दीपावली भारत की संस्कृति का प्रमुख त्यौहार हैं। हर घर, हर आंगन, हर बस्ती, हर गाँव में सबकुछ रोशनी से जगमगा जाया करता है। आदमी मिट्टी के दीए में स्नेह की बाती और परोपकार का तेल डालकर उसे जलाते हुए भारतीय संस्कृति को गौरव और सम्मान देता है, क्योंकि दीया भले मिट्टी का हो मगर वह हमारे जीने का आदर्श है, हमारे जीवन की दिशा है, संस्कारों की सीख है, संकल्प की प्रेरणा है और लक्ष्य तक पहुँचने का माध्यम है। दीपावली मनाने की सार्थकता तभी है जब भीतर का अंधकार दूर हो।
भगवान महावीर ने दीपावली को ही निर्वाण प्राप्त किया। उनका इस रात जो उपदेश दिया उसे हम प्रकाश पर्व का श्रेष्ठ संदेश मान सकते हैं। भगवान महावीर की यह शिक्षा मानव मात्र के आंतरिक जगत को आलोकित करने वाली है। तथागत बुद्ध की अमृत वाणी ‘अप्पदीवो भव’ अर्थात ‘आत्मा के लिए दीपक बन’ वह भी इसी भावना को पुष्ट कर रही है। इतिहासकार कहते हैं कि जिस दिन ज्ञान की ज्योति लेकर नचिकेता यमलोक से मृत्युलोक में अवतरित हुए वह दिन भी दीपावली का ही दिन था। धर्मग्रंथों के अनुसार कार्तिक अमावस्या को भगवान श्री रामचंद्रजी चैदह वर्ष का वनवास काटकर तथा असुरी वृत्तियों के प्रतीक रावण का संहार करके अयोध्या लौटे थे। तब अयोध्यावासियों ने श्रीराम के राज्यारोहण पर दीपमालाएं जलाकर महोत्सव मनाया था। इसीलिए दीपावली हिंदुओं के प्रमुख त्योहारों में से एक है। यह पर्व अलग-अलग नाम और विधानों से पूरी दुनिया में मनाया जाता है। इसका एक कारण यह भी है कि इसी दिन अनेक विजयश्री युक्त कार्य हुए हैं। बहुत से शुभ कार्यों का प्रारम्भ भी इसी दिन से माना गया है। इसी दिन उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राजतिलक हुआ था। विक्रम संवत का आरम्भ भी इसी दिन से माना जाता है। अतः यह नए वर्ष का प्रथम दिन भी है। आज ही के दिन व्यापारी अपने बही-खाते बदलते हैं तथा लाभ-हानि का ब्यौरा तैयार करते हैं।
दीपावली पांच पर्वों का अनूठा त्योहार है। इसमें धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीया आदि मनाए जाते हैं। घर के बड़े-बुजुर्ग घरों की साफ-सफाई करते हैं, घरों में सफेदी कराते हैं। घरों को सजाते हैं, नये साल का कलैंडर लगाते हैं। बच्चे घरों को सजाने में रुचि लेते हैं, साथ ही दीपावली के दिन से पहले ही पटाखे फोड़ना शुरू कर देते हैं। लोग आपस में मिठाइयां बांटते हैं। बाजार नये-नये सामानों से सज जाते हैं। बाजारों में रोनक तो देखते ही बनती है। लोग इस दिन का बेसब्री से इंतजार करते हैं। दीपावली की रात्रि को महानिशीथ के नाम से जाना जाता है। इस रात्रि में कई प्रकार के तंत्र-मंत्र से महालक्ष्मी की पूजा-अर्चना कर पूरे साल के लिए सुख-समृद्धि और धन लाभ की कामना की जाती है। यद्यपि लोक मानस में दीपावली एक धार्मिक एवं सांस्कृतिक पर्व के रूप में अपनी व्यापकता सिद्ध कर चुका है। फिर भी यह तो मानना ही होगा कि जिन ऐतिहासिक महापुरुषों के घटना प्रसंगों से इस पर्व की महत्ता जुड़ी है, वे अध्यात्म जगत के शिखर पुरुष थे। इस दृष्टि से दीपावली पर्व लौकिकता के साथ-साथ आध्यात्मिकता का अनूठा पर्व है।
वास्तव में धनतेरस, नरक चतुर्दशी (जिसे छोटी दीवाली भी कहा जाता है) तथा महालक्ष्मी पूजन- इन तीनों पर्वों का मिश्रण है दीपावली। भारतीय पद्धति के अनुसार प्रत्येक आराधना, उपासना व अर्चना में आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक इन तीनों रूपों का समन्वित व्यवहार होता है। इस मान्यतानुसार इस उत्सव में भी सोने, चांदी, सिक्के आदि के रूप में आधिभौतिक लक्ष्मी का आधिदैविक लक्ष्मी से संबंध स्वीकार करके पूजन किया जाता हैं। घरों को दीपमाला आदि से अलंकृत करना इत्यादि कार्य लक्ष्मी के आध्यात्मिक स्वरूप की शोभा को आविर्भूत करने के लिए किए जाते हैं। इस तरह इस उत्सव में उपरोक्त तीनों प्रकार से लक्ष्मी की उपासना हो जाती है। जब हम ध्यान करते हैं हम सार्वभौमिक आत्मा को अपनी प्रचुरता के लिए धन्यवाद देते हैं। हम और ज्यादा के लिए भी प्रार्थना करतें हैं ताकि हम और ज्यादा सेवा कर सकें। सोना चांदी केवल एक बाहिरी प्रतीक है। दौलत हमारे भीतर है। भीतर में बहुत सारा प्रेम, शांति और आनंद है। इससे ज्यादा दौलत आपको और क्या चाहिए? ज्ञान ही वास्तविक धन है। आप का चरित्र, आपकी शांति और आत्म विश्वास आपकी वास्तविक दौलत है। जब आप ईश्वर के साथ जुड़ कर आगे बढ़ते हो तो इससे बढ़कर कोई और दौलत नहीं है। यह शाही विचार तभी आता है जब आप ईश्वर और अनंतता के साथ जुड़ जाते हो। जब लहर यह याद रखती है कि वह समुद्र के साथ जुड़ी हुई है और समुद्र का हिस्सा है तो विशाल शक्ति मिलती है।
दीपावली के साथ सेवा का भाव भी जुड़ा है, कोई भी उत्सव सेवा भावना के बिना अधूरा है। ईश्वर से हमें जो भी मिला है, वह हमें दूसरों के साथ भी बांटना चाहिए क्योंकि जो बाँटना है, वह हमें भी तो कहीं से मिला ही है, और यही सच्चा उत्सव है। आनंद एवं ज्ञान को फैलाना ही चाहिए और ये तभी हो सकता है, जब लोग ज्ञान में साथ आएँ एवं ज्ञान को बांटे। दिवाली का अर्थ है वर्तमान क्षण में रहना, अतः भूतकाल के पश्चाताप और भविष्य की चिंताओं को छोड़ कर इस वर्तमान क्षण में रहें। यही समय है कि हम साल भर की आपसी कलह और नकारात्मकताओं को भूल जाएँ। यही समय है कि जो ज्ञान हमने प्राप्त किया है उस पर प्रकाश डाला जाए और एक नई शुरुआत की जाए। जब सच्चे ज्ञान का उदय होता है, तो उत्सव को और भी बल मिलता है।
दीपावली आत्मा को मांजने एवं उसे उजला करने का उत्सव है। आत्मा का स्वभाव है उत्सव। प्राचीन काल में सधु-संत हर उत्सव में पवित्रता का समावेश कर देते थे ताकि विभिन्न क्रिया-कलापों की भाग-दौड़ में हम अपनी एकाग्रता या फोकस न खो दें। रीति-रिवाज एवं धार्मिक अनुष्ठान (पूजा-पाठ) ईश्वर के प्रति कृतज्ञता या आभार का प्रतीक ही तो हैं। ये हमारे उत्सव में गहराई लाते हैं। दीपावली में परंपरा है कि हमने जितनी भी धन-संपदा कमाई है उसे अपने सामने रख कर प्रचुरता (तृप्ति) का अनुभव करें। जब हम अभाव का अनुभव करते हैं तो अभाव बढ़ता है, परन्तु जब हम अपना ध्यान प्रचुरता पर रखते हैं तो प्रचुरता बढ़ती है। चाणक्य ने अर्थशास्त्र में कहा है, धर्मस्य मूलं अर्थः अर्थात सम्पन्नता धर्म का आधार होती है। जिन लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है, उनके लिए दीपावली वर्ष में केवल एक बार आती है, परन्तु ज्ञानियों के लिए हर दिन और हर क्षण दीपावली है। हर जगह ज्ञान की आवश्यकता होती है। यहाँ तक कि यदि हमारे परिवार का एक भी सदस्य दुःख के तिमिर में डूबा हो तो हम प्रसन्न नहीं रह सकते। हमें अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य के जीवन में, और फिर इसके आगे समाज के हर सदस्य के जीवन में, और फिर इस पृथ्वी के हर व्यक्ति के जीवन में, ज्ञान का प्रकाश फैलाने की आवश्यकता है। जब सच्चे ज्ञान का उदय होता है, तो उत्सव को और भी बल मिलता है।
यजुर्वेद में कहा गया है-तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु – हमारे इस मन से सद इच्छा प्रकट हो। यह दीपावली ज्ञान के साथ मनाएँ और मानवता की सेवा करने का संकल्प लें। अपने हृदय में प्रेम का एवं घर में प्रचुरता-तृप्ति का दीपक जलाएं। इसी प्रकार दूसरों की सेवा के लिए करुणा का एवं अज्ञानता को दूर करने के लिए ज्ञान का और ईश्वर द्वारा हमें प्रदत्त उस प्रचुरता के लिए कृतज्ञता का दीपक जलाएं।
यह बात सच है कि मनुष्य का रूझान हमेशा प्रकाश की ओर रहा है। अंधकार को उसने कभी न चाहा न कभी माँगा। ‘तमसो मा ज्योतिगर्मय’ भक्त की अंतर भावना अथवा प्रार्थना का यह स्वर भी इसका पुष्ट प्रमाण है। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल इस प्रशस्त कामना की पूर्णता हेतु मनुष्य ने खोज शुरू की। उसने सोचा कि वह कौन-सा दीप है जो मंजिल तक जाने वाले पथ को आलोकित कर सकता है। अंधकार से घिरा हुआ आदमी दिशाहीन होकर चाहे जितनी गति करें, सार्थक नहीं हुआ करती। आचरण से पहले ज्ञान को, चारित्र पालन से पूर्व सम्यक्त्व को आवश्यक माना है। ज्ञान जीवन में प्रकाश करने वाला होता है। शास्त्र में भी कहा गया-‘नाणं पयासयरं’ अर्थात ज्ञान प्रकाशकर है।
हमारे भीतर अज्ञान का तमस छाया हुआ है। वह ज्ञान के प्रकाश से ही मिट सकता है। ज्ञान दुनिया का सबसे बड़ा प्रकाश दीप है। जब ज्ञान का दीप जलता है तब भीतर और बाहर दोनों आलोकित हो जाते हैं। अंधकार का साम्राज्य स्वतः समाप्त हो जाता है। ज्ञान के प्रकाश की आवश्यकता केवल भीतर के अंधकार मोह-मूच्र्छा को मिटाने के लिए ही नहीं, अपितु लोभ और आसक्ति के परिणामस्वरूप खड़ी हुई पर्यावरण प्रदूषण और अनैतिकता जैसी बाहरी समस्याओं को सुलझाने के लिए भी जरूरी है।
इस पर्व के साथ जुड़े मर्यादा पुरुषोत्तम राम, भगवान महावीर और दयानंद सरस्वती आदि महापुरुषों की आज्ञा का पालन करके ही दीपावली पर्व का वास्तविक लाभ और लुफ्त उठा सकते हैं। संसार का प्रत्येक मनुष्य उनके अखंड ज्योति प्रकट करने वाले संदेश को अपने भीतर स्थापित करने का प्रयास करें, तो संपूर्ण विश्व में शांति और मैत्री की स्थापना करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती है तथा सर्वत्र खुशहाली देखी जा सकती है और वैयक्तिक जीवन को प्रसन्नता और आनंद के साथ बीताया जा सकता है।
दीपावली के दिन धन कुबेरों के भव्य भवन पंच सितारा होटलों की तरह बिजली के रंग-बिरंगे प्रकाश में नहाएँगे, वहीं गरीब की झोंपड़ी में भी एक नन्हा-सा माटी का दीया टिमटिमाएगा। उल्लास, उमंग और हर्ष के इन क्षणों में हरएक का दिल कमल की भाँति खिलेगा। अज्ञान के अंधकार से ब्रह्म के प्रकाश की सूझ ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की सूझ है। उपनिषद का यह आदर्श वाक्य आज के युग में भी अपनी सार्थकता और प्रासंगिकता अक्षुण्ण बनाए हुए है। आज विज्ञान का युग है। सारी मानवता विनाश के कगार पर खड़ी है। मनुष्य के सामने अस्तित्व और अनस्तित्व का प्रश्न बना हुआ है। विश्वभर मे हत्या, लूटपाट, दिखावा, छल-फरेब, बेईमानी का प्रसार है। मानव-जाति अंधकार में गिरती जा रही है। विवेकी विद्वान उसे बचाने के प्रयास में लगे भी हैं। सत्य, दया, क्षमा, कृपा, परोपकार आदि के भावों का मूल्य पहचाना जा रहा है। ऐसी स्थिति में उपनिषद का ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ वाक्य उनका मार्गदर्शन करने वाला महावाक्य है। उस ज्योति की गंभीरता सामान्य ज्योति से बढ़कर ब्रह्म तक पहुँचनी चाहिए। उस ब्रह्म से ही सारे प्राणी पैदा होते हैं, उसमें ही रहते हैं और मरने के बाद उसमें ही प्रवेश कर जाते हैं। उस दिव्य जयोति की अभिवंदना सचमुच समय से पहले, समय के साथ जीने की तैयारी का दूसरा नाम है।
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(ललित गर्ग)
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