दूसरों की नि:स्वार्थ सेवा करना क्या होता है, ये अगर जानना है तो सेवा भारती से जुड़े उन चिकित्सकों से सीखा जा सकता है, जिन्होंने सुख-सुविधा छोड़ वनवासी क्षेत्रों में जरूरतमंदों की मदद में सालों गुजार दीं। वो भी बिना किसी चाहत के।
कड़ी धूप में पैदल चलना, खुले आसमान के नीचे रात गुजारना, कभी खाली पेट सोना तो कभी दो घूंट पानी के लिए भटकना। इतना ही नहीं, स्वयंसेवक उग्रवादियों की धमकी के बाद भी निरंतर सेवा कार्य में जुटे हैं।
कमला नगर स्थित सरस्वती शिशु मंदिर में सेवा भारती के आरोग्य रक्षक/मित्र की दो दिवसीय कार्यशाला में ऐसे ही तमाम चिकित्सक भाग लेने आए। इनमें से एक हैं लातूर, महाराष्ट्र निवासी लगभग 70 वर्षीय डा. अशोक कुकड़े।
वह और उनकी पत्नी ज्योत्सना दोनों एमएस करने के बाद से दुर्गम क्षेत्रों के लोगों को चिकित्सा उपलब्ध कराने में जुट गए। उन्होंने मराठवाड़ा का वह क्षेत्र चुना, जहां सामान्य तौर पर चिकित्सा सुविधा पहुंचने में घंटों लग जाते हैं।
कुछ स्थान ऐसे हैं, जहां से एक गोली लेने के लिए भी मीलों का सफर तय करना पड़ता है। वे बताते हैं कि ये सेवा कार्य करते हुए उन्हें 30 साल से अधिक हो गए। कई चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा। पिछड़े क्षेत्रों के कुछ गांव वालों ने तो उन्हें सहयोग ही नहीं किया। अंधविश्वास में जकड़े ग्रामीण उनसे दूर ही रहते थे। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी।
कोलकाता निवासी होम्योपैथी चिकित्सक डा. वरुण कुमार बनर्जी का तो लगभग पूरा जीवन ही पूर्वोत्तर भारत में सेवा कार्य करते हुए गया। वे वर्ष 1988 से पिछड़े क्षेत्रों में घूम-घूमकर चिकित्सकीय सेवाएं दे रहे हैं।
वे बताते हैं कि वर्ष 1997 में असम में उग्रपंथियों ने उनके कार्यों का विरोध किया। उनके छह साथी भी मौत के घाट उतार दिए। इसके बावजूद न उन्होंने और न ही अन्य स्वयंसेवकों ने हार मानी। जंगलों में रात गुजारकर वे अभी भी इन क्षेत्रों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
पश्चिम बंगाल के ही डा. आशीष बनर्जी भी इनमें से एक हैं। वे बताते हैं कि उड़ीसा के पिछड़े क्षेत्रों में मलेरिया का काफी प्रकोप है। उन्होंने अपनी सेवाओं का केंद्र वहीं रखा है। उन्होंने लगभग 30 हजार लोगों को मच्छरदानी भी उपलब्ध कराई है।
साभार- अमर उजाला से