अपने दो ही तो शौक़ हैं – पढ़ना और (संगीत ) सुनना. खूब मोटी-मोटी किताबें भी पढ़ी हैं. लेकिन जब से यह मुआ कोरोना हावी हुआ है किसी भी काम में मन नहीं लग रहा है. फुर्सत खूब है लेकिन पढ़ने में मन नहीं लगता है. कोई किताब बड़े मन से पढ़ना शुरु करता हूं लेकिन बहुत जल्दी मन उचट जाता है. जिन किताबों को ज़रूरी पढ़ना है उनका अम्बार जमा होता जा रहा है, मित्रों के आगे शर्मिंदा होना पड़ रहा है, लेकिन मन के आगे लाचार हूं. यही हाल संगीत सुनने का भी है. लेकिन इसी उखड़ी मन:स्थिति में आज जब एक उपन्यास हाथ में लिया तो जैसे एक चमत्कार ही हो गया. न केवल यह कि जब से यह कोरोना काल शुरु हुआ है, पहली बार किसी किताब को पूरा पढ़ा, इससे भी बड़ी बात यह कि एक ही बैठक में पढ़ लिया. और ऐसा करने में मेरी अपनी कोई भूमिका नहीं थी. यह किताब का ही चमत्कार था कि उसने मुझसे ख़ुद को पढ़वा लिया. किताब है लक्ष्मी शर्मा का हाल में प्रकाशित उपन्यास स्वर्ग का अंतिम उतार.
लक्ष्मी जी हिंदी की जानी-मानी कथाकार है और उनका इससे पहले प्रकाशित उपन्यास ‘सिधपुर की भगतणें’ और कहानी संग्रह ‘एक हंसी की उम्र’ खूब चर्चित और प्रशंसित रहे हैं. इनके अलावा भी उन्होंने काफी काम किया है. लक्ष्मी जी के लेखन की सबसे बड़ी ताकत उनकी भाषा और चित्रण क्षमता है. उनकी भाषा में प्रवाह तो है ही, उनका शब्द चयन भी विलक्षण होता है. और चित्रण तो वे कुछ इस तरह करती हैं कि आप उनको पढ़ते हुए देखने लगते हैं. उनके ये दोनों कौशल इस उपन्यास में जैसे अपने शिखर पर हैं. इसे पढ़ते हुए मुझे लगा जैसे उन्होंने शिवानी से उनका सांस्कृतिक वैभव और स्वयं प्रकाश से उनका खिलंदड़ापन लेकर एक अनूठी भाषा रची है, जो केवल उनकी है. और ये दो ही तत्व नहीं हैं इस भाषा में. यहां मालवी का आंचलिक स्वाद भी भरपूर है. मैं बिना किसी संकोच के कह सकता हूं कि इस उपन्यास को इसके भाषा सौष्ठव के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए.
लेकिन कोई भी कृति केवल भाषा दम पर अपनी जगह नहीं बनाती है. और अगर वह कृति उपन्यास हो तो उससे हमारी पहली अपेक्षा तो उसके कथा तत्व की होती है. इस उपन्यास की कथा बहुत सीधी-सरल है. कथा का केंद्रीय व्यक्तित्व छिगन एक आस्थावान निम्नवर्गीय भारतीय है. उसके जीवन की बड़ी साध है बद्रीनाथ की यात्रा. अपने बचपन में गांव में उसने हसरत भरी निगाहों से बहुत लोगों को तीर्थयात्रा करके लौटते और उनका मान बढ़ते देखा है. लेकिन उसकी अपनी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वह अपने बल बूते पर तीर्थ यात्रा कर सके. इसके बावज़ूद उसे इसका अवसर मिल जाता है.
जिस अमीर परिवार के यहां वह चौकीदार की नौकरी कर रहा है वह परिवार धार्मिक पर्यटन का कार्यक्रम बनाता है और अपने साथ इस छिगन को भी ले जाता है. ले जाने का स्पष्ट उद्देश्य यह है कि वह उनके पालतू कुत्ते गूगल की सेवा करने के साथ-साथ उनकी भी सेवा करेगा. साहब, मेम साहब, बेटी और बेटा इन चार लोगों के साथ बस का ड्राइवर और उसका एक सहायक भी इस यात्रा में हैं. यात्रा होती है, और कथाकार बहुत ही कुशलता के साथ हमें भी इस यात्रा में सहभागी बना लेती हैं. लेकिन यह तो इस कथा का एक आयाम है. असल में तो यह कथा अनेकायामी है. इस यात्रा में हम न केवल रास्ते की खूबसूरती का आनंद लेते हैं, यहां हमें मानवीय चरित्र के अनेक रंग भी देखने को मिलते हैं.
निदा फ़ाज़ली का वह शे’र बेसाख़्ता याद आता है – हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी/ जिस को भी देखना हो कई बार देखना . पहले लगता है कि ड्राइवर और उसके साथी के मन में छिगन के प्रति कोई सद्भावना नहीं है, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता वे उससे जुड़ जाते हैं, और उसी तरह साहब, मेम साहब और उनके बच्चों के अलग-अलग रूप सामने आते हैं. इस कथा से गुज़रते हुए आप महसूस करते हैं कि व्यक्ति न पूरी तरह अच्छा होता है, न पूरी तरह बुरा. इसी यात्रा के दौरान जब ये लोग जानकी चट्टी पहुंचने वाले हैं तो उससे कुछ पहले इनकी बस का कूलेण्ट पाइप फट जाता है और मज़बूर होकर इन्हें एक सामान्य गृहस्थ के काम चलाऊ गेस्ट हाउस में शरण लेनी पड़ती है. वहीं लेखिका उस गृहस्थ की सुंदर सुशील बेटी कंचन को सामने लाती है. छिगन की मेम साहब कंचन को देख करुणार्द्र हो जाती हैं और हम उनकी इस दयालुता से बहुत प्रभावित भी होते हैं. लेकिन कुछ आगे चलकर यह रहस्योद्घाटन होता है कि मेम साहब की यह करुणा अकारण नहीं, सकारण है. उन्हें उस लड़की में एक सस्ती सेविका नज़र आई है. और इस तरह लेखिका अमीरों की करुणा को बेनक़ाब कर देती है.
यात्रा कथा चलती है, लेकिन उसी के साथ छिगन की अपनी स्मृति यात्रा भी चलती रहती है. लेखिका बहुत ही कुशलता के साथ वर्तमान से अतीत में और अतीत से वर्तमान में आवाजाही करती है. जब वह अतीत में जाती है तो वहां की कुछ कथाएं भी हमें सुना देती हैं. इन कथाओं में चंदरी भाभी की कथा अपनी मार्मिकता में अनूठी है. और सच तो यह है कि यह केवल चंदरी भाभी की कथा नहीं है, यह भारतीय स्त्री के जीवन की मार्मिक त्रासदी है. इसी तरह पहाड़ के बेटी जुहो की कहानी भी हमें भिगो देती है. लेखिका का कौशल इस बात में है कि उसने इन प्रासंगिक कथाओं को अपनी मूल कथा का अविभाज्य अंग बना कर प्रस्तुत किया है.
लेखिका की सूक्ष्म दृष्टि से जीवन का कोई भी पहलू बच नहीं पाता है. यहां तक कि जब वह यह बताती है कि ड्राइवर गाड़ी में कौन-सा संगीत बजा रहा है तब भी उसका सूक्ष्म पर्यवेक्षण हमारा ध्यान आकर्षित किये बिना नहीं रहता है. वे लोग गाड़ी में किनके गाने बजाते हैं? गुरु रंधावा, दलेर मेहदी और सोना महापात्र के. और उसकी भाषा? बहुत बार तो यह एहसास होता है जैसे गद्य में कविता ही रच दी गई है. दो-तीन अंश उद्धृत किये बिना नहीं रह सकता हूं. देखें: “अभी सूरज नहीं उगा है और भागीरथी के कुआंरे हरे रंग में कोई मिलावट नहीं हुई है, वो अनछुई, मगन किशोरी-सी अपनी मौज़ में इठलाती दौड़ी जा रही है.
नदी के पार एक हिरण का जोड़ा पानी पीने के बहाने उसके गाल छू रहा है.” (पृ. 63) या यह अंश: “धारासार बरसते मेघों का रूप और नाद-सौंदर्य जितना मोहक होता है उससे ज़्यादा सम्मोहक होती है आसमान से बरस चुकी लेकिन धरती पर आने के बीच में कहीं ठहर गई बूंदों की ध्वनियां और छवियां. चीड़ की नुकीली पत्तियों के जाल के बीच से हवाई रोशनी के साथ छम-छम छमकती बूंदें इठलाती परियों–सी उतरती हैं. किसी फूल की पंखुड़ी के अंग लगकर महक गई एक कामिनी-सी बूंद मद्धिम सुर के साथ पग धरती है, बड़ी देर के छत के कितारे ठहरी कुछ बड़ी बूंदें एक हुंकार के साथ पहाड़ी पत्थरों के किनारे नन्हे ताल में कूद पड़ती हैं और छोटा-सा भंवर बना के खो जाती हैं.” (पृ. 82) और यह भी देखिये: “रात की बारिश और बरफ रात को ही विदा ले गई है. जानकी चट्टी के पर्वतों पर बिछीबर्फ से गलबहियां किये उतरती धूप कुछ ज़्यादा ही साफ़ और उजली है. उसने ज़रा-सा धूपिया पीला उबटन पास बहती जमना की श्यामल वर्णा देह पर भी मल दिया है जिससे वो भी निखरी-निथरी हो गई है. ठण्ड अपने तेवर दिखा रही है लेकिन यात्रियों की भीड़ में उसे कोई ख़ास तवज्जो नहीं मिल रही.” (पं. 94) ऐसे मोहक वर्णन इस किताब में जगह-जगह हैं.
लेकिन कोई भी उपन्यास न तो केवल भाषा या वर्णन से बड़ा बनता है और न कथानक की रोचकता से. यहां भी अगर केवल इतना ही होता तो यह उपन्यास भी एक सामान्य कथा-रचना बन कर रह गया होता. इन सारे खूबसूरत-मोहक और बरबस वाह निकलवा लेने वाले प्रसंगों-वर्णनों-चित्रणों से गुज़रते हुए हम बढ़ते हैं कथा के अंत की तरफ. कथा इतनी सहजता से आगे बढ़ रही है कि लगता है देव-दर्शन के साथ इसका समापन हो जाएगा. तेरहवें अध्याय तक यही लगता है. लेकिन चौदहवें अध्याय में प्रवेश करते ही हमारा सामना अप्रत्याशित-अकल्पनीय से होता है. वह क्या है, यह बताकर मैं उस आनंद से आपको वंचित नहीं करूंगा जो इसे ख़ुद पढ़ने पर आपको मिलेगा. लेकिन अंतिम, सत्रहवें अध्याय में जब लेखिका अपनी कथा को समेटती है तो हम एक बार फिर से उसके कौशल के मुरीद होने को विवश हो जाते हैं. बहुत सारे ब्यौरे जो बीच-बीच में आए हैं, यहां आकर अपनी सार्थकता प्रमाणित करते हैं. और यहीं इस कथा में श्वान गूगल की उपस्थिति एक नया आयाम प्राप्त कर एकदम से इस कथा को बड़ा बना देती है. असल में जहां यह उपन्यास ख़त्म होता है वहीं से आपके मन में एक कथा शुरु होती है. और यही है इस उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत. एक बहुत सामान्य कथा को इतना व्यापक आयाम दे देना लेखिका की सामर्थ्य का बहुत बड़ा परिचायक है.
चर्चित कृति:
स्वर्ग का अंतिम उतार (उपन्यास)
लक्ष्मी शर्मा
शिवना प्रकाशन, पी.सी. लैब, सम्राट कॉम्प्लेक्स बेसमेण्ट, बस स्टैण्ड, सीहोर-466 001.
प्रथम संस्करण, 2020. पृ. 104. पेपरबैक. मूल्य: ` 150.00
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