जुम्मे की सामूहिक नमाज जामा-मस्जिद में दी जानी थी अतः बहुत भीड़ थी लोग अंग्रेजों द्वारा की गई अन्धाधुन्ध गोलोबारी से परेशान थे अतः हिन्दू-मुस्लिम शहीदों की प्रार्थना सभा का आयोजन जामा-मस्जिद में किया गया था। शुद्धि आन्दोलन के अग्रणी, गुरुकुल-कांगड़ी के संस्थापक, अछूत-दलित-उद्धारक स्वामी श्रद्धानन्द जी दिल्ली में ही थे। लोगों के आग्रह पर उन्हें जामा-मस्जिद ले जाने की योजना बनी। एक गैर-मुस्लिम व्यक्ति को नमाज के समय मस्जिद में प्रवेश करना उचित न था अतः सलाह, अनुमति का इंतजार किया गया।दोपहर के समय 50 लोगों ने घर आ कर स्वामी श्रद्धानन्द जी को प्रेमपूर्वक आग्रह से, तांगे में बिठा कर जामा-मस्जिद ले जाने लगे लेकिन तांगा धीमे चल रहा था अतः कार में बिठाया गया। जामा-मस्जिद की दक्षिण दिशा की सीढ़ियों से प्रवेश किया।
मस्जिद में स्वामी-श्रद्धानन्द जी को देखते ही जो लोग नमाज अदा कर अपने घर जा रहे थे वे वापस लौटने लगे और “महात्मा गाँधी के जय”, “हिन्दू-मुस्लिम एकता की जय” आदि नारे लगाने लगे। मस्जिद में 30 हजार लोग उपस्थित थे। स्वामी श्रद्धानन्द जी को आग्रहपूर्वक मस्जिद की उपदेश-वेदी पर ले जाया गया, स्वामी जी संकोचपूर्वक उपर गए, मौलाना अब्दुलमजीद अपने प्रवचन को समाप्त कर स्वामी-श्रद्धानन्द जी से आग्रह करने लगे की वेद के अनुसार सन्देश दें।
स्वामी श्रद्धानन्द जी ने जामा-मस्जिद से प्रथम-प्रवचन देना शुरू किया और निम्न वेद-मन्त्र बोला-
ओ३म् त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ।
अधा ते सुम्नमीमहे।। (ऋग्वेद 8-98-11)
अपार जनता से कहा कि, वह शहीदों के बेकसूर होने की साक्षी दें और परमात्मा के चरणों में नत होवें जो सबका पिता और सबकी माता है।
उर्दू कवि के निम्न उद्धरण को पढ़ा :-
हिन्दू सनम में जलवा पाया तेरा।
आतिश पै फिगां ने रस गाया तेरा।
देहरी ने किया देहर से ताबीर मुझे।
इन्कार किसी से बन न आया तेरा।।
जो लोग वहां उपस्थित थे, वे ही उस दृश्य का ठीक-ठीक बयान कर सकते हैं/थे। स्वामी जी ने “ओ३म् शांतिः आमीन” कहा तो सारी सभा ने एक स्वर से सारे स्थान को गुंजाते हुए उसे पुनः उच्चरित किया। यह प्रेरणादायक दृश्य था।
स्वामी श्रद्धानन्द जी वेदी(मंच) से उतरे और आगे लोगों के साथ चले आए। उस समय उपस्थित लोगों का चेहरा ही बता रहा था की वे कितने प्रभावित हुए थे/हैं।
इस प्रकार जामा-मस्जिद से प्रथम बार वेद मन्त्र बोला गया। उल्लेखनीय है की स्वामी श्रद्धानन्द जी, कोंग्रेस के प्रमुख नेता थे। आत्म-त्याग के भण्डार स्वामी श्रद्धानन्द जी 1885 में स्थापित कोंग्रेस के साथ तीन वर्ष पश्चात् 1888 में ही जुड़ गए थे। गोरखा जवानों की बन्दूक के सामने अपनी छाती खोल कर खड़े होने वाले स्वामी श्रद्धानन्द निर्भीकता और साहस के पुंज थे। उनका लम्बा कद, चमकती आँखें, संन्यासी वेश में भव्यमूर्ति देखते ही बनती थी। लाला-मुंशीराम से स्वामी श्रद्धानन्द बने वीर योद्धा संन्यासी थे। श्री मोहनदास करमचंद गांधी को “महात्मा” गांधी बनाने वाले स्वामी श्रद्धानन्द अपने घर का सर्वस्व लुटा कर गुरुकुल के लिए अर्पित कर गए और अस्पृश्यता-निवारण के लिए काम करते रहे।
दिल्ली में हिन्दू-मुसलमान जनता में पारस्परिक सौहार्द और विश्वास का भाव उत्पन्न हो इसलिए स्वयं मुसलमान समुदाय ने ही उन्हें जामा-मस्जिद में उपस्थित मुस्लिम जनसमूह को कर्त्तव्य के लिए प्रबोधित करने का अधिकार दिया था क्यों की वे जानते थे कि संन्यासी सब प्रकार की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर समस्त विश्व का नागरिक बन जाता है। कालान्तर में स्वामी जी ने बड़ी पीड़ा के साथ साम्प्रदायिक विभेद की खाई को अधिक चौड़ा होते हुए भी देखा। साम्प्रदायिक मामलों में महात्मा गांधी हिन्दुओं के प्रति अन्याय करते हुए मुसलामानों को अनावश्यक रियायतें देने की सिफारिशें करते थे जिससे साम्प्रदायिक संतुलन को बनाए रखना कठिन हो गया था। धीरे-धीरे कोंग्रेस की गलत नीतियों के कारण मुस्लिमों के बीच असंतोष बढ़ता गया और एक मतान्ध व्यक्ति के हांथों उनकी हत्या हो गयी।
वर्ष 2019 जामा-मस्जिद में दिए प्रवचन, वेद-मन्त्र पाठ का शताब्दी वर्ष था। आइए! हम सब इस ऐतिहासिक दिन का स्मरण करें, जब भी जामा मस्जिद जायें तब इस घटना का स्वयं स्मरण करें और अपने बच्चों, सम्बन्धियों, मित्रों को भी सगर्व बतायें, साथ ही मन्द स्वर में ही सही वहाँ वेद-मन्त्र अवश्य बोलें इससे वेद-मन्त्र भी याद हो जाएगा और यह प्रसङ्ग सदा जीवित रहेगा।
(साभार:- स्वामी श्रद्धानन्द ग्रन्थावली भाग 5, पृष्ठ 59-60, प्रस्तुति:- विश्वप्रिय वेदानुरागी)