“औरत बुद्ध नही होती “ काव्य संग्रह मेरे हाथ में है और यह लेखिका के कलम की ही ताक़त है की मुझ जैसा महा आलसी इस संग्रह की सारी कविताएँ न सिर्फ़ 3-4 दिनों में पढ़ गया अपितु इन कविताओं ने इतना अस्वस्थ किया कि आज उस पर लिखे बिना मन नही मान रहा है।
गत कई दिनों से डॉक्टर अन्नपूर्णा सिसोदिया का यह संग्रह अलग अलग कारणों से फ़ेसबुक पर दिखाई दे रहा था ।झूठ नही कहूँगा ।पहले मुझे इस संग्रह का शीर्षक “औरत बुद्धू नही होती “ऐसा लगा था ।और इसके शीर्षक ने मुझे बहुत प्रभावित भी किया था ।लगता था स्त्री बुद्धि को दर्शाती उसके अस्तित्व का अहसास कराती विद्रोही कविताएँ होंगी ।लेकिन जब पुस्तक हाथ में आई तो बुद्धू “बुद्ध “ में परिवर्तित होते ही मेरी संकीर्ण बुद्धि को भी विस्तार मिला ।कितना सटीक शीर्षक है ।और सच भी ।पुरुष मानव कल्याण के उद्देश्य से कभी कभी ये कदम उठाता है और गौरव महानता ईश्वरत्व को प्राप्त करता है परंतु औरत … परिवार समाज की जंजीरों में जकड़ी हुई इस कदम के बारे में सोचना भी गुनाह समझती है ।ऐसा क़तई नही है जो पुरुष कर सकता है वह औरत नही कर सकती ।उससे बेहतर करने की क्षमता तो उसे ईश्वर प्रदत्त्त उपहार है ।लेकिन प्रेम स्नेह वात्सल्य और घर की जवाबदारी की ज़ंजीरे तो उसने स्वयं धारण की हैं ।
अन्नपूर्णा की कविता में सामान्य नारी का सात्विक आक्रोश है ।वह आक्रोश तो व्यक्त करती है पर अपने कर्तव्य मार्ग से हटती नही ।औरतों की मूक सम्वेदनाओं को अन्नपूर्णा जी ने इतना मुखर स्वर दिया है कि कविता जीवंत हो उठती है ।
तक़रीबन सारी ही कवितायें नारी स्वर की हैं परंतु विविधता इतनी कि अनेक अछूते विषयों को अपने काव्य द्वारा उकेरती चली गईं हैं ।नारी जीवन की पीड़ा ,असहायता ,समाज में उसकी दुय्यम स्थिति को इतनी बारीकी से दर्शाया गया है कि कविता अपनी सार्थकता सिद्ध करती है ।
एक कविता है “आसमान सी वह “ नारी जीवन की पीड़ा और उससे उपजी इस कविता में झाड़ू पोंछा और खाना बनाने की प्रक्रिया में स्त्री जीवन का बखान देखिये कवियत्री कितनी ख़ूबसूरती से करती है …
चूल्हे की आग में रोटी सेंकते हुए कभी /आँच में तप कर चमकने लगा उसका व्यक्तित्व ।या …पोंछे के कपड़े के साथ गीला हुआ था मन /फिर निचोड़ दिया था कुछ सोच कर खुद ही ।
सुविधा भोगियों के साथ सामान्य जन की तुलना करती एक मार्मिक कविता है “बारिश में “….
सावन के गीत प्रभावित नही करते उसे /पाँचवे माले की बाल्कनी में बैठ कर /चाय की चुस्कियों के साथ /फुहारों का आनंद उसके भाग्य में नही /उसे बांधनी है एक बड़ी सी पालीथीन /अपनी झोपड़ी के टूटे फूटे छप्पर पर ।
स्त्री जब कविता लिखती है तो सर्वत्र उसकी नज़र जाती है ।वह कविता नही अपना मन भी लिखती जाती है ।उनकी एक कविता “स्त्री लिखती है मन “ कुछ इसी भाव की कविता है ।
“विलायती पौधा और पीपल “ में पाश्यात्य के प्रति हमारा आकर्षण और स्वदेशी के प्रति विरक्ति इस भाव के अद्भुत दर्शन होते हैं ।
“आत्महत्या की रात “ कविता में एक किसान से बना मज़दूर ज़िंदगी से तंग आ कर आत्महत्या करने की सोचता है ।पर संघर्षों से जूझते अपने असहाय परिवार का ख़्याल आते ही वह आत्महत्या नही कर पाता और सुबह निकल पड़ता है फिर जीवन से संघर्ष करने ।
“सलेक्टिव सम्वेदनाओं के दौर में “ यह कविता मृत हो चुकी सम्वेदनाओं की पड़ताल करती है ।वहीं “ बच्चे अब खेल नही रहे “ कविता में बच्चों से बिछड़ता उनका बचपन और घर के बड़े बुजुर्गों की अपेक्षाओं से कराहती बाल मन की व्यथा सुंदरता से चित्रित है –
बच्चे अब दादी ,नानी के घर भी नही जाते /क्यूँ की उन्हें बच्चा रहने की इजाज़त नही ।
प्रत्येक कविता मानवीय सम्वेदनाओं का दारुण पिटारा है ।जो संदेश भी देता है जीवन से संघर्ष करने की ।सारी कविताएँ बेजोड़ हैं ।परंतु सब उल्लेख संभव नही और उचित भी नही ।
अंत में एक प्रगतिवादी विद्रोही कविता “झुकूँगी नही “ का ज़रूर उल्लेख करूँगा ।पुरुषों की स्त्रीयों के प्रति दुय्यम दृष्टि ,उसे कम करके आंकना।लेकिन अब वह खुली हवा में साँस लेना चाहती है ।पंख लगा कर उड़ना चाहती है ।उसने अब पुरुषों से डरना छोड़ दिया है ।बहन अन्नपूर्णा जी को हार्दिक शुभकामनायें …..
पुस्तक समीक्षा –
काव्य संग्रह
औरत बुद्ध नहीं होती – डॉ. अन्नपूर्णा सिसोदिया
दिव्य प्रकाशन, मुंबई
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