अग्निधर्मा :महादेवी वर्मा पुण्यतिथि विशेष
(जन्मः 26 मार्च 1907 – निधनः 11 सितंबर 1987)
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वही धूप है, वही पहाड़ी बादल,
वही जंगल की वनैली, सरसराती हवा;
सिर्फ वे आँखें नहीं हैं,
जो कभी डेस्क से उठकर
खिड़की के पार उन्हें टोका करती थीं
रामगढ़ का वह घर, जो एक छोटी- था, धीरे-धीरे एक तपोवनी आश्रम में बदलता गया। हिन्दी के अनेक कवि और साहित्यकार – इलाचन्द्र जोशी, सुमित्रानन्दन पन्त, धर्मवीर भारती समय-समय पर वहाँ आकर रुकते थे। कहते हैं, स्वयं महादेवीजी ने अपने कविता-संग्रह ‘दीपशिखा’ की रचना इसी भवन में रहकर की थी।
महादेवीजी की मृत्यु के बाद :- जैसा अक्सर हमारे देश में स्मृति स्थलों के साथ होता है-यह भवन जर्जर, उपेक्षित अवस्था में पड़ा रहा। सौभाग्य से श्री बटरोही कुछ संवेदनशील कुमाऊँनी प्राध्यापकों और लेखकों ने नैनीताल के जिलाधिकारियों के सहयोग से इस भवन को ‘महादेवी साहित्य संग्रहालय’ में विकसित करने का बीड़ा उठाया। संग्रहालय के उद्घाटन केअवसर पर जो सन् 1996 में हुआ था मुझे श्री अशोक वाजपेयी के साथ पहली बार वहाँ जाने का संयोग मिला। रामगढ़ के जिन सेब-बगीचों को मैं सिर्फ बस की खिड़की से लालायित आँखों से देखता था, वहाँ पहली बार कभी महादेवीजी के निमित्त ठहरने का मौका मिलेगा, यह कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
एक सँकरी-सी चढ़ाई उस संग्रहालय तक जाती है, जहाँ कभी महादेवीजी धीरे-धीरे चलते हुए अपने घर जाती थीं। तब क्या वह अनुमान लगा सकती थीं कि वर्षों बाद उनके पाठकों प्रशंसकों की लम्बी कतार उनके पदचिह्नों पर चलते हुए एक ऐसी ऊँचाई पर पहुँचेगी, जहाँ वह तो कहीं पहाड़ों के पीछे लुप्त हो जाएँगी, किन्तु अपने पीछे आनेवालों के लिए अपने कतिपय स्मृति- अवशेष छोड़ जाएँगी। कुछ किताबें, जो अलमारी के भीतर एक-दूसरे से सटी, धूल में सनी दिखाई दे जाती हैं। चौके में चूल्हा, उन दिनों के कुछ पुराने बरतन, लकड़ी का पटरा – वही सादी स्वच्छ-सात्त्विक-सी घरेलू चीजें, जिनसे उनकी छोटी-सी गृहस्थी चलती थी। उनके अध्ययन कक्ष में एक आसन और डेस्क दिखाई दिए, जहाँ वह अधिकांश समय, एकान्त की घड़ियों में, लिखने, पढ़ने, सोचने में गुजारती थीं। वहीं शायद चित्र भी बनाती थीं। शायद यही कारण था कि भवन में उनके बनाए जो चित्र सुरक्षित हैं, वे अधिकांश लैंडस्केप हैं, सूर्यास्त की कोमल रोशनी, पहाड़ों पर झरता आलोक, पेड़ों के झुरमुट से खेलती हुई धूप, हवा, छाया ।
वही धूप है, वही पहाड़ी बादल, वही जंगल की वनैली, सरसराती हवा; सिर्फ वे आँखें नहीं हैं, जो कभी डेस्क से उठकर खिड़की के पार उन्हें टोका करती थीं।महादेवीजी के डेस्क और आसन को देखकर मुझे वाराणसी के घाट पर बसा एक अन्य आश्रम याद आ गया… बहुत वर्षों से उसे देखने की उत्कट साध थी, जहाँ आनन्दमयी माँ वर्ष के कुछ महीने रहा करती थीं। मेरी बड़ी बहन आनन्दमयी माँ की अर्पित आराधिका थीं और बचपन में उन्हीं के साथ उन्हें देखने-सुनने जाया करता था। आज मुझे कुछ और नहीं, उनके सुन्दर, सात्त्विक चेहरे पर खेलती मुस्कराहट याद रह गई है… बिलकुल वैसी ही जैसी मैंने पहली बार और आखिरी बार महादेवीजी के चेहरे पर देखी थी ।
यह भी क्या देवी संयोग था कि महादेवीजी के अध्ययन कक्ष में जाकर ही मुझे आनन्दमयी माँ का वाराणसीवाला साधना-कक्ष याद आता रहा; वह भी खिड़की के पास बैठा करती थीं, जिसके पार धूप में चमकता गंगा का असीम, निस्पन्द विस्तार दिखाई देता था। दोनों स्थानों के बीच एक दुर्लभ, अलौकिक साम्य था- हिमालय की पावन धवल अटलता और गंगा की सतत प्रवाहमयता… और तब महादेवीजी की चौकी के पास बैठा हुआ मैं सोचने लगा कि दोनों के बीच भौगोलिक दूरी के बावजूद कितना गहन सान्निध्य था ! महादेवी शब्द की पवित्रता में सृष्टि को साकार करती थीं, आनन्दमयी माँ सृष्टि की पवित्रता में ईश्वर से साक्षात् करती थीं। खिड़की से ये दृश्य भले ही अलग-अलग दिखाई देते हों, कवि और साधक में कोई अलगाव नहीं था; दोनों ही द्रष्टा थे।ॉ
यह भी एक विचित्र संयोग ही रहा होगा कि महादेवी ने अपने लिए जो निवास स्थान चुना था, उससे लगभग तीन किलोमीटर दूर सबसे ऊँची पहाड़ी पर कभी कवीन्द्र रवीन्द्र रहा करते थे। वह सन् 1903 में अपनी बीमार बेटी के स्वास्थ्य लाभ के लिए यहाँ आए थे। उन्होंने अपनी कुटी का नाम ‘गीतांजलि’ रखा था, जिसकी कुछ कविताएँ उन्होंने यहाँ लिखी थीं।
आज उनके घर के नाम पर सिर्फ पत्थरों के दूह दिखाई देते हैं। कितना अजीब है, जिस कृति के नाम पर रवीन्द्रनाथ को विश्व – ख्याति मिली, उसी के नाम का आवास-स्थल आज खंडहरों में दिखाई देता है।
महादेवी निर्मल वर्मा की नजर से (सर्जना पथ के सहयात्री कुछ अंश)