बिहार की राजनीति के सबसे चर्चित शख्सियत श्री लालू प्रसाद यादव का कल जन्मदिवस था| स्वाभाविक है कि उनके समर्थक से लेकर विरोधी तक ने कल उनके समर्थन या विरोध में अपने-अपने विचार प्रकट किए| आज भले लालू का तिलिस्म टूट रहा हो, पर एक दौर में उनका जादू लोगों के सर चढ़कर बोलता था| जहाँ अपने समर्थकों के लिए वे सामाजिक न्याय के अग्रदूत और गरीबों के मसीहा थे वहीं विरोधियों के लिए वे राजनीति के कलंक और अंधकार युग के जनक और प्रवर्त्तक रहे| एक साथ इतना धुर समर्थन और इतना धुर विरोध शायद ही किसी अन्य राजनीतिज्ञ को झेलना पड़ा हो|
जो बिहार कभी अपनी समृद्ध विरासत, गौरवशाली अतीत और वर्तमान बौद्धिकता के अग्रदूत के रूप में जाना जाता रहा, उसे लालू ने अपने अलहदा अंदाज़, अनगढ़ मुहावरे और नित नवीन मसखरेबाजी से न केवल भिन्न व विशेष पहचान दिलाई बल्कि संपूर्ण देश में ‘बिहारियों’ को भी इस नई पहचान का पर्याय बना डाला| ‘बिहारी’ होना धीरे-धीरे शर्म और मज़ाक का विषय बन गया| इस संबोधन को कई लोग गालियों की तरह इस्तेमाल करने लगे तो कई लोग आनन-फानन में दिल्ली-हरियाणा शैली की हिंदी बोल अपनी ‘बिहारी’ पहचान को छुपाने की असफल चेष्टा करने लगे| कामकाजी दुनिया में ‘बिहारी’ लोगों को कभी सीधे ‘लालू’ बोलकर तो कभी उन जैसी हिंदी बोलकर चिढ़ाया जाने लगा| जो लोग ऐसा करते रहे, उनकी मानसिकता की पड़ताल फिर कभी, किंतु आज यह जानना आवश्यक है कि लालू-राज के परोक्ष एवं सहायक परिणाम क्या-क्या हुए, उसका सामाजिक-मनोवैज्ञानिक प्रभाव कैसा रहा?
बिहार अपनी बौद्धिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक सक्रियता एवं सजगता के लिए जाना जाता रहा है| परंतु यह वह दौर था, जब जातीय घृणा की फसल को भरपूर बोया गया, खाद-पानी देकर बड़ा किया गया और उसे बार-बार काटा गया; यह वह दौर था, जब विकास का पहिया प्रतिगामी गति से घुमाया गया| मुझे अच्छी तरह याद है कि तब लोग सूर्य अस्त होते ही अपने-अपने घरों में दुबककर बैठे रहना पसंद करते थे, अंधेरा होते-होते दुकानों के शटर गिरने लगते थे, थोड़ी भी देर होने पर परिजनों के चेहरों पर चिंता की लकीरें खिंचने लगती थीं, अपहरण कुटीर उद्योगों की तरह बिहार के शहर-शहर, गली-गली में विस्तार पाने लगा था, जब स्टेशनों, बस अड्डों, चौक-चौराहों, घरों-दफ़्तरों-दुकानों में देश-दुनिया की चर्चा की बजाय किसी-न-किसी उभरते रंगबाज़, गैंगस्टर, क्रिमिनल की चर्चा होने लगी थी और सबसे ख़तरनाक स्थिति यह थी कि बड़े होते बच्चे किसी सुंदर-स्वस्थ सपनों को सँजोने की बजाय एक रंगबाज़, गैंगस्टर या अपराधी बनने का सपना पालने लगे थे| किसी समाज के पतन की यह पराकाष्ठा होती है कि वह अपराधियों में नायकत्व की छवि तलाशने लगे| उस दौर में सभी जातियों के अपने-अपने अपराधी-नायक थे, समाज उन अपराधियों के पीछे बँटता और लामबंद होता चला जा रहा था| लोगों को लालू यादव में भी एक नेता की कम, एक दबंग जातीय सरगना की छवि अधिक दीखने लगी थी| नतीज़तन नेता और अपराधी का भेद मिटने लगा था|
संस्थाओं का जातीयकरण होता गया और उन जातीय दबंगों ने भ्र्ष्टाचार को एक संस्कृति बना दी| भिन्न जाति वालों से वसूली को सामाजिक न्याय का ज़ामा पहनाया जाता रहा| कोढ़ में खाज का काम इस वामपंथी नैरेटिव ने किया कि जिनके पास पैसा और ज़मीन है वे लूटे-ख़सूटे जाने लायक ही हैं| भ्र्ष्टाचार का संस्थानीकरण होता गया| भ्र्ष्टाचार एक नियामक और मान्य सत्ता बनती गई और गरीबों के मसीहा व उनके जातीय अनुयायी एक उदीयमान शोषक सत्ता के रूप में स्थापित होते चले गए| जिसका परिणाम यह हुआ कि उद्योग-धंधे बंद होते चले गए, बड़े व्यापारी राज्य छोड़कर अन्यत्र चले गए, प्रतिभाशाली युवा पलायन कर गए और कालांतर में जो बचे वे या तो छोटे-मंझोले कृषक रहे या मजदूर बन गए| और एक दिन ऐसा आया कि यादवों को छोड़कर बिहार की सभी जातियों का उनसे मोहभंग होता चला गया|
अचरज नहीं कि जैसे हर युग का अवसान होता है, सो लालू-युग का भी अवसान हुआ| काठ की हांडी जैसे बार-बार नहीं चढ़ाई जा सकती वैसे जातिवाद की राजनीति भी हमेशा सत्ता नहीं दिलाती| लालू जी को अपदस्थ कर नीतीश कुमार जी के नेतृत्व में एक नई सरकार बनी, जिसके पहले कार्य-काल में कुछ अच्छे काम भी हुए, उम्मीद जगी, उन पर विश्वास भी बढ़ता गया| परंतु उनका वर्तमान कार्य-काल अत्यंत निराशाजनक रहा है| शासन-प्रशासन की शैली और कार्यसंस्कृति में कोई ख़ास बदलाव नहीं आ पाया है| भ्र्ष्टाचार और जातिवाद बिहार को पहले भी दीमक की तरह खोखला करता रहा और आज भी कर रहा है| बिहार एक व्यापक सामाजिक-राजनीतिक-प्रशासनिक सुधार की अपेक्षा रखता है| सत्ता या व्यक्ति बदलने से बिहार का भविष्य बदलता नहीं दिखाई दे रहा| बिहार को यदि अपना भाग्य बदलना है तो उसे एक दूरदर्शी राजनीतिक नेतृत्व तलाशना होगा| जातिमुक्त, स्वस्थ, उदार, सहयोगी समाज की रचना करनी होगी| शिक्षा-व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन और निवेश करने होंगें| पलायन आधारित अर्थरचना की बजाय आत्मनिर्भर और स्वावलंबी व्यवस्था खड़ी करनी होगी| बिहार का लालू-कालीन अतीत अंधकारमय रहा है वर्तमान शिथिल व गतिशून्य तो भविष्य अनिश्चित| परंतु बिहार सदा से नवीन राहों का अन्वेषी है| घटाटोप अँधेरों के बीच भी इसने आलोक-पथ पर सधे चरण बढ़ाए हैं| देखना दिलचस्प होगा कि वह भविष्य का वाहक किसे और क्यों चुनता है?
प्रणय कुमार
गोटन, राजस्थान
9588225950
आपकी लेखनी की धार ने कुछ हद तक स्वभाविक चित्रण किया है पर जातीय राजनीति से कम से कम पूरा उत्तर भारत ग्रसित है।काठ की हाडी बार बार नही चढ़ती लेकिन वहाँ तीन बार अकेले चढ़ी और एक बार नीतीश जी के साथ चढ़ी।इसका भी निरपेक्ष और पारदर्शी चित्रण करना चाहिये क्योंकि आप किसी वैचारिक धरातल से बधने के साथ साथ एक उच्चकोटि के साहित्यकार हैं।साहित्यकार की जिम्मेदारी सभी पक्ष को पारदर्शिता से रखने की होनी चाहिये क्यो की आप जो रेखा खीचेंगे उसी पर समाज खड़ा होगा।??