भारत में पिछले दो-तीन दशकों में शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में आए परिवर्तनों के चलते जहाँ एक ओर भारत में अंग्रेजीयत के मुकाबले भारतीयता व भारतीय भाषाओं को दोयम दर्जे का मानने की प्रवृत्ति बढ़ी है वहीं वे दूसरी ओर ऐसे भारतीय भी हैं जो वैश्विक स्तर पर भारतीय भाषाओँ और संस्क़ति को स्थापित व प्रतिष्ठित करने में दिन- रात एक किए हुए हैं। विश्वस्तर पर भारत की पहचान हिंदी से है। चूंकि उन देशों में कामकाज व शिक्षा की भाषा के लिए अपनी भाषाएँ हैं वहाँ हिंदी भाषा की साहित्य-संस्कृति के माध्यम से और भारतवंशियों को साथ लेकर अपनी जड़ें मजबूत कर रही है। विश्वस्तर पर हिंदी के विश्वदूत बनकर हिंदी भाषा व साहित्य को प्रतिष्ठित करनेवालों में एक प्रमुख नाम है – प्रो. डॉ. पुष्पिता अवस्थी ।
पुष्पिता अवस्थी के व्यक्तित्व व कृतित्व को किसी एक सीमा में रख पाना कठिन है। वे यायावर, कवि, लेखक, संपादक, प्रोफेसर और एक कुशल संगठनकर्ता एवं राजनयिक के रूप में कठिन संघर्ष करते हुए विश्वस्तर पर विशिष्ट प्रतिष्ठा व पहचान प्राप्त कर चुकी हैं। प्रो.पुष्पिता अवस्थी विगत 14 वर्षो से विदेश में हिंदी साहित्य, भाषा, संस्कृति के प्रचार – प्रसार में संलग्न हैं तथा कविता, कहानी, निबंध, आलोचना, मोनोग्राफ, व हिंदी शिक्षण, जीवनी इत्यादि की हिंदी, डच, अंग्रेजी व बांग्ला भाषाओं की 30 पुस्तकें अब तक प्रकाशित हैं। विदेश में उनके प्रकाशित साहित्य एवं कृतित्व से हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए किए गए बहुविध कार्य उन्हें ‘हिंदी की विश्वदूत’ के रूप में एक विशिष्ट पहचान प्रदान करते हैं।
भारत के कानपुर में जन्मी पुष्पिता की पढ़ाई राजघाट, वाराणसी के प्रतिष्ठित जे कृष्णमूर्ति फाउन्डेशन (बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से संबद्ध) में हुई । बाद में, वर्ष 1984 से 2001 के बीच वह जे कृष्णमूर्ति फाउन्डेशन के बसंत महिला महाविद्यालय की वर्षों हिंदी विभागाध्यक्ष रहीं। वर्ष 2001 से ही वे दक्षिण अमेरिका के उत्तर पूर्व में स्थित सुरीनाम देश के भारतीय दूतावास एवं भारतीय सांस्कृतिक केंद्र, पारामारिबो, सूरीनाम में प्रथम सचिव एवं हिंदी प्रोफेसर के रूप में वर्ष 2001 से 2005 तक वह कार्यरत रहीं । उन्हीं के संयोजन में वर्ष 2003 में सूरीनाम में सातवाँ विश्व हिंदी सम्मलेन संपन्न हुआ । वर्ष 2006 से वे नीदरलैंड स्थित 'हिंदी यूनिवर्स फाउन्डेशन' की निदेशक हैं। वर्ष 2010 में गठित अंतर्राष्ट्रीय भारतवंशी सांस्कृतिक परिषद की वे महासचिव भी हैं । सामाजिक सरोकारों से गहराई से जुड़ी पुष्पिता 'बचपन बचाओ आंदोलन' और स्त्री अधिकारों के लिए विश्वस्तर पर संघर्षरत समूहों से भी सक्रियता से संबद्ध हैं ।
विश्वबंधुत्व में पगी प्रो. पुष्पिता की रचना की निजता या निजता में की जानेवाली रचना और रचना की सार्वजनिता सब के हित में है। वे अपनी रचना शक्तियों के प्रयुक्तिकरण का विलक्षण द्वंद रचते हुए स्वयं के लिए एक असाधारण परिचय संदर्भ बन जाती हैं। अपने सूरीनाम प्रवास के दौरान पुष्पिता ने अथक प्रयास करके हिंदीप्रेमी समुदाय को संगठित किया जिसकी परिणति उनके द्वारा अनुदित और संपादित समकालीन सूरीनामी लेखन के दो संग्रहों 'कविता सूरीनाम' ( राधाकृष्ण प्रकाशन, 2003) और 'कहानी सूरीनाम' (राधाकृष्ण प्रकाशन, 2003) में पुस्तकों में हुई । 'सूरीनाम' शीर्षक से उन्होंने मोनोग्राफ़ भी लिखा, जिसे राधाकृष्ण प्रकाशन ने वर्ष 2003 में प्रकाशित किया । इन सबका लोकार्पपण सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन में हुआ। पुष्पिता के कविता संग्रहों 'शब्द बनकर रहती हैं ऋतुएँ' (कथारूप, 1997), 'अक्षत' (राधाकृष्ण प्रकाशन, 2002), 'ईश्वराशीष' (राधाकृष्ण प्रकाशन, 2005), 'ह्रदय की हथेली' (राधाकृष्ण प्रकाशन, 2008), तुम हो मुझ में (राधाकृष्ण प्रकाशन, 2014), 'शब्दों में रहती है वह' ( किताब घर-2014) और कहानी संग्रह 'गोखरू' (राजकमल प्रकाशन, 2002) और ‘जन्म’ ( मेघा बुक्स -2009) को साहित्य संसार में व्यापक सराहना मिली है ।
आलोचना के क्षेत्र में वर्ष 2005 में राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित उनकी पुस्तक 'आधुनिक हिंदी काव्यालोचना के सौ वर्ष' विशेष रूप से चर्चित रही जिसके कई संस्करण प्रकाशित हुए। हिंदी और संस्कृत विद्वान पंडित विद्यानिवास मिश्र से उनके संवाद 'सांस्कृतिक आलोक से संवाद' (भारतीय ज्ञानपीठ, 2006) को समकालीन हिंदी और हिंदी समाज की विकासयात्रा को दर्ज करने के अनूठे प्रयास के रूप में देखा/पहचाना गया है । वर्ष 2009 में मेधा बुक्स से 'अंतर्ध्वनि' और अंग्रेजी अनुवाद सहित रेमाधव प्रकाशन से 'देववृक्ष' काव्य संग्रहों का प्रकाशन हुआ। साहित्य अकादमी, दिल्ली से वर्ष 2010 में 'सूरीनाम का सृजनात्मक हिंदी साहित्य' पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसका लोकार्पण जोहान्सवर्ग में वर्ष 2011 में आयोजित हुए नवें विश्व हिंदी सम्मलेन में हुआ ।
वर्ष 2010 में ही नेशनल बुक ट्रस्ट से उनकी 'सूरीनाम' शीर्षक पुस्तक प्रकाशित हुई । एम्सटर्डम स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ने डिक प्लक्कर और लोडविक ब्रंट द्धारा डच में किये उनकी कविताओं के अनुवाद का एक संग्रह वर्ष 2008 में प्रकाशित किया । नीदरलैंड के अमृत प्रकाशन से डच, अंग्रेजी और हिंदी में वर्ष 2010 में 'शैल प्रतिमाओं से' शीर्षक काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ ।
हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, बांग्ला, फ्रेंच और डच भाषाओँ की जानकार पुष्पिता को अपनी कविताओं के पाठ के लिए जापान, मॉरिशस, अमेरिका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, न्युजीलैंड सहित कई यूरोपियन और कैरिबियई देशों में आमंत्रित किया जा चुका है । विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में उन्होंने वैश्विक मानवीय संस्कृति तथा भारतवंशी संस्कृति पर विशेष व्याख्यान दिए हैं । मॉरीशस स्थित हिंदी लेखक संघ सहित विदेशों की कई संस्थाओं का उन्हें मानद सदस्य बनाया गया है ।
लगातार दस वर्षों से वे भारतवंशीबहुल देशों में से सुरीनाम, गयाना, ट्रिनिडाड, फिजी, दक्षिण अफ्रीका और कैरिबियाई देश-द्वीपों को अपना कार्य और सृजनात्मक चिंतन का क्षेत्र बनाए ह्ए हैं। प्रो. पुष्पिता कहती हैं, ‘ भारतवंशियों की नई पीढ़ी ने मॉरिशस, गयाना, ट्रिनिडाड और कुछ हद तक सुरीनाम जैसे देशों में न सिर्फ सत्ता, व्यवसाय और राजनीति में ही अपना वर्चस्व बनाया है बल्कि अन्य देशों की भाषा-संस्कृति की रगड़ मार से संघर्ष करते हुए वैश्विक स्तर पर अपनी अलग भारतीय भाषाई और सांस्कृतिक पहचान बनाई है।‘ प्रो. पुष्पिता अवस्थी के भारतवंशी सांस्कृतिक दृष्टिपूर्ण सृजनात्मक कृतित्व को ध्यान में रखते हुए हिंदुस्तानी बहुल देश मॉरिशस के सांस्कृतिक मंत्रालय ने अपने अंतर्राष्ट्रीय अप्रवासी सम्मेलन में उन्हें मुख्य अतिथि और विशेषज्ञ के रूप में आमंत्रित किया और अंतर्राष्ट्रीय भारतवंशी सांस्कृतिक परिषद का महासचिव भी घोषित किया।
फिल्म, मीडिया और टेलीविजन से निरंतर जुड़ी रहनेवाली पुष्पिता ने अनेक महत्वपुर्ण वृत्तचित्र बनाए हैं। सूरीनाम की संस्कृति और प्रकृति पर उनके द्वारा बनाई गई दो घंटे की डॉक्यूमेंटरी फिल्म वर्ष 2003 में आयोजित हुए विश्व हिंदी सम्मलेन में और इसके उपरांत कई भारतवंशी बहुल देशों में भी प्रदर्शित की गई । इसके पूर्व महान हिंदी साहित्यकार व उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल, प्रोफेसर विद्यानिवास मिश्र और प्रोफेसर शिवप्रसाद सिंह के कृतित्व-व्यक्तित्व पर उनके द्वारा बनाई गईं डॉक्यूमेंटरी फिल्मों का लखनऊ दूरदर्शन से प्रदर्शन हुआ है। पुष्पिता अवस्थी विश्व की अनेक आदिवासी प्रजातियों तथा भारतवंशियों के अस्तित्व और अस्मिता पर विशेष अध्ययन और शोधकार्य से भी संबद्ध हैं ।
हिंदी-भाषा-प्रसार के क्षेत्र में भी प्रो. पुष्पिता ने महत्वपूर्ण कार्य किया है । उन्होंने विदेश में हिंदी पढ़ रहे विद्यार्थियों के लिए अन्य भाषाविद् विद्वानों के साथ देवनागरी से शुरुआत करते हुए छह भाषाओं में विशेष पुस्तकें तैयार की हैं जिनका भारतवंशी बहुल देशों में उपयोग हो रहा है।
बहुमुखी – बहुआयामी प्रतिभा की धनी व विश्व में भारतीयता का बिगुल बजा रही प्रो.पुष्पिता अवस्थी के व्यक्तित्व-कृतित्व तथा चिंतन को इस एक लेख की परिधि में समेट पाना संभव नहीं है। हिंदी के विश्वदूत के रूप में हिंदी भाषा–साहित्य के प्रसार में उनका योगदान निश्चय ही विश्व स्तर पर उन्हें अग्रिम पंक्ति में खड़ा करता है। वैश्विक हिंदी सम्मेलन ‘हिंदी की विश्वदूत’ प्रो.पुष्पिता अवस्थी को उनके प्रेरणास्पद अप्रतिम योगदान की सराहना करता है।
अगर यहाँ प्रो.पुष्पिता अवस्थी की जिंदगी के एक और पहलू का यदि उल्लेख न किया जाए तो उनका यह परिचय अधूरा होगा। प्रो.पुष्पिता अवस्थी की जैसी दीवानगी साहित्य के प्रति है कुछ वैसी ही दीवानगी फुटबॉल के प्रति भी है। प्रो.पुष्पिता अवस्थी नीदरलैंड के आयक्स फुटबॉल क्लब (18 मार्च 1900 से स्थापित) के बिजनेस क्लब की वरिष्ठ सदस्य हैं और इतनी व्यस्तताओं के बावजूद पिछले दस वर्षों से राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साप्ताहिक फुटबॉल मैच नियमित रूप से देखती आ रही हैं। फुटबॉल के प्रति दीवानगी तथा फुटबॉल और हिंदी साहित्य के बीच क्या तालमेल है ? मैंने फुटबॉल के कई कोच और खिलाड़ियों पर कविताएँ और आलेख हिंदी में लिखे हैं जिनका अनुवाद कई भाषाओँ में हुआ है। पिछले अनेक वर्षों से इस खेल के कोच और खिलाड़ियों की तरह ही रमी हुई हूँ। कई देशों में जाकर विश्व फुटबॉल मैच देखे हैं। मुझे यह खेल इसलिए पसंद है क्योंकि इस खेल में दोनों टीम का हर खिलाड़ी अंतिम क्षण तक हार नहीं मानता है और आखिरी सांस तक गोल करने के लिए प्राण-प्रण से लगा रहता है। गिरता है, पड़ता है, धक्के खाता है, चोटिल होता है फिर भी रुकता नहीं है, उसकी आँखें फुटबॉल और गोल पर ही लगी रहती हैं।“
थोड़ा रुक कर वे आगे कहती हैं, “फुटबॉल में हर खिलाड़ी का एक ही लक्ष्य होता है- गोल, गोल और सिर्फ गोल। फुटबॉल के खेल का यह दृष्टिकोण यह मिशन मेरे जीवन में भी उत्साह बनाए रखता है। लगे रहो- बस लगे रहो- जीवन की अंतिम सांस तक फुटबॉल के खिलाड़ियों की तरह अपनी भाषा और संस्कृति के पक्ष में, क्योंकि भाषा और संस्कृति के अटूट संबंधों से ही अक्षय और अभिन्न पहचान बनती है, फिर चाहे वह व्यक्ति हो या देश, फिर चाहे वह देश में रहें या विदेश में।”
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वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई