पाकिस्तान में इतिहास फिर से खुद को दोहरा रहा है। पाकिस्तान में फिर से हूबहू वहीं हालात पैदा हो गये जैसे आज से लगभग 50 साल पहले थे। जब नस्ल और भाषा के नाम पर पूर्वी पाकिस्तान/बंगालियों की आवाज को दबाया गया था। सत्ता से उनको दूर रखा गया.. भाषा और नस्ल के आधार पर उनको दोयम दर्जें का नागरिक माना गया। जिसका नतीज़ा ये हुआ कि 1971 में शेख मुज़ीबुर्रहमान की रहनुमाई में बांग्लादेश पाकिस्तान से टूटकर एक अलग आजाद मुल्क बन गया। इतना सब होने के बावजूद भी पाकिस्तान के पंजाबी हुक्मरानों और आर्मी अफसरों की आदत नहीं बदली। नतीजा ये हुआ कि पाकिस्तान के अंदर पंजाबी सत्ता के खिलाफ एक और बांग्लादेश तैयार हो रहा है। जिसको खड़ा किया है…पाकिस्तान के पश्तूनों ने। बस नाम बदला है…बंगालियों की जगह पश्तून खड़े हैं, मुक्तिबाहिनी की जगह पीटीएम यानि पश्तून तहफुज़ मूवमेंट और मुजीबुर्रहमान की जगह है मंजूर पश्तीन।
कौन हैं पश्तून?
पश्तून, दरअसल अफगान और पठानों की कौम है, जो मूलत: पश्तो भाषा बोलते हैं और पाकिस्तान के नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर इलाके से लेकर बलूचिस्तान और साउथ अफगानिस्तान में फैले हुए हैं। 2008 के आंकड़ों के मुताबिक पाकिस्तान में करीब 15.42 फीसदी पश्तून रहते हैं, जोकि करीब 3 करोड़ के आसपास हैं। जबकि अफगानिस्तान में पश्तून की जनसंख्या 1.4 करोड़ के आसपास है।
“ये जो दहशतगर्दी है..इसके पीछे वर्दी है”
“दा संगा आजादी दा…”
पाकिस्तान के हरेक इलाके, हर शहर में में ये नारे गूंज रहे हैं। 5 फरवरी को पीटीएम यानि पश्तून तहफुज़ मूवमेंट ने पाकिस्तान के 24 शहरों में लाखों की संख्या में प्रदर्शन किया है। यहां तक कि पीटीएम ने जर्मनी, जापान, स्वीडन, अमेरिका और ब्रिटेन समेत दर्जनों देशों में पाकिस्तान की सरकार धरने दिये गये। लेकिन आर्मी के आदेश पर पूरे पाकिस्तानी मीडिया में इन खबरों में ब्लैक आउट किया गया है। यहां तक कि डिज़िटल मीडिया में भी इन प्रदर्शनों पर पाबंदी है। लेकिन करीब 1 साल पहले शुरू हुआ ये आंदोलन पूरी दुनिया के पश्तूनों और अफगानों के बीच फैल चुका है।
कराची में पीटीएम का प्रदर्शन
काबुल में भी हुआ पीटीएम समर्थन में प्रदर्शन
चमन शहर में पीटीएम का आंदोलन
क्यों और कैसे शुरू हुआ ये आंदोलन?
दरअसल 1947 में आजादी के बाद से ही पाकिस्तान की सत्ता में पंजाबी और लॉबी का कब्ज़ा रहा है। आर्मी हो या राजनीतिक ताकतें, या फिर बड़ी बिजनेस इंडस्ट्रीज़ हर जगह पंजाबी लॉबी का कब्जा है। इसके बाद उर्दू स्पीकिंग लॉबी भी पाकिस्तान में धीरे-धीरे मजबूत होते गये। लेकिन पाकिस्तान के ऑरीजिनल तबके पश्तूनों को हमेशा दोयम दर्जें का समझा गया। नौकरियों, राजनीति, आर्मी में पश्तूनों की भागीदारी न के बराबर है। जिसके चलते सालों साल से एक दर्द और गुस्से का गुबार जमा होता रहा। जो फूटा 2014 में। जब पाकिस्तानी आर्मी ने अफगानिस्तान बॉर्डर से सटे इलाकों में ऑपरेशन ज़र्ब-ए-अज़्ब शुरू किया। जिसमें पाकिस्तान ने दावा किया वो वो अपनी सीमा में बसे तालिबान को खत्म करना चाहती है। इस ऑपरेशन की जद में तहरीके-तालिबान-पाकिस्तान, लश्कर-ए-झांगवी और हक्कानी नेटवर्क के सफाये की बात कही गयी। लेकिन हुआ ये कि पाकिस्तानी आर्मी ने इन इलाकों में बसे करीब 50 लाख पश्तूनों को उज़ाड़ दिया। आतंकवाद के सफाये के बहाने हज़ारों पश्तूनों का कत्लेआम हुआ। बस्तिय़ां तबाह कर दी गयी। पश्तूनों पर आर्मी के जुल्मों के खिलाफ आंदोलन यहीं से शुरू हुआ।
2014 में डेरा इस्माइल खां में गोमल यूनिवर्सिटी के कुछ स्टूडेंट्स ने एक तहरीक शुरू की। महसूद तहफुज मूवमेंट जिसका शुरूआती मकसद था, महसूद इलाके में पाकिस्तान आर्मी द्वारा बिछायी गयी लैंडमाइंस को हटाने का। सालों तक ये स्टूडेंट्स पश्तूनों के लिए आंदोलन करते रहे। जनवरी 2018 में इनमें से एक स्टूडेंट नकीबुल्लाह महसूद को आर्मी की शह पर पुलिस ने एक फर्जी एनकाउंटर में मार डाला। दावा किया गया कि नकीबुल्ला के संबंध तालिबान से था। लेकिन नकीबुल्ला के हत्या के बाद पश्तूनों के गुस्से का ज्वालामुखी फूट पड़ा और देश भर में पाकिस्तान सरकार और आर्मी के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गये। महसूद तहफुज मूवमेंट का नाम बदलकर पश्तून तहफुज मूवमेंट रख दिया गया।
नकीबुल्लाह मॉडलिंग में करियर बनाना चाहता था
इसके बाद 10 फरवरी को तत्कालीन पीएम शाहिद अब्बासी के कहने पर एडवाइज़र आमिर मुकाम ने आंदोलनकारी पश्तूनों को नकीबुल्लाह की हत्या के लिए जिम्मेदार आईएसआई और पुलिस अफसरों पर कार्रवाई का भरोसा दिया। आंदोलन कुछ दिनों के लिए ठंडा पड़ा, लेकिन ठीक वायदे के उलट आईएसआई और आर्मी ने उन आंदोलनकारियों को उठाना और एनकाउंटर करना शुरू कर दिया। जिन्होंने पीटीएम आंदोलन के खास कार्यकर्ता थे। इनमें पीटीएम के नेता मंजूर पश्तीन भी थे। लेकिन सोशल मीडिया पर खड़े आंदोलन के चलते पाकिस्तानी आर्मी ने मंजूर पश्तीन को छोड़ दिया गया।
नकीबुल्लाह के लिए न्याय से लेकर पश्तूनों की आजादी तक
2018 में पाकिस्तानी आर्मी और आईएसआई ने आंदोलन को दबाने के लिए दर्जनों पीटीएम कार्यकर्ताओं को फर्जी एनकाउंटर में मार डाला। सैंकड़ों लापता हो गये..धीरे-धीरे पश्तून तहफुज मूवमेंट की मांगें जिम्मेदार हत्यारें अफसरों से बढ़कर पश्तूनों के असली हकूक की मांग में तब्दील हो गयीं। हालात इस मोड़ पर आ चुके हैं कि पीटीएम लीडर मंजूर पश्तीन ने पाकिस्तानी सरकार में विश्वास न होने की घोषणा कर दी है और अब वो सीधे यूनाइटेड नेशनंस से पश्तूनों के हक दिलाने की मांग कर रहे हैं। अंदरखाने में पश्तूनों में अलग स्टेट की मांग उठने लगी है। जिसको दबाने की कोशिश में पश्तून आंदोलनकारियों पर दिन-ब-दिन अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं।
जिस कड़ी में आईएसआई ने एक और पीटीएम लीडर अरमान लोनी की कस्टडी में हत्या कर दी। जिसके बाद पाकिस्तान के 24 शहरों समेत दुनियाभर में लाखों पश्तूनों और अफगानों ने पाकिस्तान के खिलाफ प्रदर्शन किया।
क्या है पश्तून आंदोलन का भविष्य
पाकिस्तान बलूचिस्तान में पहले ही अपनी कब्र खोद चुका है। अलग देश की मांग के साथ बलूचों का आंदोलन दिन-ब-दिन बड़ी होता जा रहा है। ऐसे में पिछले एक साल में पाकिस्तानी सरकार ने जिस तरीके पश्तून तहफुज़ मूवमेंट की जायज मांगों को भी नकारते हुए उसको दबाने की कोशिश की है। जानकारों को एक बार फिर बांग्लादेश का आंदोलन दुहराता हुआ दिखायी दे रहा है। जिसकी अंतिम परिणति पाकिस्तान में एक और देश के निर्माण के रूप में हो सकती है। पाकिस्तान के लिए अभी गनीमत ये है कि अभी तक पश्तून तहफुज़ मूवमेंट पूरी तरह से अहिंसक आंदोलन के रास्ते पर चल रहा है। साथ किसी भी देश या अंतरराष्ट्रीय संगठन ने पश्तूनों के हकों को लेकर पाकिस्तान को अभी कठघरें में खड़ा नहीं किया है।
साभार : www.jammukashmirnow.com