चारा घोटाले के दुमका कोषागार से जुड़े चैथे मामले में रांची की एक विशेष सीबीआई अदालत ने शनिवार को बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को अलग-अलग धाराओं के तहत 7-7 साल की दो सजा सुनाई। यानि उन्हें 14 साल की सजा सुनाई गई है। इसके साथ ही उन पर 60 लाख का जुर्माना लगाया गया है। जुर्माना नहीं भरने की सूरत में उनकी सजा की अवधि एक साल और बढ़ जाएगी। चारा घोटाले के एक और मामले में लालू प्रसाद को सजा सुनाया जाना एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटना है। हमारे देश में ताकतवर आरोपियों के खिलाफ चल रहे मामलों का अंजाम तक पहुंच पाना विरल ही माना जाता रहा है। लेकिन शीर्ष राजनेताओं को सजा सुनाये जाने का यह सिलसिला निश्चित ही भारत के लोकतंत्र के शुद्धिकरण का उपक्रम है।
अपराधिक राजनेताओं एवं राजनीति के अपराधीकरण पर नियंत्रण की दृष्टि से यह एक नई सुबह कही जायेगी। भारतीय लोकतंत्र की यह दुर्बलता ही रही है कि यहां सांसदों-विधायकों-राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व ने आर्थिक अपराधों, घोटालों एवं भ्रष्टाचार को राजनीति का पर्याय बना दिया था। इन वर्षों में जितने भी चुनाव हुए हैं वे चुनाव अर्हता, योग्यता एवं गुणवत्ता के आधार पर न होकर, व्यक्ति, दल या पार्टी के धनबल, बाहुबल एवं जनबल के आधार पर होते रहे हंै जिनकों आपराधिक छवि वाले राजनेता बल देते रहे हैं। लालू प्रसाद को लगातार जिस तरह की सजाएं सुनाई जा रही है, वे देश के समूचे राजनीतिक चरित्र पर प्रश्नचिन्ह खड़े करता है। क्योंकि यदि कोई लालू निरपराध है तो उसे सजा क्यों? और यदि अपराधी है तो उसे सजा मिलने में इतनी देर क्यों हुई? और भी गंभीर प्रश्न है कि आखिर एक अपराधी राजनेता की सजा पर उसे इतना महिमामंडित किये जाने की क्या आवश्यकता है? बात केवल किसी लालूजी की ही नहीं है बल्कि भारतीय राजनीति के लगातार दागी होते जाने की हैं। लगभग हर पार्टी से जुड़े आपराधिक नेताओं पर भी ऐसे ही सवाल समय-समय पर खड़े होते रहे हैं। कब हम राजनीति को भ्रष्टाचार एवं अपराध की लम्बी काली रात से बाहर निकालने में सफल होंगे। कब लोकतंत्र को शुद्ध सांसें दे पायेंगे? कब दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र स्वस्थ बनकर उभरेगा?
लालू प्रसाद को सजा सुनाया जाना और इस फैसले पर जिस तरह से राजनीतिक प्रतिक्रिया हो रही है, वह विडम्बनापूर्ण ही है। लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी यादव और राष्ट्रीय जनता दल के अन्य नेताओं को जहां फैसले में भारतीय जनता पार्टी का षड्यंत्र नजर आया है, वहीं भाजपा ने जैसा बोया वैसा काटा की उक्ति का प्रयोग करते हुए राजद को लालू प्रसाद यादव के किए की याद दिलाई है। कुछ राजनेता इस सजा को 2019 के चुनाव केे परिप्रेक्ष्य में देख रहे हैं। कोई भी राजनीतिक दल इस सजा को लोकतंत्र को भ्रष्टाचार एवं अपराधमुक्त करने के नजरिये से नहीं देख रहा है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजनीतिक शुद्धीकरण का नारा लगाया था और केजरीवाल को तो इसी के बल पर ऐतिहासिक जीत हासिल हुई है। फिर आप के नेताओं पर अपराध के आरोप क्यों लग रहे हैं? भाजपा के इतने मंत्री आरोपी क्यों है? राजनीति का शुद्धीकरण होता क्यों नहीं दिखाई दे रहा? चुनाव-प्रचार के दौरान लम्बे-लम्बे अपराधमुक्त राजनीति के नारे क्या मात्र दिखावा थे? क्या उस समय कही गयी बातें केवल चुनाव जीतने का हथियार मात्र थी? भाजपा और मोदी चाहेंगे कि भ्रष्टाचार को मुद्दा बना कर वे राजद के अलावा, उसके साथ खड़े होने के कारण, कांग्रेस को भी घेरें। लेकिन हाल के उपचुनाव नतीजे बताते हैं कि बिहार में कुछ अलग ढंग के समीकरण ज्यादा काम करते हैं। लालू प्रसाद के जेल में होने के बावजूद राजद ने इन उपचुनावों में भाजपा और जनता दल (यू) की सम्मिलित शक्ति को धूल चटा दी। फिर भी, लालू का जेल में रहना भाजपा के लिए राहत की बात हो सकती है। भाजपा की एक बड़ी चुनौती बने लालू प्रसाद गैर-भाजपा दलों को एकजुट करने की कोशिश भी करते रहे हैं। अब इन सजाओं के कारण वे भले ही जेल में रहे, लेकिन वर्ष 2019 के चुनावों को गहरे रूप में प्रभावित करेंगे और एक चुनौती के रूप में रहेंगे। यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें एक अपराधी सजा पाने के बाद भी हीरो बना रहता है?
लोकतंत्र के शुद्धिकरण की इस बड़ी घटना में भी सभी राजनीतिक दल अपना नफा-नुकसान देख रहे हैं, कोई भी दल लोकतंत्र की मजबूती की बात नहीं कर रहा है। भाजपा से निपटने की रणनीति बनाने की सुगबुगाहट विपक्षी दलों में दिखाई दे रही है लेकिन राजनीतिक अपराधों को समाप्त करने की तैयारी कहीं नहीं है। इसमें कांग्रेस अपने ढंग से सक्रिय है, तो कई क्षेत्रीय दल गैर-भाजपा गैर-कांग्रेस संघीय मोर्चा बनाने की कवायद कर रहे हैं। ऐसे वक्त में लालू प्रसाद का राजनीतिक परिदृश्य से बाहर रहना विपक्ष के लिए एक गहरा झटका है। चारा घोटाले के मामलों में इतनी लंबी जांच चली और इतने सारे तथ्य आ चुके हैं कि फिर भी तथाकथित राजनीतिक नेता भाजपा पर लालू को नाहक फंसाए जाने का आरोप लगा रहे हैं। यह कैसी राजनीति है? यह कैसा लोकतंत्र है?
पिछले सात दशकों में जिस तरह हमारी राजनीति का अपराधीकरण हुआ है और जिस तरह देश में आपराधिक तत्वों की ताकत बढ़ी है, वह लोकतंत्र में हमारी आस्था को कमजोर बनाने वाली बात है। राजनीतिक दलों द्वारा अपराधियों को शह देना, जनता द्वारा वोट देकर उन्हें स्वीकृति और सम्मान देना और फिर उनके अपराधों से पर्दा उठना, उन पर कानूनी कार्यवाही होना-ऐसी विसंगतिपूर्ण प्रक्रियाएं हैं जो न केवल राजनीतिक दलों को बल्कि समूची लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को शर्मसार करती हैं। आज कर्तव्य से ऊंचा कद कुर्सी का हो गया। जनता के हितों से ज्यादा वजनी निजी स्वार्थ बन गया। राजनीतिक-मूल्य ऐसे नाजुक मोड़ पर आकर खड़े हो गए कि सभी का पैर फिसल सकता है और कभी लोकतंत्र अपाहिज हो सकता है।
सोलहवीं लोकसभा के चुनावों में इस बार अपराधमुक्त राजनीति का नारा सर्वाधिक उछला, सभी दलों एवं राजनेताओं ने इस बात पर विशेष बल दिया कि राजनीति अपराध मुक्त हो। लेकिन हुआ इसका उलट। नयी बनी लोकसभा में पन्द्रहवीं लोकसभा की तुलना में आपराधिक सांसदों की संख्या बढ़ी ही है। आखिर क्यों सरकार इस दिशा में कुछ कर नहीं रही? और विपक्ष भी क्यों चुप है इस मामले में? क्या इसलिए कि सबके दामन पर दाग है? कब तक बाहुबल, धनबल की राजनीति लोकतंत्र को कमजोर करती रहेगी? बात सिर्फ लालू पर लग रहे दागों और उनको सुनाई जा रही सजा की नहीं है, बात उन ढेर सारे राजनेताओं की भी है जो गंभीर आरोपों के बावजूद हमारी विधानसभाओं में, हमारी संसद में, यहां तक कि मंत्रिमंडलों में भी कब्जे जमाये बैठे हैं। कब तक दागी नेता महिमामंडित होते रहेंगे?
एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत के 29 राज्यों और दो केंद्रशासित प्रदेशों के कुल 609 मंत्रियों में से 210 पर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। इनमें हमारे केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य भी शामिल हैं। विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं के सदस्य एवं वहां के मंत्रियों पर भी गंभीर आपराधिक मामलें हैं, फिर भी वे सत्ता सुख भोग रहे हैं। इस तरह का चरित्र देश के समक्ष गम्भीर समस्या बन चुका है। हमारी बन चुकी मानसिकता में आचरण की पैदा हुई बुराइयों ने पूरे राजनीतिक तंत्र और पूरी व्यवस्था को प्रदूषित कर दिया है। स्वहित और स्वयं की प्रशंसा में ही लोकहित है, यह सोच हमारे समाज मंे घर कर चुकी है। यह रोग मानव की वृत्ति को इस तरह जकड़ रहा है कि हर व्यक्ति लोक के बजाए स्वयं के लिए सब कुछ कर रहा है।
कोई सत्ता में बना रहना चाहता है इसलिए समस्या को जीवित रखना चाहता है, कोई सत्ता में आना चाहता है इसलिए समस्या बनाता है। धनबल, बाहुबल, जाति, धर्म हमारी राजनीति की झुठलाई गई सच्चाइयां हैं जो अब नए सिरे से मान्यता मांग रही हैं। यह रोग भी पुनः राजरोग बन रहा है। कुल मिलाकर जो उभर कर आया है, उसमें आत्मा, नैतिकता व न्याय समाप्त हो गये हैं। नैतिकता की मांग है कि अपने राजनीतिक वर्चस्व-ताकत-स्वार्थ अथवा धन के लालच के लिए हकदार का, गुणवंत का, श्रेष्ठता का हक नहीं छीना जाए, अपराधों को जायज नहीं ठहराया जाये। वे नेता क्या जनता को सही न्याय और अधिकार दिलाएंगे जो खुद अपराधों के नए मुखौटे पहने अदालतों के कटघरों में खड़े हैं। वे क्या देश में गरीब जनता की चिंता मिटाएंगे जिन्हें अपनी सत्ता बनाए रखने की चिंताओं से उबरने की भी फुरसत नहीं है।
हमें इस बात पर गंभीरता से चिन्तन करना चाहिए कि हमारे जन-प्रतिनिधि किस तरह से लोकतंत्र को मजबूती दें, राजनीति में व्याप्त अपराध एवं भ्रष्टाचार की सफाई की जाये। क्योंकि आज व्यक्ति बौना हो रहा है, परछाइयां बड़ी हो रही हैं। अन्धेरों से तो हम अवश्य निकल जाएंगे क्योंकि अंधेरों के बाद प्रकाश आता है। पर व्यवस्थाओं का और राष्ट्र संचालन में जो अन्धापन है वह निश्चित ही गढ्ढे मंे गिराने की ओर अग्रसर है। अब हमें गढ्ढे में नहीं गिरना है, एक सशक्त लोकतंत्र का निर्माण करना है। केवल लालू को ही राजनीतिक वनवास न मिले, बल्कि सभी आपराधिक छवि के राजनेताओं को भारतीय राजनीति से वनवास मिलना चाहिए। किसी भी राजनेता को उसके अपराधों के लिये सुनाई जाने वाली सजा को राजनीति लाभ का हथियार न बनाकर उसे एक प्रेरणा का दीप बनाना चाहिए, जो लोकतंत्र को शुद्ध कर सके, आलोकित कर सके।
(ललित गर्ग)
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