सच कहा गया है कि ज़िंदगी में जो कुछ बेशकीमती है उसे अगर हम बेशकीमती बने रहने दें तो मूल्यहीन बातों में ज़िंदगी के नायाब लम्हें बरबाद होने से बचाये जा सकते हैं। अपने जीवन को उपलब्धियों तक सीमित न रखकर योगदान में बदल देना कोई मामूली घटना नहीं है। पूरे विश्वास और सम्मान भाव के साथ कहा जा सकता है कि सुर और संगीत के पारखी ही नहीं बल्कि उसके दीवाने नौशाद साहब का योगदान सांचे बदलने वाली सोच और समर्पण का ही जीवंत उदाहरण है।
लखनऊ की सरजमीं से लाखों करोड़ों संगीत प्रेमियों के दिलों में बस जाने वाले नौशाद साहब की पूरी सदी की यादों का कारवां सा उमड़ पड़ा है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। केवल प्रभाव नहीं, व्यक्ति की मेहनत उसे मानवता के लिए यादगार बनाती है। यह बात नौशाद साहब पर सौ फीसदी खरी उतरती है। सुरों के जिस दीवाने को संगीत या घर में से एक को चुनने का फैसला करने की हिदायत खुद वालिद ने ही जारी कर दी थी, वह बालक एक दिन पूरी दुनिया को अपने ज़ुनून के घर में बसा लेगा, यह किसी ने सोचा भी नहीं था।
नौशाद ने घर छोड़ना की परवाह नहीं की, संगीत से बेशुमार प्यार उनकी ज़िंदगी का हिस्सा बन गया। पाबंदियां लगीं, घर के दरवाजे बंद किए गए, लेकिन नौशाद ने अपनी मंज़िल की ज़ानिब चलने के लिए रास्ता खुद बना लिया। शौक जारी रखा। उनके पावों की उड़ान थमी नहीं। ख्वाब दम भरते रहे, लेकिन दम टूटा नहीं। मैट्रिक पास करने के बाद वे लखनऊ के विंडसर एंटरटेनर म्यूजिकल ग्रुप के साथ दिल्ली, मुरादाबाद, जयपुर, जोधपुर और सिरोही की यात्रा पर निकले। सफर मुकम्मल होता गया। नौशाद ने लखनऊ यानी पीछे न मुड़कर मुंबई का रुख किया और यहां उन्हें पहले ठिकाने के रूप में दादर के ब्रॉडवे सिनेमाघर के सामने का फुटपाथ मिला।
किशोर नौशाद की कल्पना की उड़ान अकल्पनीय थी, किन्तु परिस्थितियों की चुनौतियां भी कम नहीं थी। बैजू बावरा जब रिलीज हुई, तो वहां नौशाद ने कहा, इस सड़क को पार करने में मुझे सत्रह साल लग गए। दरअसल नौशाद खुद को बदल सकते थे, कड़वे अनुभवों और यादों से ऊपर उठ सकते थे और अपने आप को अपनी अंतहीन सम्भावना से जोड़े रख सकते थे। फिर क्या, ऐसा ही उन्होंने किया और एक दिन अपनी ही लय में डूबकर कामयाब हो गए।