इस्लाम की रक्षा के नाम पर डेनमार्क के अहमद अक्कारी ने सात साल पहले पूरी दुनिया में ऐसी आग भड़काई जिसमें करीब 200 लोगों की जान चली गई. तब वह 27 साल का था और बदले की आग से धधक रहा था. अब पश्चात्ताप की आंच से पिघलकर वह धार्मिक सद्भावना का भक्त बन गया है.
युइलांद्स पोस्टन (द युटलैंड पोस्ट) डेनमार्क का सबसे बड़ा दैनिक है. 19 सितंबर, 2005 के दिन उसके संपादकीय मंडल की बैठक में एक अनोखा सुझाव दिया गया. देश के दैनिक पत्रों के लिए व्यंग्यचित्र बानाने वाले चित्रकारों से पूछा जाए कि क्या वे पैगंबर मुहम्मद के कार्टून बनाने की सोच सकते हैं. युइलांद्स पोस्टन के संपादकगण देखना चाहते थे कि व्यंग्य चित्रकार कितनी निर्भीकता का और देश में रहने वाले मुसलमान कितनी सहनशीलता का परिचय दे पाते हैं. व्यंग्य चित्रकार यूनियन के 42 में से केवल 15 चित्रकारों ने अपने उत्तर भेजे. केवल 12 चित्र आए, जिनमें से तीन युइलांद्स पोस्टन के अपने ही चित्रकारों के थे.
तय हुआ कि इन सभी व्यंग्यचित्रों को प्रकाशित किया जाए. उन्हें 12 अलग-अलग पेशेवर व्यंग्य चित्रकारों ने बनाया था. दैनिक के 30 सितंबर, 2005 वाले अंक में ‘मुहम्मद का चेहरा’ शीर्षक एक लेख के अंतर्गत उन्हें प्रकाशित किया गया. लेकिन, उस दिन का अंक प्रेस से बाहर जाते ही ओले पड़ने शुरू हो गए. मुसलमान पाठकों और प्रेस-प्रकाशन विक्रेताओं के निंदात्मक टेलीफोनों और पत्रों की झड़ी लग गई.
गुस्से से उबल पड़े लोग
गुस्से से उबल रहे लोगों में उस समय 27 साल का अहमद अक्कारी भी था. उसका जन्म 1978 में लेबनान में हुआ था. जब वह सात साल का था, तभी उसके घरवाले लेबनान छोड़ कर डेनमार्क आ गए. पूरे परिवार को राजनैतिक शरण मिल गई. लेकिन पैगंबर के कार्टून प्रकाशित होते ही अक्कारी आनन-फानन में डेनिश मुसलमानों के एक ऐसे उग्रवादी संगठन का मुखिया बन गया जो इस्लाम और उसके पैगंबर के इस अपमान के लिए न केवल युइलांद्स पोस्टन से बल्कि डेनमार्क की सरकार से भी क्षमा की मांग कर रहा था. पत्र सफाई दे रहा था कि ‘चित्रकार इस्लाम को भी उसी नजर से देख रहे हैं जिस नजर से वे ईसाई, बौद्ध या हिंदूू धर्म को देखते हैं.’ डेनिश सरकार कह रही थी, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दायरा हमारे यहां बहुत बड़ा है और डेनिश सरकार के पास प्रेस पर दबाव डालने का कोई उपाय भी नहीं है.’
अहमद अक्कारी उस समय यह सब सुनने के लिए कतई तैयार नहीं था. डेनमार्क को घुटने टेकने पर मजबूर करने के इरादे से वह डेनमार्क के कुछ इमामों को लेकर मध्य-पूर्व के मुस्लिम देशों के दौरे पर निकल पड़ा. वहां के लोगों और धर्मोपदेशकों को समझाने-बुझाने और भड़काने लगा कि उन्हें अपने यहां डेनमार्क विरोधी प्रदर्शन ही नहीं, दंगे-फसाद भी करवाने चाहिए.
लेबनान से इंडोनेशिया तक हुए दंगे
वह अपने उद्देश्य में सफल भी रहा. मध्य-पूर्व के देशों में ही नहीं, लेबनान से लेकर अफगानिस्तान, पाकिस्तान सहित इंडोनेशिया तक के सभी मुस्लिम देशों में लाखों लोग सड़कों पर उमड़ पड़े. डेनमार्क के ही नहीं, यूरोप के अन्य देशों के दूतावासों को भी तोड़ने-फोड़ने और उन्हें आग लगाने लगे. जनता के बहिष्कार के कारण दुकानों और सुपरबाजारों से डेनमार्क से आयातित खाने-पीने की तथा अन्य प्रकार की सामग्रियां गायब हो गईं. दंगों-फसादों में 200 से अधिक लोग मरे, हजारों घायल हुए.
‘उस समय मुझे पक्का विश्वास था कि मैं सही काम कर रहा हूं’, अहमद अक्कारी का आज कहना है. ‘आज मैं जानता हूं कि हमने जो कुछ किया वह सब बिल्कुल गलत था’, लंबे समय तक चुप रहने के बाद हाल ही में अपनी चुप्पी तोड़ते हुए एक टेलीविजन कार्यक्रम में उसने कहा. इस बीच वह मीडिया के सामने कई बार इस बात को दुहरा चुका है.
अक्कारी के चेहरे पर तब दाढ़ी हुआ करती थी. अब नहीं है. उसमें प्रौढ़ता आ गई है. उसका कहना है, ‘तब मैं अनुभवहीन था, अब समझदार हो गया हूं. मैं जिस परिवेश में पला-बढ़ा हूं उस में लोग हर चीज को अच्छे और बुरे के बीच लड़ाई के रूप में देखते हैं…. हर कोई केवल अपने आप को अच्छा समझता है और बाकी सबको अपने ऐसे दुश्मन मानता है जिनसे लड़ना और उनका सफाया कर देना उसका कर्तव्य है. यह बड़ी खतरनाक स्थिति है.’
धर्म है सत्ता-संघर्ष का हथकंडा
अहमद अक्कारी ने बताया कि मध्य-पूर्व के मुस्लिम देशों की अपनी यात्राओं में उसने वहां जो कुछ देखा, उससे उसकी आंखें खुलने लगीं, उसका मन बदलने लगा. उसका कहना था, ‘मैंने देखा कि वहां धर्म को किस तरह भीतरी सत्ता-संघर्ष का हथकंडा बनाया जा रहा है. मेरी समझ में आया कि आखिर मैं भी तो इसी रास्ते पर चल रहा है.’ उसने तय किया कि अब वह किसी मस्जिद में इमाम का काम नहीं करेगा. वह ग्रीनलैंड चला गया और वहां एक प्रौढ़शिक्षा स्कूल में पढ़ाने लगा. ग्रीनलैंड संसार का सबसे बड़ा और सबसे बर्फीला द्वीप माना जाता है, जो साथ ही डेनमार्क का एक स्वायत्तशासी प्रदेश भी है.
ग्रीनलैंड में अक्कारी ने ढेर सारी किताबें पढ़ीं. आत्ममंथन किया. उसका कहना है, ‘मुझे बोध हुआ कि नायक और खलनायक तो सब जगह होते हैं. यह बोध मेरी इस समझ से मेल नहीं खा रहा था कि अच्छाई तो केवल मेरे ही धर्म में हो सकती है, दूसरे किसी धर्म में अच्छाई हो ही नहीं सकती. मेरी समझ में आने लगा कि एक ऐसा उदार समाज होना कितना जरूरी है जिसमें सबके रहने और सोचने के लिए जगह हो.’
मौन रहें या मुंहफट बनें
सात साल पहले पैगंबर मुहम्मद वाले कार्टून अहमद अक्कारी को इस्लाम पर खुला हमला लगे थे. वह बौखला उठा था. अब उसकी समझ में आ रहा है कि युइलांद्स पोस्टन उनके माध्यम से क्या कहना चाहता था. यही कि अपने आप पर खुद ही सेंसरशिप थोपने और दूसरी ओर विचार-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच की सीमा के बारे में बहस होनी चाहिए. उसके शब्दों में, ‘मैं नहीं जानता कि बहस का यह तरीका (व्यंग्यचित्र) सही था या नहीं, लेकिन उसके उद्देश्य से मैं सहमत हूं.’
यही नहीं, सात साल पहले अखबार और सरकार से माफी मंगवाने पर उतारू अक्कारी अब खुद सबसे माफी मांग रहा है. उसका कहना है, ‘मैंने जो आग फूंकी थी, उसे लेकर मुझे आज बहुत आत्मग्लानि होती है. मैं अपनी उस भूमिका के लिए माफी मांगता हूं जिसकी वजह से डेनमार्क को घृणा का निशाना बनना पड़ा.’
पैगंबर के कार्टूनिस्ट से भी क्षमायाचना
सबसे मार्मिक तो वह क्षण था, जब अहमद अक्कारी ने कुर्त वेस्टरगार्द नाम के उस व्यंग चित्रकार से मिल कर उससे भी क्षमायाचना की जिसने-अपनी पगड़ी में बम छिपाए – पैगंबर मोहम्मद वाला कार्टून बनाया था. वेस्टरगार्द 2005 से ही चौबीसों घंटे की पुलिस सुरक्षा के बीच जी रहे हैं. उनकी हत्या के कई प्रयास हो चुके हैं. इस बीच 78 साल के हो गए वेस्टरगार्द ने अहमद अक्कारी को कॉफी पेश करते हुए कहा, ‘अब
तो तुम इस्लामवादी नहीं रहे, मानवतावादी हो गए हो. हमें ऐसे ही लोग चाहिए.’
डेनमार्क में अहमद अक्कारी के हृदय-परिवर्तन की हर तरफ व्यापक चर्चा है. इस्लाम के नाम पर आतंक फैलाने या पश्चिमी देशों के इस्लामीकरण की प्रवृत्ति के विरोधी तो उसकी प्रशंसा के पुल बांध रहे हैं, जबकि वे लोग जो कल तक उसके संगी-साथी थे, उसकी जय-जयकार किया करते थे, उसे गद्दार बता कर कोसने-धिक्कारने में जुट गए हैं. ‘अहमद अक्कारी के बारे में हमें कुछ नहीं कहना है’, कहते हुए डेनमार्क के इस्लामी फेडरेशन के प्रवक्ता इमरान शाह ने पत्रकारों से बात करने से मना कर दिया. डेनमार्क की मात्र 56 लाख की जनसंख्या में लगभग हर दसवां आदमी पिछले कुछ ही दशकों में एशिया या अफ्रीका के देशों से आकर वहां बस गया मुसलमान है. पाकिस्तानियों की संख्या भी अच्छी-खासी है और कट्टरपंथ के प्रति उनका झुकाव भी कुछ कम नहीं है.
(लेखक जर्मन रेडियो डॉयचे वेले की हिंदी सेवा के प्रमुख रह चुके हैं)
साभार- http://www.tehelkahindi.com/ से