शाही ठाठ-बाठ और असाधारण जीवन शैली के लिए कारपोरेट जगत में अपनी विशेष पहचान रखने वाले तथाकथित उद्योगपति विजय माल्या इन दिनों एक बार फिर सुिर्खयों में छाए हुए हैं। उद्योगपति होने के साथ-साथ राज्यसभा के सदस्य अर्थात् कानून निर्माता भी होने वाले माल्या पर देश के विभिन्न बैंकों का लगभग 9 हज़ार करोड़ रुपया बक़ाया है। और ख़बरों के अनुसार अपने ऊपर शिकंजा कसता देख माल्या गत् 2 मार्च को ही देश छोडक़र फ़रार हो चुके हैं। विजय माल्या की ऐशपरस्ती और उनके शाही ठाट-बाठ के सैकड़ों क़िस्से अक्सर समाचारों की सुर्ख़ियां बनते रहे हैं। उनका नाम केवल किंगफ़िशर एयरलाईंस अथवा शराब के कारोबार से ही जुड़ा नहीं रहा बल्कि वे आईपीएल जैसे मंहगे क्रिकेट आयोजन में भी रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर की क्रिकेट टीम का स्वामित्व कर चुके हैं। इतना ही नहीं बल्कि एक और अत्यंत मंहगे खेल फ़ार्मूला वन में भी फोर्स इंडिया टीम का सहस्वामित्व कर चुके हैं। मंत्रियों,सांसदों तथा फ़िल्म अभिनेत्रयों को शाही पार्टियां देना माल्या का शौक़ रहा है।
कहा तो यहां तक जाता है कि राज्यसभा सदस्य होने के नाते वे अपने कई साथी सांसदों को विशेष विमान में बिठाकर केवल उन्हें ऐश कराने के लिए दिल्ली से मुंबई की उड़ान भरा करते थे। फ़िल्म अभिनेत्रियों व सुंदर महिला मॉडलस के साथ समुद्र तट पर स्नान करना,बोटिंग करना तथा फोटो खिंचवाना भी माल्या साहब के शाही शौक़ का एक हिस्सा था। गोया 61 वर्षीय विजय माल्या ने क़र्ज़ के पैसों से अपना हर वह शौक पूरा कर लिया जो संभवत: कोई भी मेहनतकश शख़्स अपनी हक़-हलाल और मेहनत की कमाई से पूरा नहीं कर सकता।
ऐसे ही एक ठगाधिराज का नाम था रामालिंगा राजू। यह 1987 से लेकर 7 जनवरी 2009 तक सत्यम कंप्यूटर सर्विसेज़ नामक एक प्रतिष्ठित समझी जाने वाली कंपनी के मालिक थे। इन्होंने भी ठगी में अपनी पूरी कला-कौशल का परिचय देते हुए अपनी घाटे में चल रही कंपनी को मुनाफ़े में दिखाने का हुनर प्रदर्शित किया। और ग़लत काग़ज़ात के आधार पर न केवल बैंकों को गुमराह करते रहे बल्कि अपने शेयरधारकों को भी अंधेरे में रखते हुए इन्होंने उनके साथ बड़ा धोखा किया।
आखिरकार कानून का शिकंजा राजू पर कसा गया और इनका रेत पर बना क़िला आख़िरकार ढह गया। सहारा ग्रुप से लेकर छोटे स्तर पर गोल्डन फ़ारेस्ट तथा इस जैसे और कई न जाने कितनी ऐसी कंपनियां भारत में अपना जाल बिछा चुकी हैं जिन्होंने केवल अपनी शातिर बुद्धि के बदौलत न केवल जनता को ठगा बल्कि उसी जनता की पूंजी के आधार पर देश के विभिन्न बैंकों को भी बड़े पैमाने पर चूना लगाया। और जैसाकि हमारे देश के कानून का तक़ाज़ा है इस प्रकार की आर्थिक ठगी करने वाला अपराधी उतना बड़ा अपराधी नहीं समझा जाता जितनी कि दूसरी हिंसक घटनाओं में लिप्त अपराधी को समझा जाता है। इस प्रकार के कारपोरेट,उद्योगपतियों अथवा काग़ज़ी हेराफेरी में महारत रखने वाले शातिर लोगों के साथ एक और सुखद स्थिति यह भी रहती है कि यह लोग या तो अपने उन्हीं ठगी के पैसों से मुक़द्दमेबाज़ी कर स्वयं को बचा ले जाते हैं या फिर विजय माल्या की तरह विदेशों में अपने ठिकाने बनाकर मौका पाते ही वहां मुंह छुपाकर जा बसते हैं।
अब इसी तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी मुलाहिज़ा फ़रमाईए। हमारे देश को कृषक प्रधान देश कहा जाता है। हमारे देश की अर्थव्यवस्था में किसानों का बहुत बड़ा योगदान है। कृषक समाज को हम अन्नदाता भी कहते हैं। हमारे देश का मुख्य वाक्य भी जय जवान-जय किसान है। गोया यदि सीमा पर निगरानी करने वाला जवान अपनी कठिन तपस्या व त्याग की वजह से हमें चैन की नींद सोने का अवसर देता है तो भारतीय किसान अपने खुून-पसीने से हमारे लिए दो वक्त की रोटी मुहैया कराता है। परंतु आज हमारे देश में किसानों के लिए कैसे कानून हैं और किस प्रकार उन्हें लागू किया जाता है यह बातें भी किसी से छुपी नहीं हैं। हमारा देश दुनिया का एक ऐसा देश है जहां किसानों द्वारा सबसे अधिक आत्महत्याएं की जाती हैं।
महाराष्ट्र,मध्यप्रदेश और उड़ीसा जैसे राज्यों से तो किसानों द्वारा आत्महत्याएं किए जाने की खबरें आती ही हैं। हद तो यह है कि पंजाब व हरियाणा जैसे ख़ुशहाल तथा देश में सबसे अधिक कृषि उत्पादन करने वाले राज्यों से भी किसानों द्वारा आत्महत्याएं किए जाने की ख़बरें प्राप्त होती रहती हैं। ख़बरों के मुताबिक 2014-15 के मध्य पूरे देश में लगभग बीस हज़ार किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने के समाचार प्राप्त हुए हैं। जबकि गत् मात्र दो माह के दौरान 139 किसानों द्वारा आत्महत्या की गई। किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने के आमतौर पर दो ही कारण होते हैं एक तो यह कि वह खेती-बाड़ी के लिए बैंकों से लिया गया क़र्ज़ वापस चुकता नहीं कर पाता या फिर उसकी फ़सल चौपट हो जाने की वजह से उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है और वह अपने बच्चों की शादी-विवाह जैसी जि़म्मेदारियों को समय पर पूरा न कर पाने के चलते शर्मिंदा होकर अपनी जान गंवा बैठता है। उधर बैंक की क़र्ज़ वापसी न होने पर उस पर कानून का शिकंजा कुछ ऐसे कसता जाता है गोया उसे यह महसूस होने लगता है कि अब उसके पास जेल जाने या अपनी ज़मीन गंवाने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं है लिहाज़ा केवल स्वाभिमान और खुद्दारी के चलते ऐसा किसान जेल जाने के भय से धनाढ्य कजऱ्दारों की तरह घर से भाग जाने के बजाए फांसी के फंदे पर लटक जाना ज़्यादा बेहतर समझता है।
उधर हमारे सत्ताधारी शासकगण जो अपने वोट की ख़ातिर समाज को धर्म और जाति के नाम पर विभाजित करने में व्यस्त रहते हैं उन्हें इन किसानों के प्रति हमदर्दी तो नहीं दिखाई देती बल्कि वे इसपर कटाक्ष करने से बाज़ नहीं आते। ज़रा कल्पना कीजिए कि क्या कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से अथवा मात्र छोटी-मोटी बातों से तंग आकर कभी अपनी जान भी दे सकता है? परंतु पिछले दिनों महाराष्ट्र में जहां कि इसी वर्ष जनवरी से लेकर अब तक 124 किसानों द्वारा आत्महत्याएं की जा चुकी हैं इसी राज्य के भारतीय जनता पार्टी के विधायक गोपाल शेट्टी ने जोकि उत्तरी मुंबई विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं,बड़ी ही बेशर्मी के साथ यह फ़रमाया कि-‘किसानों द्वारा आत्महत्या किया जाना एक फ़ैशन बन गया है’।
उस सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी के विधायक द्वारा इतना ग़ैर जि़म्मेदाराना तथा किसानों को अपमानित करने वाला बयान दिया जाना जिसने कि पिछले लोकसभा चुनाव में देश की जनता को अच्छे दिन आने वाले हैं जैसा लोकलुभावना नारा दिया था इस प्रकार का बयान देना किस क़द्र शर्मनाक है? यहां सवाल यह भी उठता है कि वास्तव में हमारे देश के क़ानून की कमियों व कमज़ोरियों के चलते किसानों की आत्महत्या फैशन बन गई है या ठगी व आर्थिक घोटालेबाज़ी में महारत रखने वाले शातिर बुद्धि के लोगों द्वारा सरकार,बैंक व जनता को चूना लगाए जाने की प्रवृति एक फ़ैशन का रूप ले चुकी है? दरअसल फ़ैशन तो यह भी बन चुका है कि इन्हीं ठग व लुटेरे तथाकथित उद्योगपतियों द्वारा राजनेताओं ख़ासतौर पर सत्ताधारी शासकों को धन-धान्य,एय्याशी चंदा, यहां तक कि चुनावी फ़ंड मुहैया कराकर इन्हें अपने नियंत्रण में रखा जाता है जबकि देश के गरीबों,मज़दूरों और किसानों से किए गए लोक-लुभावने वादों को समय आने पर ‘जुमला’ बताकर इन्हें भुलाने के लिए बाघ्य किया जाता है। गोया न तो अच्छे दिनों का इंतज़ार कीजिए न ही अपने बैंक खातों में पंद्रह लाख रुपये आने की प्रतीक्षा कीजिए ओर न ही काला धन वापसी की आस लगाकर बैठिए। यह सब तो महज़ वादे थे और वादों का क्या?
परंतु ऐसा नहीं लगता कि ऐसी स्थिति यानी पूंजीवादी व्यवस्था तथा उद्योगपतियों,पूंजीपतियों तथा इनके समर्थक शासकों का यह शासित नेटवर्क और लंबे समय तक चल सकेगा। देश के क़ानून निर्माताओं तथा नीति निर्धारकों को इस बेशर्म व्यवस्था के विषय पर गंभीर चिंतन करना चाहिए। आख़िर हमारे देश के किसानों,गरीबों,बेरोज़गारों तथा निम्र मध्यम वर्गीय लोगों के साथ यह कितना बड़ा अन्याय होता है कि यदि वह अपने क़र्ज़ अदा न कर सके तो न तो हमारा कानून न ही हमारा समाज उसे पुनर्स्थापित करने के लिए कोई रास्ता हमवार करता है। नतीजतन उस स्वाभिमानी ग़रीब व्यक्ति के पास अपनी जान देना ही एकमात्र रास्ता रह जाता है? और स्वयं को उद्योगपति,पूंजीपति अथवा शासक वर्ग का करीबी बताने वाला कोई भी व्यक्ति जब और जहां चाहे और जितना चाहे बैंक ऋण भी हासिल कर लेता है,उसके ऋण माफ़ भी कर दिए जाते हैं, उसके विरुद्ध अदालती कार्रवाई भी उतनी तत्परता से नहीं होती जितनी कि एक ग़रीब,मज़दूर व किसान के विरुद्ध होती है। क्या यह बातें यह सोचने के लिए मजबूर नहीं करती कि आख़िर हमारे देश की यह कैसी क़ानून व्यस्था है जहां कि-लूटेर बने महान और फांसी चढ़े किसान ?