत्त्वपूर्ण मामला विचारधीन था, जिसमें एक छोटे और एक बड़े रजवाड़े का सीमा-विवाद था. न तो बड़े को छोटे रजवाड़े के लघु आकार आदि पर कोई दया आयी, और न छोटे रजवाड़े ने ही अपने लघु आकार आदि के कारण अपने मान-सम्मान को कभी कम समझा. इसलिए मामला घिसटता रहा और अकिंचन छोटा राज्य कानूनी और अन्य व्ययों पर होने वाले खर्चों के निमित्त धीरे-धीरे अपनी धन-संपत्ति को पानी की तरह बहाता रहा.
वहां की जनता भी उतनी राजनिष्ठ पहले कभी न थी, जितनी इस विवाद के समय हो गयी. लोग अपने राज्य की सीमा का एक इंच भाग भी बड़े राज्य द्वारा हड़पा जाना सहन करने को तैयार नहीं थे. अतः उन्होंने करों की भरपूर अदायगी की. एक वर्ष के कर तो प्रायः सभी ने अग्रिम रूप में भुगता दिये. और जब कर-अधिकारी उनकी देशभक्ति की भावना को उकसाते, तो कई लोग दो वर्षों की कर-राशि भी अग्रिम देने को तैयार हो जाते थे. इसी प्रकार गांजा, भांग, मद्य आदि वस्तुओं की आबकारी भी अग्रिम रूप में दे दी जाती थी. राज्य-कर्मचारी जनता से जो भी राशि जमा कर सकते थे, कर चुके थे, और प्रशंसनीय बात यह थी कि यह सभी कार्य बिना किसी हील-हुज्जत, शिकवा-शिकायत के ही हुआ था.
मगर इस प्रकार जुटायी गयी सारी धन-राशि भी खर्च हो चुकी थी और उस छोटे राज्य का राजकोष लगभग रीता हो चुका था. बस कुछ ही हजार रुपये उसमें शेष रह गये थे. किंतु वह निर्णायक दिन आ पहुंचा था, जिस दिन सीमा-विवाद की अंतिम सुनवाई होनी थी.
यह कैसे हो सकता था कि छोटे राज्य का नरेश उस सुनवाई में अनुपस्थित रहे और अपना सलाहकार वकील भी न भेजे! किंतु इसके लिए तो लगभग बीस हजार रुपयों की आवश्यकता थी. नरेश इस बात से अत्यंत चिंतित था. उसने अपने दीवान को बुलाया. परस्पर बातचीत से राज्य के खजाने की वास्तविक स्थिति का दोनों को पूरा-पूरा ज्ञान हो गया. अब और अधिक धन उगाहा नहीं जा सकता था. प्रजा जितना भी दे सकती थी, दे चुकी थी, अब उस पर और अधिक कर लगाने का अर्थ उसे स्पष्ट करना ही था.
दीवानजी ने तो बिलकुल अविवेकियों की-सी राय दी. रानी साहिबा के आभूषण गिरवी धन उधार ले लिया जाये, तो कैसा रहे? किंतु कोई नरेश उधार लेने की बात कैसे सोच सकता था?
‘क्या इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए जनता से बीस हजार रुपये उगाहे नहीं जा सकते?’
‘नहीं, यह तो नहीं हो सकेगा हुजूर.’
‘तो जाइये, राजपुरोहित को ले आइये.’
थोड़ी ही देर में राजपुरोहित वहां उपस्थित हुए. नरेश ने उनसे परामर्श किया और अपने राज्य के उत्तराधिकारी ज्येष्ठ पुत्र का चूड़ाकर्म-संस्कार एक शुभ दिन के लिए निर्धारित कर दिया गया. यों भी सात वर्षीय युवराज इस संस्कार के योग्य हो गया था और नरेश ताड़ गया कि अब उपयुक्त समय आ गया है.
सारे प्रबंध चटपट किये गये. सभी लोगों को निमंत्रण-पत्र भेज दिये गये, विशेषतः राजकुमार के मामा को. बड़े उल्लास का अवसर था, सभी प्रसन्न थे. सभी के मन से सीमा-विवाद का मामला ओझल हो गया.
ऐसे अवसरों पर परम्परा के अनुसार नरेश को भेंट प्रस्तुत करने का काम युवराज के मामा को करना होता था. उसने बहुमूल्य वेश-भूषा रजत-पात्र आदि के अतिरिक्त 2,000 रुपये नकद की भेंट स्वयं प्रस्तुत की. जनता ने भी मुक्त हृदय से उपहार दिये. भला ऐसा कौन होगा, जो वर्तमान नरेश के पुत्र और राज्य के उत्तरा-धिकारी युवराज को, मात्र सात वर्ष की आयु में मुंडन के समय देखना न चाहे!
कोषाध्यक्ष दूसरे ही कार्य में व्यस्त था. उसने आकर सूचित किया कि उपहारों व भेंटों का मूल्य रु.21,000 जमा हो चुका है.
नरेश निश्चित तारीख को अपने कानूनी सलाहकार के साथ बंबई रवाना हो गया. सुनवाई उसी दिन पूरी हो गयी और निर्णय उसी के पक्ष में सुनाया गया. नरेश को उसकी भूमि वापस मिल गयी, और उसने अपनी प्रिय प्रजा को रुष्ट नहीं किया था, जिसने अपने भावी शासक के चूड़ाकर्म के लिए 21,000 रु. सहर्ष उपहार-स्वरूप भेंट कर दिये थे. राजपुरोहित ने सचमुच संस्कार के लिए अत्यंत शुभ घड़ी चुनी थी.