रेडियो के शुरुआती दौर में भाषा में उर्दू शब्दों की भरमार रहती थी । फारसी थेयटर का असर था कि नाटकों में शहजादा राम और बेगम सीता ‘जलवा अफरोज़’ हुआ करते थे । ……..ये एक ऐसी भाषा थी जिसको लेकर हिन्दी प्रेमियों के मन में गहरा असंतोष था । पंडित श्री नारायण चतुर्वेदी , डा रामविलास शर्मा , रूप नारायण पांडे, अमृत लाला नगर , यशपाल जैसे तमाम हिन्दी प्रेमियों की राय थी कि हिन्दी का कोई कार्यक्रम प्रसारित होना चाहिए।
इसके लिए रेडियो में कॉपिस्ट के पद पर काम कर रहे कवि बलभद्र दीक्षित ‘पढ़ीस’ जी को ज़िम्मेदारी दी गई । पढ़ीस जी ने सोचा किसी बड़े कवि से कार्यक्रम की शुरुआत की जाए उस समय निराला जी उरुज पर थे उन्होने उनसे इसके लिए कहा तो निराला जी ने शुद्ध बैसवारी में कहा कि ‘’ सरउ हुआ सहजादा राम और बेगम सीता जलवा अफ़रोज होती हैं । औउर हमका तुम क़हत हो उहाँ कविता पाठ करो । को सार सुनी हुंवा हमार कविता ?
पढ़ीस जी ने किसी तरह समझाया ‘पंडित जी लाखो रेडियो सुनने वाले लोग आपकी कविता सुनेगे ।‘ बहरहाल निराला जी राजी हो गए ।
उन दिनो रेडियो में एक उद्घोषक थे अयाज़ साहब जिनका काफी बोलबाला था। उन्हे लगा ये बहुत महत्वपूर्ण कार्यक्रम है इसकी अनाउन्समेंट उन्हें ही करना चाहिए । ख़ैर निराला जी स्टुडियो ले जाए गए ड्यूटी ऑफिसर ड्यूटी रूम में कान लगाकर बैठ गया ।
रेडियो पर उद्घोषणा हुई ‘ अभी आप फलां पिरोग्राम सुन रहे थे अब होगा ‘कबीता पाठ’ कबी हैं ‘पंडत सूर्य कांता त्रिपाठा निराली ।’ इसके बाद निराला जी कि आवाज़ आनी चाहिए थी । लेकिन रेडियो पर जो आवाज़ें आयीं उससे लगा रेडियो में कोई खराबी हो गई है । उसने रेडियो ठोका पीटा , रेडियो तो ठीक था वह स्टुडियो की तरफ भागा ।
स्टुडियो के मोखे से झंकार देखा कि अयाज़ साहब की गर्दन निराला जी कि फौलाद जैसी बांह में फंसी हुई है । उनके मुहं की घुटी -घुटी आवाजें ही रेडियो पर सुनाई दे रही थी । उसने घबरा कर फोन किया कि फिलर बजाइए । इस बीच हँगामा मच गया लोग आकर देखते हैं कि अयाज़ साहेब महाकवि की एक बांह में ऐसे दबे हैं जैसे बिल्ली के पंजे में चूहा । किसी तरह पढ़ीस जी आए तब अयाज़ साहेब छूट सके ।
असल में इस मामले में अयाज़ साहेब का बहुत दोष नहीं था । उद्घोषणाएं रोमन में लिखी जाती थीं जिससे सूर्य का सूर्या , कान्त का कांता और महाकवि की तेज़ चल रही गरम साँसों की ताब न ला सकने के कारण त्रिपाठी का त्रिपाठा और निराला का निराली होते ही अयाज़ साहेब दबोच लिए गए ।
इसके बाद निराला जी लाख समझाने पर भी कवि पाठ को राज़ी नहीं हुये । पढ़ीस जी ने कहा स्टेशन डाइरेक्टर से तो मिल लीजिये आपकी प्रतीक्षा में बैठे हैं । ‘‘उनके पास लइ चलिहो तो उनहूं का हम मारब” निराला जी ने कहा और चले गए ।
( ‘अकार’ पत्रिका से नवनीत मिश्र जी के रोचक लंबे किस्से का संपादित अंश आपके लिए यहाँ लिखा )