वेद-मन्त्रों को लेकर यह आक्षेप प्रायः पौराणिकों एवं मुल्लों द्वारा किया जाता है कि किसी भी वेद-मन्त्र के शुरुआत में ‘ओ३म्’ नहीं लगा होता है, इस कारण सभी मन्त्र अधूरे हैं।
उत्तर- ‘ओ३म्’ ईश्वर का निज नाम है। कुरान के आरम्भ में “बिस्मिल्लाहुर्रहमाने रहीम” लिखा होता है जिसका अर्थ है ‘शुरू करता हूं मैं अल्लाह के नाम से’। यहां कुरान का अल्लाह तो स्वयं को उपदेश दे रहा है कि “शुरू करता हूं मैं (अल्लाह) अल्लाह के नाम से”- क्या अल्लाह, अल्लाह को ही उपदेश दे रहा है? या फिर अल्लाह भी भिन्न प्रकार है, “छोटा अल्लाह/ मीडियम अल्लाह/ बड़ा अल्लाह” अथवा क्या अल्लाह गंवार है जो बड़ा अल्लाह, छोटे अल्लाह को उपदेश दे रहा है आदि अथवा अल्लाह अल्पज्ञ है।
आरम्भ में स्वयं का ही नाम लगाने का अर्थ स्वयं को ही उपदेश देना अथवा स्वयं से ही कुछ कहना होता है। उदाहरण- मान लीजिए किसी बच्चे से खेल-खेल में कोई गलती हो गयी हो तब वह अपना नाम लेता हुआ बोलता है ‘… आज तो तू गया, तेरी खैर नहीं’ आदि! इससे स्पष्ट है कि शुरुआत में स्वयं का नाम लगाने का अर्थ स्वयं से ही कुछ कहना है।
वेद में किसी भी मन्त्र के शुरुआत में ‘ओ३म्’ नहीं लगा है क्योंकि वेद समस्त मानव जाति के कल्याण हेतु ईश्वरीय वाणी है जो हमें अल्पज्ञता से मुक्त कराती है। ईश्वर अपने ही उपदेश के आरम्भ में अपना नाम क्यों लगाएगा? वह स्वयं को उपदेश थोड़े ही देगा। ईश्वर सर्वज्ञ है, उसे किसी उपदेश/ग्रन्थादि की आवश्यकता नहीं है, जबकि जीव अल्पज्ञ है। इसलिए सृष्टि आदि में ईश्वर ने समस्त मानव जाति के कल्याण हेतु वेदवाणी की। अब यहां पर यह संशय उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि जब वेद में ‘ॐ’ नहीं लगा, तो फिर हम क्यों लगाते हैं?
समाधान- वेद के पवित्र मन्त्रों में हम “ओ३म्” ईश्वर के स्मरण हेतु लगाते हैं। वेद में उपदेश है “ओ३म् क्रतो स्मर” अर्थात् ‘हे कर्मशील जीव! तू ओ३म् का स्मरण कर’। ओ३म् का स्मरण से तात्पर्य है कि हम ईश्वर के निज नाम ‘ओ३म्’ का स्मरण करते रहें, ना कि ईश्वर स्वयं करे। “ओ३म् प्रतिष्ठ” अर्थात् ‘तू ओ३म् में प्रतिष्ठित हो जा अथवा ओ३म् (परमात्मा) को अपने हृदय-मन्दिर में बैठा ले।’ किसी भी शुभ/नित्य/पवित्रादि कार्य करने से पूर्व ईश्वर (ओ३म्) का स्मरण अवश्य करना चाहिए।
वेद-मन्त्रों में ओ३म् लगाने के सम्बन्ध में महर्षि मनु लिखते हैं-
ब्रह्मन: प्रणवं कुर्यादादावन्ते च सर्वदा।
स्रवत्यर्नोकृतं पूर्वं परस्ताच्च विशीर्यति।। (मनु० २/७४)
अर्थात् “पाठ के आरम्भ और अन्त में प्रणव (ओंकार) कहें। यदि न कहें, तो पढ़ा हुआ विस्मृत (भूल) हो जाता है।”
‘ओ३म्’ का उच्चारण करने से यहां भगवान मनु का अभिप्राय ओंकारोच्चारणपूर्वक मन को एकाग्र या समाहित करने से है।
स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।
महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः।। (मनु०२/२८)
अर्थात् वेद पढ़ना, व्रत, हवन, नैविध, नाग व्रत, देवर्षि, पितरों का तर्पण, पुत्रोत्पत्ति, महायज्ञ, वज्र इन सब कर्मों से शरीर मोक्ष पाने के योग्य होता है।
दर्शन-शास्त्रों में ऋषियों का कथन है-
न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्याभावात्।। (सांख्य ५/४६)
अर्थात् “वेद पौरुषेय-पुरुषकृत नहीं हैं, क्योंकि उनका रचयिता कोई पुरुष नहीं है।” जीव अल्पज्ञ और अल्पशक्ति होने से समस्त विद्याओं के भण्डार वेद की रचना में असमर्थ है। वेद मनुष्य की रचना न होने से उनका अपौरुषेयत्व सिद्ध ही है।
स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्। (योग० १/२६)
अर्थात् “वह ईश्वर नित्य वेद-ज्ञान को देने के कारण सब पूर्वजों का भी गुरु है।” अन्य गुरु काल के मुख में चले जाते हैं, परन्तु वह काल के बन्धन से रहित है।
वेद के सम्बन्ध में महर्षि व्यास लिखते हैं-
अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा।
आदौ वेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रवृत्तयः।। (महा० शान्ति० २३२/२४)
अर्थात् “सृष्टि के आरम्भ में स्वयम्भू परमेश्वर ने वेदरुप नित्य दिव्यवाणी का प्रकाश किया, जिससे मनुष्यों की प्रवृत्तियाँ होती हैं।”
शंका- जब ईश्वर सर्वज्ञ है, उसने वेदमन्त्रों के आरम्भ में अपना नाम नहीं कहा तो फिर बीच में लिखने की क्या आवश्यकता आ पड़ी?
समाधान- ईश्वर सर्वज्ञ है किन्तु जीव अल्पज्ञ है। शुरुआत में अपना नाम बोलने का अर्थ स्वयं से कुछ कहना है, जैसा कि ऊपर स्पष्ट है। ईश्वर ने मन्त्रों के मध्य ‘ओ३म्’ इसलिए कहा ताकि मनुष्य ईश्वर के मुख्य नाम से परिचित हो सके। उसे यह ज्ञात हो कि सृष्टिनिर्माण में किसी का योगदान है अन्यथा वह तो यह मान लेगा कि हमें बनाने वाला कोई नहीं अपितु हम स्वतः ही बन गए और यह सृष्टि नियम एवं विज्ञान के विरुद्ध है।
कोई कार्य अपने से हो ही नहीं सकता। उदाहरण- आप रसोईघर में चाय बनाने के लिए जाइये। वहां आप कुछ मत कीजिए, तो क्या चाय अपने आप बन सकती है? नहीं।
विचार कीजिए, एक छोटा-सा कार्य (चाय बनाना) स्वतः हो ही नहीं सका, तो क्या इतनी बड़ी पृथ्वी स्वयं बन सकती है? इसलिए ईश्वर ने वेद में अपना मुख्य नाम बताया ताकि मनुष्य उसी एक परमेश्वर ‘ओ३म्’ की उपासना कर सके।
महर्षि दयानंद सत्यार्थप्रकाश के प्रथम समुल्लास में लिखते हैं- ओ३म् जिसका नाम है और जो कभी नष्ट नहीं होता, उसी की उपासना करनी योग्य है, अन्य की नहीं।
वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद एवं वेद-मन्त्रों पर इस तरह के बचकाने आक्षेप लगाना मूर्खता का लक्षण है।
साभार- https://www.facebook.com/AryaSamajMandirSitamaniKorba/ से