Monday, November 25, 2024
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जनजातीय जीवन की उम्मीद है अर्जुन मुंडा

नरेन्द्र मोदी सरकार के कद्दावर मंत्रियों की बात होती है तो एक नाम है अर्जुन मुंडा का। उन्होंने राजनीतिक जिजीविषा एवं प्रशासनिक कौशल का परिचय देते हुए अलग-अलग कालखंड में तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली और अब वे केन्द्रीय जनजातीय मामलों के मंत्री है। उन पर आदिवासी एवं अन्य जनजातियों के उत्थान और उन्नयन का भरोसा किया जा सकता है। वे आदिवासी एवं जनजातीय जनजीवन के होकर भी राष्ट्रीय जननेता हंै, और राष्ट्रीय जननेता होकर भी आदिवासी जनजीवन के विकासपुरुष हैं।

अर्जुन मुंडा टेढ़े-मेढ़े, उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए, संकरी-पतली पगडंडियों पर चलकर सेवा की राजनीतिक भावना से भावित जब उन गरीब आदिवासी बस्तियों तक पहुंचते हैं तब उन्हें पता चलता है कि गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने के मायने क्या-क्या हैं? कहीं भूख मिटाने के लिए दो जून की रोटी जुटाना सपना है, तो कहीं सर्दी, गर्मी और बरसात में सिर छुपाने के लिए झौपड़ी की जगह केवल नीली छतरी (आकाश) का घर उनका अपना है। कहीं दो औरतों के बीच बंटी हुई एक ही साड़ी से बारी-बारी तन ढ़क कर औरत अपनी लाज बचाती है तो कहीं बीमारी की हालत में इलाज न होने पर जिंदगी मौत की ओर सरकती जाती है। कहीं जवान विधवा के पास दो बच्चों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी तो है पर कमाई का साधन न होने से जिल्लत की जिंदगी जीने को मजबूर होती है, तो कहीं सिर पर मर्द का साया होते हुए भी शराब व दुव्र्यसनों के शिकारी पति से बेवजह पीटी जाती हैं इसलिए परिवार के भरण-पोषण के लिए मजबूरन सरकार के कानून को नजरंदाज करते हुए बाल श्रमिकों की संख्या चोरी छिपे बढ़ती ही जा रही है। इन बिखरे सपनों एवं टूटी जिन्दगियांें के लिये मुंडा एक उम्मीद बने हैं।

अर्जुन मुंडा का राजनीतिक जीवन संघर्षों से घिरा रहा हैं। वे स्वयं संघर्षरत रहे तो उनका सामना संघर्षरत लोगों से ही हुआ। कहीं कंठों में प्यास थी पर पीने के लिए पानी नहीं, कहीं उपजाऊ खेत थे पर बोने के लिए बीज नहीं, कहीं बच्चों में शिक्षा पाने की ललक थी पर माँ-बाप के पास फीस के पैसे नहीं, कहीं प्रतिभा थी पर उसके पनपने के लिए प्लेटफाॅर्म नहीं। कैसी विडंबना थी कि ऐसे आदिवासी एवं जनजातीय गांवों में न सरकारी सहायता पहुंच पाती थी न मानवीय संवेदना। अक्सर गांवों में बच्चे दुर्घटनाओं के शिकार होते ही रहते पर उनका जीना और मरना राम भरोसे रहता था, पुकार किससे करें? माना कि हम किसी के भाग्य में आमूलचूल परिवर्तन ला सकें, यह संभव नहीं। पर हमारी भावनाओं में सेवा व सहयोग की नमी हो और करुणा का रस हो तो निश्चित ही कुछ परिवर्तन घटित हो सकता है। ऐसा परिवर्तन अर्जुन मुंडा ने घटित करके दिखाया है। आदिवासी जनजीवन में क्रांति घटित करने वाले वे सच्चे जनप्रतिनिधि हैं जो मूल्याधारित राजनीति के प्रेरक हंै। अर्जुन मुंडा झारखंड प्रान्त के पूर्व मुख्यमंत्री रह चुके हैं। महज 35 वर्ष की आयु में मुख्यमंत्री का पद संभालने वाले अर्जुन मुंडा के नाम देश में सबसे कम उम्र में मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड है। अर्जुन मुंडा ने लगातार हिंसा, अभाव एवं अविकास में जलते- झुलसते झारखंड को बाहर निकाला था और एक उम्मीद बने।

अर्जुन मुंडा का जन्म 5 जून 1968 को घोड़ाबाँधा जमशेदपुर में स्वर्गीय गणेश मुंडा के घर में हुआ। मध्य वर्गीय परिवार से आनेवाले श्री मुंडा बिहार और झारखंड विधानसभा में खरसाँवा का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। वे भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रहे। उनका राजनीतिक जीवन 1980 से शुरू हुआ। उस वक्त अलग झारखंड आंदोलन का दौर था। अर्जुन मुंडा ने राजनीतिक पारी की शुरूआत झारखंड मुक्ति मोर्चा से की। आंदोलन में सक्रिय रहते हुए अर्जुन मुंडा ने जनजातीय समुदायों और समाज के पिछड़े तबकों के उत्थान की कोशिश की। 1995 में वे झारखंड मुक्ति मोर्चा के उम्मीदवार के रूप में खरसावां विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से चुनकर बिहार विधानसभा पहुंचे। बतौर भारतीय जनता पार्टी प्रत्याशी 2000 और 2005 के चुनावों में भी उन्होंने खरसावां से जीत हासिल की।

वर्ष 2000 में अलग झारखंड राज्य का गठन होने के बाद अर्जुन मुंडा बाबूलाल मरांडी के कैबिनेट में समाज कल्याण मंत्री बनाये गये। वर्ष 2003 में विरोध के कारण बाबूलाल मरांडी को मुख्यमंत्री के पद से हटना पड़ा। यहीं वक्त था कि एक मजबूत नेता के रूप में पहचान बना चुके अर्जुन मुंडा पर भारतीय जनता पार्टी आलाकमान की नजर गई। 18 मार्च 2003 को अर्जुन मुंडा झारखंड के दूसरे मुख्यमंत्री चुने गये। उसके बाद 12 मार्च 2005 को दुबारा उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। लेकिन निर्दलीयों से समर्थन नहीं जुटा पाने के कारण उन्हें 14 मार्च 2006 को त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद मुंडा झारखंड विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें जमशेदपुर लोकसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया। पार्टी के भरोसे पर अर्जुन मुंडा खरा उतरे। उन्होंने लगभग दो लाख से अधिक मतों के अंतर से जीत हासिल की। वे भारतीय जनता पार्टी के दमदार और भरोसेमंद नेताओं में से एक हैं। उनकी खूबियों को देखते हुए पार्टी ने उन्हें राष्ट्रीय महासचिव की जिम्मेदारी दी। 11 सितम्बर 2010 को वे तीसरी बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने। अपने राजनीतिक सफर में कई बार डगमगाए और संभले लेकिन कभी हिम्मत नहीं हारी। हमेशा अर्जुन की तरह लक्ष्य पर नजर बनाए रखी।

2014 में पारंपरिक क्षेत्र खरसावां से विधानसभा का चुनाव हार गए तो राजनीतिक विरोधियों ने कई तरह के कयास लगाए, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में खूंटी (सुरक्षित) से विजय पताका लहराकर अर्जुन मुंडा ने अपने होने का अहसास कराया। हमेशा विपरीत परिस्थितियों से जूझकर बाहर निकलने वाले अर्जुन मुंडा का जीवन अर्जुन से कम संघर्षपूर्ण नहीं रहा। औसत परिवार और कोई राजनीतिक बैकग्राउंड नहीं। कम उम्र में ही पिता का साया सिर से उठ गया। पढ़ाई सरकारी स्कूल से हुई। पढ़ाई करते हुए राजनीति की शुरुआत झारखंड मुक्ति मोर्चा से की। लेकिन राजनीति में एक के बाद एक सीढियां चढ़ते गए। सरकार से लेकर संगठन तक का विस्तृत अनुभव हासिल किया। कम ही लोगों को पता होगा कि अर्जुन मुंडा बहुभाषी हैं। हिंदी और अंग्रेजी पर बेहतर पकड़ होने के साथ-साथ वे कई क्षेत्रीय भाषाओं की भी जानकारी रखते हैं। तभी तो भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव के तौर पर उन्हें जब असम की जिम्मेदारी दी गई तो वह असमिया में प्रचार करते और जब पश्चिम बंगाल पहुंचे तो बांग्ला में ममता बनर्जी सरकार को घेरते दिखे। संबंधों को सम्मान देना उनकी खासियत हैं और जिस आत्मीयता और गर्मजोशी से वे लोगों से मिलते हैं, लोग उनके मुरीद हो जाते हैं। चेहरे पर शिकन कभी नहीं आने देते।

मेरी दृष्टि में अर्जुन मुंडा के राजनीतिक उपक्रम एवं प्रयास आदिवासी एवं जनजातीय अंचलों में एक रोशनी का अवतरण है, यह ऐसी रोशनी है जो हिंसा, आतंकवाद, नक्सलवाद, माओवाद, गरीबी, अभाव, अशिक्षा जैसी समस्याओं का समाधान बनती रही है। अर्जुन मुंडा की एक और खासियत में शुमार है विपक्षी दलों के नेताओं संग बेहतर संपर्क। इसी के बलबूते पर उन्होंने बार-बार झारखंड की कमान संभाली। बहुमत में नहीं रहने के बावजूद वे सरकार के लिए आवश्यक बहुमत जुटा पाए। हालांकि सरकार चलाने के लिए एक हद से ज्यादा समझौते भी नहीं किए। कई बार दबाव पड़ने के बावजूद उन्होंने जल्दबाजी में फैसले लेने से परहेज किया। विपक्षी दलों के नेताओं संग उनके आत्मीय संबंध का ही असर है कि उन्होंने धुर विरोधी झारखंड मुक्ति मोर्चा को भी भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने के लिए राजी कर लिया। अन्य नेताओं के लिए यह संभव नहीं था। मृदुभाषी, मिलनसारिता, विनम्रता होने के कारण विपक्षी दलों में उन्हें पसंद करने वाले नेता बहुतायत में हैं। अर्जुन मुंडा काफी गंभीर विद्यार्थी थे, तो विलक्षण विशेषताओं के धनी राजनीतिज्ञ भी। वे कुशल प्रशासक हैं तो नवीन सोच से विकास को अवतरित करने वाले शासक भी। नेतृत्व का गुण उनके भीतर है। सचमुच आदिवासी एवं जनजातीय लोगों को प्यार, करूणा, स्नेह एवं संबल की जरूरत है जो मुंडाजी जैसे राजनीतिज्ञ एवं जननायक से ही संभव है, सचमुच जनजातीय जनजीवन के लिये वे रोशनी बनकर उभरे हैं। मोदीजी का नया भारत तभी बनेगा जब आदिवासी एवं जनजातीय जनजीवन भी उन्नत होगा, इसी प्रयास में जुटे मुंडा पर सभी की नजरें टिकी हैं।

(ललित गर्ग)
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