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निरंजना नदी के तट पर हुई ज्ञान की प्रति ,सिद्धार्थ कहलाए महात्मा बुद्ध

भारत के बिहार राज्य में गया से 13 किमी.दूर बौद्ध गया का बोधि मंदिर भारत मे बौद्ध धर्म के चार प्रमुख स्थानों में सबसे महत्वपूर्ण हैं । भारतीय वास्तु शिल्प की यह महान विरासत है। यहां निरंजना नदी के तट पर एक पीपल के पेड़ के नीचे संसार से विरक्त सिद्धार्थ को कठोर तपस्या करने पर बोधि ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और वे महात्मा बुद्ध कहलाये । यहीं से न केवल बौद्ध धर्म का उदय हुआ वरण बौद्ध धर्म की विचारधारा की ज्योति विश्व में प्रकाशमान हुई। विश्व भर के बौद्ध अनुयायियों का यह बड़ा श्रद्धा केंद्र बन गया।

मन की आध्यत्मिक शांति के लिए देश-विदेश के सैलानी हर साल बड़ी संख्या में बौद्ध गया आते हैं। जिस पीपल के पेड़ की नीचे बुद्ध को बोधि ज्ञान प्राप्त हुआ था उस पर पवित्र धागे बांधते हैं, अगरबत्ती और दीपक जला का अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं और महात्मा बुद्ध के दर्शन कर पुण्य कमाते हैं। मंदिर का सम्पूर्ण परिसर वास्तु कला, प्रकृति और शांति का अनूठा संगम है। सुंदर पेड़-पौधों और हरे-भरे लॉन की प्राकृतिक सुंदरता वैभव पूर्ण कलात्मक मंदिरों का श्रंगार करती है।

उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश पुराविद् कनिंघम तथा भारतीय पुराविद् डाॅ. राजेन्द्र लाल के निर्देशन में 1883 ई. में यहां खुदाई की गई और काफी मरमत के बाद मंदिर के पुराने वैभव को स्थापित किया गया। ऐतिहासिक एवं धार्मिक बौद्ध मंदिर को वर्ष 2002 ई. में यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत सूची में शामिल कर इसे विश्व विरासत घोषित किया गया।

ऐतिहासिक तथ्यों से ज्ञात होता है कि प्रथम मंदिर तीसरी शताब्दी ई. पू. में सम्राट अशोक द्वारा निर्मित कराया गया था और वर्तमान मंदिर पांचवीं या छठवीं शताब्दी में बनाए गए। यह ईंटों से पूरी तरह निर्मित सबसे प्रारंभिक बौद्ध मंदिरों में से एक है जो भारत आज तक अपने मूल स्वरूप में खड़े हुए हैं। महाबोधि मंदिर का स्थल महात्मा बुद्ध के जीवन से जुड़ी घटनाओं और उनकी पूजा से संबंधित तथ्यों के असाधारण जानकारी प्रदान करते हैं, विशेष रूप से जब सम्राट अशोक ने प्रथम मंदिर का निर्माण कराया और साथ ही कटघरा और स्मारक स्तंभ बनवाया था जो पत्थर में शिल्पकारी की परम्परा का असाधारण आरंभिक उदाहरण हैं।

महात्मा बुद्ध का मुख्य बोधि मंदिर 170 फीट ऊंचा है एवं इसके चारों ओर कलात्मक शिखर बनाये गए हैं जो इसकी भव्यता में वृद्धि करते हैं। मंदिर पेगोडानुमा बहुअलंकृत आर्य एवं द्रविड शैली का सुंदर नमूना है। आकर्षक प्रवेश द्वार के सामने गर्भगृह में भगवान बुद्ध की पद्मासन मुद्रा में भव्य मूर्ति स्थापित है। जनश्रुति के अनुसार यह मूर्ति उसी जगह स्थापित है जहां बुद्ध को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। मंदिर के चारों ओर पत्थर की नक्काशीदार सुंदर रेलिंग लगी है जो प्राचीन अवशेष है। मंदिर के दक्षिण में 15 फीट ऊँचा अशोक स्तम्भ नजर आता है जो कभी 100 फीट ऊँचा था।

मंदिर परिसर में उन सात स्थानों को भी चिन्हित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद सात सप्ताह व्यतीत किये थे। मुख्य मंदिर के पीछे बुद्ध की सात फीट ऊँची लाल बलुआ पत्थर की विराजन मुद्रा में मूर्ति स्थापित है। मूर्ति के चारों ओर लगे विभिन्न रंगों के पताके मूर्ति को आकर्षक बनाते हैं। मूर्ति के आगे बलुआ पत्थर पर बुद्ध के विशाल पदचिन्ह बने हैं, जिन्हें धर्म चक्र परिवर्तन का प्रतीक माना जाता है। यहां बुद्ध ने पहला सप्ताह बिताया था। परिसर में स्थित बौद्धी वृक्ष एवं खड़ी अवस्था में बनी बुद्ध की मूर्ति स्थल को अनिमेश लोचन कहा जाता है। यह चैत्य मंदिर के उत्तर-पूर्व में बना है जहां बुद्ध ने दूसरा सप्ताह व्यतीत किया था। इस स्थल पर 16 जनवरी 1993 में को श्रीलंका के राष्ट्रपति रणसिंधे प्रेमादास द्वारा सोने का जंगला एवं सोने की छतरी का निर्माण करा कर इसे आकर्षक स्वरूप प्रदान किया। मुख्य मंदिर का उत्तरी भाग चंकामाना नाम से जाना जाता है जहां काले पत्थर का कमल का फूल बुद्ध का प्रतीत बना है जहां बुद्ध ने तीसरा सप्ताह बिताया था।

छत विहीन भग्नावशेष स्थल रत्न स्थान पर बुद्ध ने चैथा सप्ताह व्यतीत किया था। जनश्रुति के अनुसार बुद्ध यहां गहन चिन्तन में लीन थे तब उनके शरीर से प्रकाश की एक किरण निकली थी। प्रकाश की किरणों के इन्हीं रंगों का उपयोग विभिन्न देशों द्वारा यहां लगे पताके में किया जाता है। मुख्य मंदिर के उत्तरी दरवाजे से थोड़ी दूर स्थित अजयपाल वटवृक्ष के नीचे बुद्ध ने पाँचवां सप्ताह व्यतीत किया था। मंदिर के दांई ओर स्थित मुचलिंद सरोवर जो चारों तरफ से वृक्षों से घिरा है और सरोवर के मध्य में बुद्ध की मूर्ति स्थापित है जिसमें विशाल सर्प को बुद्ध की रक्षा करते हुए बताया गया है, यहां बुद्ध ने छठा सप्ताह व्यतीत किया था। परिसर के दक्षिण-पूर्व में स्थित राजयातना वृक्ष के नीचे बुद्ध ने सातवां सप्ताह व्यतीत किया था।

बौद्ध गया घूमने का सबसे अच्छ समय अप्रैल-मई में आने वाली बुद्ध जयंति का अवसर है जब यहां सिद्धार्थ का जन्मदिन विशेष उत्साह एवं परम्परा के साथ मनाया जाता है। इस दौरान मंदिर को हजारों मोमबत्तियों से सजाया जाता है तथा जलती हुई मोमबत्तियों से उत्पन्न दृश्य मनुष्य के मानस पटल पर अंकित हो जाता है।

जापानी-चीनी मठ
महाबोधि विहार के पश्चिम में बोधगया का सबसे बड़ा और पुराना तिब्बतियन मठ है जिसे वर्ष 1934 ई. में बनाया गया था। वर्ष 1936 ई. में बनवाया गया बर्मी विहार – बोधगया रोड पर निरंजना नदी के तट पर स्थित है। इस विहार में दो प्रार्थना कक्ष बनाये गए हैं। इसमें बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा स्थापित की गई है। इससे लगा हुआ है थाई मठ । यह महाबोधि विहार परिसर से एक किलोमीटर पश्चिम की ओर स्थित है। इस मठ के छत की सोने पर कलई की गई है। इस कारण इसे गोल्डेन मठ कहा जाता है। इस मठ की स्थापना थाईलैंड के राजपरिवार ने बौद्ध स्थापना के 2500 वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में किया था। इंडोसन-निप्पन-जापानी मंदिर महाबोधि मंदिर परिसर से 11.5 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित है जिसका निर्माण 1972-73 में करवाया गया था।

इस विहार का निर्माण लकड़ी के बने प्राचीन जापानी विहारों के आधार पर किया गया है तथा मठ की दीवारों पर नक्काशी का बेहतरीन काम किया गया है। इस विहार में बुद्ध के जीवन में घटी महत्वपूर्ण घटनाओं को चित्र के माध्यम से दर्शाया गया है। चीनी विहार महाबोधि मंदिर परिसर के पश्चिम में स्थित है जिसका निर्माण वर्ष 1945 ई. में किया गया था। इस विहार में सोने की बनी बुद्ध की एक प्रतिमा स्थापित है। इस विहार का पुनर्निर्माण वर्ष 1997 ई. करवाया गया था।। जापानी विहार के उत्तर में भूटानी मठ स्थित है। इस यहां सबसे नया बना विहार वियतनामी विहार है। यह विहार महाबोधि विहार के उत्तर में स्थित है जिसका निर्माण 2002 ई. में किया गया। इस विहार में बुद्ध के शांति के अवतार अवलोकितेश्वर प्रतिमा स्थापित है।

इन मठों और विहारों के अलावा के कुछ और स्मारक भी यहां प्रसिद्ध है। इन्हीं में से एक है भारत की सबसे ऊंचीं बुद्ध प्रतिमा है जो कि 6 फीट ऊंचे कमल के फूल पर स्थापित है। यह पूरी प्रतिमा एक 10 फीट ऊंचे आधार पर बनी हुई है। स्थानीय लोग इस मूर्ति्त को 80 फीट ऊंचा मानते हैं। यहाँ स्थित पुरातत्विक संग्रहालय भी दर्शनीय है।