जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा जी ने विधान सभा में अनुच्छेद ३७० के बारे में जो कहा उस को किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहरैया जा सकता! महबूबा जी कहती हैं जो कोई भी अनुच्छेद ३७० को हटाने की बात करता है वह राष्ट्र विरोधी है! पर इस बात को भी अनदेखा नहीं कहा जा सकता कि इस लेख को लिखने तक आज की केंद्र सरकार से उस पर न तो भारत सरकार द्वारा कोई वक्तब्य दिया गया है और न ही केंद्र सरकार की ओर से मुख्यमंत्री को कोई दिशा नर्देश भेजा गया है ! इसलिए इस पर ठन्डे मन से विचार करना होगा कि आज की केंद्र सरकार की भी आखिर क्या मजबूरी है जम्मू कश्मीर राज्य के बारे में, ख़ासकर के कश्मीर घाटी के नेताओं के बारे में ! मई २०१४ के वाद भी जम्मू कश्मीर बारे कई ऐसे विवाद पैदा होते आ रहे हैं जिन को संवेदनशीलता से लेना चाहिए था पर अगर भारत के हित को देखा जाये तो नहीं लिया गया है! यहाँ तक के डॉ. कर्ण सिंह जी जैसे शीर्ष एवं ऴरिष्ठ नेता ने १० अगस्त २०१६ के दिन राज्य सभा में कहा की १९४७ में महाराज हरी सिंह जी ने विलय अनुबंध पत्र पर २७ अक्टूबर को दस्तखत किए थे (जब कि सरकारी स्तर पर भारत सरकार २६ अक्टूबर की तिथि बताती है) और बाकि रियासतों की तरह जम्मू कश्मीर ने भारत के साथ कोई मर्जर डॉक्यूमेंट नहीं लिखा था , जिस पर भारत सरकार की ओर से अभी तक कोई टिप्पणी नहीं हुई है! ऐसी ही कुछ और भी बातें हैं जिन की ओर कश्मीर नेतृव पर प्रश्न करने से पहले सब को सोचना होगा!
भारत का संविधान लिखने के बाद और भारत की रियासत जम्मू कश्मीर के लिए जम्मू कश्मीर के विधान के लिखने के पहले भारत के उस समय के कांग्रेस के शीर्ष नेता जवाहर लाल नेहरु ने महाराजा हरी सिंह द्वारा नियुक्त किए गए प्रधानमंत्री शेख मोहमद अब्दुल्लाह के साथ १९५२ में एक समझोता किया था . इस समझौते को जवाहर लाल जी ने प्रधान मंत्री के नाते अपनी सरकार के सामने भी रखा था. रिकार्ड्स में कहीं भी कोई ऐसा वर्णन मुझे नहीं मिला है जिस में उस समय के किसी शीर्ष नेता या मंत्री ने या संसद ने इस कथित समझौते पर कोई प्रश्न खड़े किए हों. हाँ इतना जरूर है कि इस समझौते पर न ही महाराजा हरी सिंह और न ही उन के रेजेंट की कोई मोहर लगी थी . लोग इस समझौते की वैधता पर प्रश्न करते रहे हैं और करते भी हैं. कश्मीर घाटी के नेता और नेशनल कांफ्रेंस इस समझौते को भारत की जम्मू कश्मीर रियासत के भारत गणराज्य के साथ संवैधानिक सम्बंधों का मूल आधार मानते हैं. जम्मू कश्मीर की सरकारें इस समझौते का अकसर अपने डाक्यूमेंट्स में जिकर करती रही हैं. भारत सरकार ने भी कभी भी अधिकारिक स्तर पर इस के होने का या इस की कोई मूल वैधयता का खंडन नहीं किया है.
न ही मई २०१४ में दिल्ली में आई भाजपा सरकार ने इस पर अभी तक कोई वक्तब्य दिया है और न ही इस की अधिकारिक स्थिति पर कोई तथ्य जनता के सामने रखे हैं जब की भारतीय जनता पार्टी ( जन संघ) ही एक मात्र भारत का राष्ट्रीय दल आज तक इस अनुबंध ( अग्रीमेंट) की किसी अधिकारिक या सम्बिधानिक मान्यता पर प्रश्न खड़े करता रहा है. इस लिए इस को भारत सरकार के नजरिये से अधिकारिक मान कर ही आगे चर्चा करेंगे.
यह कहा जा सकता है किस अनुबंध जिस को १९५२ दिल्ली अग्रीमेंट के नाम से जाना जाता है के आधार पर कुछ बातों को नज़र में रख कर भारत के राष्ट्रपति ने १९५४ में जम्मू कश्मीर से संबंधित एक सबिधानिक निर्देश दे कर भारत के संविधान में संशोधन कर एक नया अनुच्छेद ३५अ दाल दिया दिया और उसी के संग्रक्षण में जम्मू कश्मीर के १९५६/५७ में अपनाये गए विधान की कुछ धाराएं लिखी गई जो आज तक कई प्रकार के विवादों का कारण बनी हुई हैं. जिन विषयों ने जम्मू कश्मीर राज्य को पिछले ६० साल से विवादों और दूरियों के घेरे में रखा है उन में स्टेट सब्जेक्ट या जम्मू कश्मीर का स्थाई निवासी का दर्जा, भारत के वे नागरिक जो जम्मू कश्मीर के स्थाई निवासी हों उन के लिए सरकारी सेवा और स्थाई सम्पति के ख़ास अधिकार, जम्मू कश्मीर का राज्य चिन्ह ( राज्य ध्वज) और जम्मू कश्मीर राज्य सम्बंदित लिखे जाने बाले लंवैधानिक प्रवाधानों के ढंग जेसे विषय कहे जा सकते हैं! आज के दिन अगर जम्मू कश्मीर में हालात शांति पूर्ण नहीं हैं और विदेशी शक्तियाँ भी इस राज्य में अस्थिरता बनाने में कुछ कामयाब हुई हैं तो ऐसे विवाद भी इस का कारण हैं ! जम्मू कश्मीर के कुछ मुख्यधारा के कहे जाने बाले दलों या नेताओं ने जिस प्रकार से १९५२ के दिल्ली एग्रीमेंट से जुड़े विवादों में जम्मू कश्मीर के लोगों को उलझाये रखा है एवं दिल्ली की सरकारों ने भी आम आदमी तक तथ्य ले जाने में लगातार असंवेदनशीलता दर्शाई है!
पर भारत की अन्य रियासतों के नागरिकों ने ( जन संघ / शिव सेना /बीजेपी को छोड़ कर ) अपने नेताओं से कभी कोई सवाल नहीं पूछा है! . बीजेपी ने भी पूर्ण सत्ता में आने के बाद इस दिशा में कोई ख़ास दृष्टि डाली हो इस प्रकार के अभी तक कोई संकेत नहीं मिले हैं.
जब मैंने अनुषेद 35 A ( 1954) पर नजदीक से नज़र डाली तो पाया कि कई राजनीतिक विश्लेषक भी इस अनुच्छेद के बारे में अधिक नहीं जानते थे ! पर जिस बात पर विशेष ध्यान देने की अवश्यकता है बह यह है कि यह अनुच्छेद भारत की संविधान सभा ने न लिखा था और न ही पारित किया था . अपितु यह अनुच्छेद राष्ट्रपति द्वारा अनुचित रूप में अनुच्छेद ३७० का सहारा ले कर डाला गया था ! इस अनुच्छेद को संविधान में डालना एक तरह से संविधान में संशोधन करने जैसा ही है और अनुषेद-३७० के अंतरगत राष्ट्रपति को संविधान में संशोदन करने का अधिकार नहीं मिलता है ! राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद ३७० के खंड -१ में राष्ट्रपति को प्राप्त शक्तिओं का नाम ले कर अनुच्छेद ३५ के बाद संविधान में अनुच्छेद ३५अ के नाम से साल १९५४ में संविधान ( जम्मू कश्मीर को लागु होना) आदेश १९५४ स.आ.४८ मई १४ १९५४ आदेश के अंतर्गत एक नया अनुच्छेद डाला गया था जब कि संविधान में संशोधन करने की कोई भी शक्ति अनुच्छेद ३७० राष्ट्रपति को नहीं देता है और कोई भी संशोधन अनुच्छेद ३६८ के अंतर्गत ही किया जा सकता था!
इस नए अनुच्छेद को भारत के संविधान के मुख्य भाग में न रख कर के परिशिष्ट-१ के रूप में रखा गया. शायद यही कारण है कि किसी चिन्तक और विधि विश्लेषक का ध्यान इस के सबिधानिक पहलुओ की और नहीं गया ! इस लिए जव तक यह है तब तक जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य कहने बालों को दोष देना उचित नहीं है! जम्मू कश्मीर के विधान की धारा -६, धारा-८, धारा-९ , धारा-५१, धारा-१२७ और धारा – १४० भारत के विधान के अनुषेद १५,१६,१९ का ऊलंगन करने के बाबजूद भी अनुच्छेद -३५अ की शत्रशाया में ही सम्बिधानिक दृष्टी से आज न्यायपालिका के सामने मान्य हैं! इस लिए मोदी सरकार ने दिल्ली एग्रीमेंट १९५२ की वैधता पर अपना कोई मत प्रकट नहीं किया है और महबूबा जी ने एक और प्रश्न खड़ा कर दिया है !
( * दया सागर वरिष्ठ पत्रकार एवं जम्मू कश्मीर मामलों के जानकार है)