परिचय
जन्म 1 सितम्बर, 1920 तदनुसार सं० 1977 वि० में उत्तर प्रदेश के सन्त कबीर नगर जिले हैंसर बाजार के पास मुंडेरा नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम पं० रामानन्द मिश्र था । बचपन से ही संस्कृत पैतृक प्रभाव ने इन्हें विद्वता की ओर प्रेरित किया इन्होंने संस्कृत की सर्वोच्च परीक्षा व्याकरणाचार्य उत्तीर्ण करने के बाद सोहगोरा संस्कृत महाविद्यालय में प्रधानाचार्य के पद पर अवकाश पर्यन्त तक कार्य करते रहे । सम्प्रति अपने पद से रिटायर होने के बाद हिन्दी व्याकरण, ज्योतिष साहित्य आदि के विधान के रूप में बहुत होकर साहित्य सूजन में लगे हुये हैं। मृदुल की घनाक्षरी, सवैधा,द्रुतविम्बित छन्दाँ के बड़े अच्छे जानकार है। इनके अधिकांश छंद कानपुर से प्रकाशित “रसराज” में छपते रहे हैं। अभी तक इन्का को कोई काव्य र्संग्रह ना तो प्रकाशित है और न पाण्डुनिधि के रूप में संग्रहीत हैं। कुछ छंद उनके प्रस्तुत है –
उल्लू अंधकार की ही श्रेष्ठता बखानता है.
मान को न जानता है खगराज के।
धोबी धन्य धन्य गदहे को कहता है सदा,
गुण को न जानता है वह गजराज के।
मृदुल कला को देखते हैं ना कलाविहीन,
देखेंगे कलक कला दीन द्विजराज के।
जानते रसिक जो हैं वीणावादिनी के भक्त,
रस की क्या जाने मूढ गूढ़ रसराज के।।
– – रसराज, नवम्बर, 1957, पृष्ठ 26
पुनः “किसान” समस्या पूर्ति का अन्य छंद दृष्टव्य है-
कंजकदली की कदली की कुंजकौरक की,
कल ना कहीं की केहरी के कटिमान की।
कुंजर कपोलन की कठोरता ठठोलबाजी,
काफीउपमा की कौकिला की कलतान की
मृदुल कपोत की सुकेतकी कलीकीकान्ति,
कामिना की कोमलता कमल समान की ।
काली की है केवल कलम जीभ ही परन्तु,
कल्पना नहींकी किसीकवि ने किसान की।
(– रसराज जनवरी फरवरी 1958)
तत्कालीन पूर्तिकारों ने यह छन्द बहुत पसन्द किया है। मृदुल जी के छन्दों में समस्या पूर्ति के प्रकरण अधिक हैं।
दो पूर्तिया पुन. प्रस्तुत हैं।
उभडो पयोधर ये रस बरसानो चहै
यामिनी अंधेरी बेला बीति रही याम की ।
ठहरे यहाँ जो नहीं गहरे गिरोगे कहीं,
सही मानो घटा देखो धन घनश्याम की।
रसभरी “मून” गंभीर कविता सी रम्ब,
वाणी रचना भी है दिखाती घटा घाम की ।
कान्त परदेश पान्ध सूनो गैह है नितान्त,
रातै तो बिताओ कर वा तें देश ग्राम की।
(– रसराज नवम्बर 1956)
पुनः
कर्म मन बानी को पवित्र कर मानी मूढ,
तेरी यह शान बन पानी रह जायेगी ।
क्षणक्षण बीतता जो फिरि फिरिआयेगा तू,
सौव ले मनुष्यता मन्यता बनानी रहजायेगी
“मृदुल बना ले दोनों लोक उपकारी बन,
भक्त राम नाम सत्य बानी रह जायेगी ।
कवलित करेगा कलेवर कराल काल
कहने को केवल कहानी रह जायेगी।।
(– रसराज मई 1957)
मृदुल जी खड़ी बोनी, धनाक्षरी और सवैया के उत्कृष्ट छन्दकार हैं। इनमे छन्दों पर संस्कृत साहित्य का विशेष प्रभाव है। कथ्य में कलात्मकता और भाषा में प्रवाह है। इनके शताधिक छंद इनके डायरियों मे पड़े हैं। इनके छन्द पर कलाधर जी का अच्छा प्रभाव पड़ा है। यह मौलिक जी के सन्निकट के कवि हैं। आज भी जो कुछ यह लिख रहे हैं सब उनकी डायरियों ने पड़ा है। यदि इनके छंदों का एक संग्रह प्रकाशित हो जाय तो इन्हें जनपद के आधुनिक छंदकारों में बहुसंसित स्थान मिलेगा। खड़ी बोली के साथ-माथ मुदुल जी भोजपुरी के भी समर्थक है। क्योंकि इनका जन्म और निवास भोजपुरी क्षेत्र में ही है। भविष्य में मुदुल जी के साहित्य का प्रकाशन होगा और साहित्य- सुधी समादर करेंगे।
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं. वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम-सामयिक विषयों, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। मोबाइल नंबर 9412300183)