कौन हैं जो मोदी को विफल करना चाहते हैं?

क्या सच में नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार का जादू टूट रहा है? अगर टूट रहा है तो वो कौन है जिसका जादू सिर चढ़कर बोल रहा है? वे कौन लोग हैं जो पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई देश की पहली राष्ट्रवादी सरकार को मार्ग से भटकाना चाहते हैं? जाहिर तौर पर सवाल कई हैं पर उनके उत्तर नदारद हैं। क्या यथास्थितिवादी ताकतें इतनी प्रबल हैं कि वे जनमत का भी आदर नहीं करेंगी और केंद्र की सरकार को उन्हीं कठघरों में कैद करने में सफल हो जाएंगी, जैसी वो पिछले तमाम दशकों से कैद है? क्या भारतीय जनता के प्रबल आत्मविश्वास और भरोसे से उपजा नरेंद्र मोदी और भाजपा का प्रयोग भी एक सत्ता परिर्वतन की घटना भर बनकर रह जाएगा? भाजपा को प्यार करने वाले और नरेंद्र मोदी को एक परिवर्तनकामी नेता मानकर उन पर भरोसा जताने वाले लोग यही सोच रहे हैं। यहां सवाल यह भी उठता है कि अगर नरेंद्र मोदी विफल हो जाते हैं तो उससे किसका भला होगा?  
 
 
 एक राष्ट्रवादी दल और भारतीय जमीन से उपजे विचारों से शक्ति लेने के कारण भाजपा ने आम भारतीय जनमानस की उम्मीदों को बहुत बढ़ा दिया है। निश्चय ही जब एक राष्ट्रवादी दल सत्ता में आता है तो समाज को परिवर्तित करने की दिशा में उसके द्वारा प्रभावी कदमों की उम्मीद की ही जाती है। ऐसे समय में जब बहुत सावधानी से दोस्त और दुश्मन चुनने का समय होता है, सत्ता-संगठन के गलियारों में निरंतर उपस्थित रहने वाली और उनका उपभोग करने वाली यथास्थितिवादी ताकतें या दलाल चोला बदलकर तंत्र में पुनः शामिल होने का जतन करते हैं। भारतीय राजनीति और चुनावी तंत्र ऐसा बन गया है कि इन ताकतों को चुनाव पूर्व ही सत्ता संघर्ष में शामिल ताकतों के साथ रिश्ता बनाते देखा जा सकता है। ये सही मायने में पूरे तंत्र को बिगाड़ने, भ्रष्ट बनाने और कई बार भ्रम पैदा करने की कोशिशें करते हैं। उन्हें उनके संकल्प और पथ से विचलित करना चाहते हैं। क्या दिल्ली में ऐसी संगठित कोशिशें प्रारंभ नहीं हो गयी हैं? ऐसे कठिन समय में सत्ता में विराजी परिवर्तनकामी ताकतों को सर्तकता से इन सत्ता के दलालों को हाशिए लगाना होगा। इनकी शक्ति और इनकी प्रभावी उपस्थिति के बावजूद यह काम करना होगा, वरना इस सरकार की विफलता की पटकथा ये सब मिलकर लिख देगें।  
 
 
सत्ता में आते ही सत्य दूर रह जाता है। नई चमकीली चीजें आकर्षण का केंद्र बन जाती हैं। अपने कार्य के स्वरूप, अपने कामों की मीमांशा तब संभव नहीं रह जाती। साथ ही तब जब आप लोगों की सुनने को तैयार न हों और असहमति के लिए जगह भी सिकुडती जा रही हो, तो यह खतरा और बड़ा हो जाता है। ऐसे में सत्ता के दलालों की विरूदावली और भाटों का गायन हर शासक को प्रिय लगने लगता है। मोदी सरकार इन संकटों से दो-चार हो रही है।   
 
किसी भी तरह के परिर्वतन के लिए निष्ठा और ईमानदारी ही पूंजी होती है। सौभाग्य से देश के प्रधानमंत्री के पास ये दोनों गुण मौजूद हैं। इसलिए उन्हें संकल्प लेकर ऐसे बदलाव तेजी से करने चाहिए, जिनमें बदलाव जरूरी हैं। जो परिर्वतन अपरिहार्य हैं वो होने ही चाहिए क्योंकि इतिहास बार-बार मौके नहीं देता। जो स्थापित वर्ग हैं और जिनके हाथ में पहले से ही साधन और शक्ति है- सुविधाएं हैं, उनके बजाए सरकार की नजर उन लोगों की ओर जानी चाहिए जो सालों-साल से छले जा रहे हैं। जिनकी देश की इस चमकीली और बाजारू प्रगति में कोई हिस्सेदारी नहीं हैं। उन अनाम लोगों की आस्थाएं लोकतंत्र में बनी और बची रहें, इसके लिए सरकार को यत्न तेज करने होंगें।  
 
 
अपने वादों के प्रति ईमानदारी सिर्फ वाणी में ही नहीं, कर्म में भी दिखनी चाहिए। चतुराई के आधार पर मंचों या संसद में की जा रही व्याख्याओं और उनके पीछे छिपे मंतव्यों को लोग समझते हैं। इसलिए देहभाषा में सादगी और ईमानदारी दिखनी चाहिए न कि सिर्फ चपलता और चतुराई। चतुराई के आधार पर की जा रही व्याख्याओं का समय अब जा चुका है। यह बहुत अच्छी बात है कि हमारे प्रधानमंत्री राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और सरदार पटेल को अपना आदर्श मानते हैं। उन्हें आदर्श मानते ही मोदी जी के सामने एक ही विकल्प है कि वे गांधी की ईमानदारी और पटेल की दृढ़ता को अपने राजकाज के संचालन में प्रकट करने का कोई अवसर न गवाएं।  
 
 
यह मान लेने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि जो लोग प्रभुता संपन्न हैं सिर्फ उन्हें बढ़ाकर किसी देश की प्रगति संभव नहीं हैं। वह प्रगति आपकी जीडीपी तो बढ़ा सकती है पर देश में छिपे अंधेरे कायम रहेंगें। यह भी कटु सत्य है कि कोई भी व्यवसायी, व्यवसाय से समझौता नहीं कर सकता, उसके लिए उसके आर्थिक हित ही प्रधान हैं।
 
 
भारत भूमि पर व्यापार की सहूलियतें न मिलीं तो वे विदेश चले जाएंगें, सब कुछ नष्ट हो गया तो मंगल पर बस्तियां बसा लेगें, किंतु भूमि पुत्रों को तो यहीं रहना है। नरेंद्र मोदी की सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस दोनों वर्गों के हितों का टकराव रोकने और सबसे जरूरतमंद पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की है। भाजपा और उसके विचार परिवार के लिए सोचने और अपने गिरेबान में झांकने का समय है। गांधी अंतकरणः के आधार पर बोलते थे, इसलिए उन पर भरोसा करने का मन होता था।
 
 
आज चतुराई, भाषण कौशल से जंग जीतने की कोशिशें हो रही हैं, जबकि दिल्ली चुनाव में यह सारे चुनावी हथियार धरे रह गए। ये इस बात की गवाही है कि अंततः आपको लोगों के दिलों में उतरना होता है और उनमें अपनी कही जा रही बातों के प्रति भरोसा जगाना होता है। भरोसा न टूटे इसके लिए निरंतर यत्न करना होता है। जब 6 माह में ही दिल्ली प्रदेश का चुनाव भाजपा हार गयी, सवाल तभी से उठने शुरू हुए हैं। विरोधी एकजुट हो रहे हैं। ऐसे समय में भाजपा को यह बताना होगा कि आखिर अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में जो करिश्मा किया उससे उसने आखिर क्या सीखा है? भाजपा और उसके नेतृत्व को यह समझना होगा कि चाटुकारिता से कोई नेतृत्व स्वीकार्य नहीं बनता। संजय जोशी को बधाई देने वालों को लेकर जैसी खबरें मीडिया में आईं आखिर वह क्या साबित करती हैं?
 
 
पार्टी के दिग्गज नेताओं की उपेक्षा से लेकर तमाम ऐसे सवाल हैं जो सामने खड़े हैं। क्या दल अब सामाजिक संबंधों और मानवीय व्यवहारों को भी नियंत्रित करेगा, यह एक बड़ा सवाल है। एक जमाने में इंदिरा गांधी जी और उनकी कांग्रेस के बारे में मजाक चलता था कि “इंदिरा जी अगर किसी खंभे को खड़ा करें तो उसे भी वोट मिल जाएंगें।” किंतु इंदिरा जी अपने समस्त खंभों के साथ चुनाव हार गयीं। आज राजनीति और देश दोनों बहुत आगे बढ़ चुके हैं।
 
 
1977 में सत्ता में आई जनता पार्टी की सरकार के बारे में लोगों की राय बुरी नहीं थी और बताने वाले बताते हैं कि यूं लगा कि जैसे कांग्रेस कभी वापस नहीं आएगी। किंतु अनुशासनहीनता तथा नेताओं के आचरण के चलते जनता पार्टी इतिहास बन गयी और लोग उन्हीं इंदिरा जी को ले आए जिन्हें उन्होंने हटाया था।   यह स्वीकारने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि भारत अमरीका नहीं है। इसलिए किसी भी सरकार को हमेशा गरीबों और मध्यवर्ग के साथ ही दिखना होगा। अमीरों के प्रति हमारी सदाशयता हो सकती है किंतु कोशिश यही होनी चाहिए हम उनके समर्थक के रूप में चिन्हित न हों।
 
 
यह हमारी राजनीति की विवशता और दिशाहीनता ही कही जाएगी कि हम गांव तो पहुंचे पर गांव के हो न सके। शायद इसीलिए भरोसे से खाली किसान अपनी जान देकर भी हमसे कुछ कहना चाहता है। हमारी राजनीति किसानों के प्रति वाचिक संवेदना से तो भरी है पर समाधानों से खाली है। ऐसे खालीपन को भरने और भारत से भारत का परिचय कराने के लिए यह सरकार लोगों ने बहुत भरोसे से लाई है। इस सरकार की विफलता किन्हें खुश करेगी कहने की जरूरत नहीं है, पर लोग एक बार फिर छले जाएंगें, इसमें संदेह नहीं। यह भरोसा बचा और बना रहे, मोदी की सरकार अपने सपने सच कर पाए, यही दरअसल भारत चाहता है। यह संभव हो इसकी सबसे ज्यादा जिम्मेदारी नरेंद्र मोदी और उनके सहयोगियों की है। उम्मीद है कि वे भारत की जनता और उसके भरोसे को नहीं यूं ही दरकने देंगें।
 
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)