मध्य युग से लेकर आज तक कई मुस्लिम कवियों ने भी दिवाली के इस रंगारंग त्यौहार पर अपनी कलम चलाई है और अपनी बेहतरीन शायरी से इस त्यौहार की महिमा का बखान किया है। हिन्दुओं के त्यौहारों पर नजीर अकबराबादी ने जिस मस्ती से कलम चलाई है उसका कोई सानी नहीं है। प्रस्तुत है कुछ शायरों द्वारा दीपावली को लेकर लिखी गई कुछ यादगार शायरी।
नजीर अकबराबादी
हर एक मकां में जला फिर दीया दिवाली का
हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का
सभी के दिल में समां भा गया दिवाली का
किसी के दिल को मज़ा खुश लगा दिवाली का
अजब बहार का दिन है बना दिवाली का
मिठाइयों की दुकानें लगा के हलवाई
पुकारते हैं कि लाला दिवाली है आई
बताशे ले कोई, बर्फी किसी ने तुलवाई
खिलौनेवालों की उनसे ज़्यादा बन आई
गोया उन्हीं के वां राज आ गया दिवाली का।
हर एक मौकों में जला फिर दिया दीवाली का।
हर एक तरफ को उजाला हुआ दीवाली का ।
सभी के दिल में समां भा गया दीवाली का ।
किसी के दिल में मजा खुश लगा दीवाली का।
अजब बहार का है दिन बना दीवाली का ।
दिवाली के मौके पर खील बताशे और खिलौनों के महत्व को नजीर ने कुछ इस तरह बयाँ किया है।
जहाँ में यारों अजब तरह का है यह त्योहार ।
किसी ने नकद लिया और कोई करे है उधार ।
खिलौने खीलों बताशों का गर्म है बाजार ।
हर एक दुकां में चिरागों की होरही है बहार ।
सभी को फिक्र अब जा बजा दीवाली का ।
कोई कहे है इस हाथी का बोलो क्या लोगे ।
ये दो जो घोड़े हैं इनका भी क्या भला लोगे ।
यह कहता है कि मियाँ जाओ बैठो क्या लोगे ।
टके को ले लो कोई चौधड़ा दीवाली का ।
दिवाली के मौके पर जुआ खेलने की आदत पर अफ़सोस जताते हुए नज़ीर लिखते हैं
मकान लीप के ठिलिया जो कोरी रखवाई।
जला चिराग को कोड़ी यह जल्द झंकाई।
असल जुंआरी थे उनमें तो जान सी आई।
खुशी से कूद उछलकर पुकारे और भाई
शगुन पहले करो तुम जरा दीवाली का।
किसी ने घर की हवेली गिरो रखा हारी ।
जो कुछ था जिन्स मयस्सर बना बना हारी
किसी ने चीज किसी की चुरा छुपा हारी
किसी ने गठरी पड़ोसिन की अपनी ला हारी
यह हार जीत का चर्चा पड़ा दीवाली
सियाह रात में शम्मे जला तो सकते हैं
अल अहमद सुरूर
यह बामोदर’, यह चिरागां
यह कुमकुमों की कतार
सिपाहे-नूर सियाही से बरसरे पैकार।’
यह जर्द चेहरों पर सुर्खी फसुदा नज़रों में रंग
बुझे-बुझे-से दिलों को उजालती-सी उमंग।
यह इंबिसात का गाजा परी जमालों पर
सुनहरे ख्वाबों का साया हँसी ख़यालों पर।
यह लहर-लहर, यह रौनक,
यह हमहमा यह हयात
जगाए जैसे चमन को नसीमे-सुबह की बात।
गजब है लैलीए-शब का सिंगार आज की रात
निखर रही है उरुसे-बहार आज की रात।
हज़ारों साल के दुख-दर्द में नहाए हुए
हज़ारों आर्जुओं की चिता जलाए हुए।
खिज़ाँ नसीब बहारों के नाज उठाए हुए
शिकस्तों फतह के कितने फरेब खाए हुए।
इन आँधियों में बशर मुस्करा तो सकते हैं
सियाह रात में शम्मे जला तो सकते हैं।
रात आई है यों दिवाली की
उमर अंसारी
रात आई है यों दिवाली की
जाग उट्ठी हो ज़िंदगी जैसे।
जगमगाता हुआ हर एक आँगन
मुस्कराती हुई कली जैसे।
यह दुकानें यह कूच-ओ-बाज़ार
दुलहनों-सी बनी-सजीं जैसे।
मन-ही-मन में यह मन की हर आशा
अपने मंदिर में मूर्ति जैसे।
बरस-बरस पे जो दीपावली मनाते हैं
नाजिश प्रतापगढ़ी
बरस-बरस पे जो दीपावली मनाते हैं
कदम-कदम पर हज़ारों दीये जलाते हैं।
हमारे उजड़े दरोबाम जगमगाते हैं
हमारे देश के इंसान जाग जाते हैं।
बरस-बरस पे सफीराने नूर आते हैं
बरस-बरस पे हम अपना सुराग पाते हैं।
बरस-बरस पे दुआ माँगते हैं तमसो मा
बरस-बरस पे उभरती है साजे-जीस्त की लय।
बस एक रोज़ ही कहते हैं ज्योतिर्गमय
बस एक रात हर एक सिम्त नूर रहता है।
सहर हुई तो हर इक बात भूल जाते हैं
फिर इसके बाद अँधेरों में झूल जाते हैं।
दिवाली लिए आई उजालों की बहारें
महबूब राही
दिवाली लिए आई उजालों की बहारें
हर सिम्त है पुरनूर चिरागों की कतारें।
सच्चाई हुई झूठ से जब बरसरे पैकार
अब जुल्म की गर्दन पे पड़ी अदल की तलवार।
नेकी की हुई जीत बुराई की हुई हार
उस जीत का यह जश्न है उस फतह का त्योहार।
हर कूचा व बाज़ार चिराग़ों से निखारे
दिवाली लिए आई उजालों की बहारें।