कई बार हमें लगता है कि गुजरात की पहचान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ही है। ऐसा सोचते समय सब भूल जाते हैं कि महात्मा गांधी, सरदार पटेल और बालाचारी गुजरात के ही हैं। इनमें से पहले दो लोगों के नाम तो आपने सुने होंगे मगर बहुत कम लोग बालाचादी के बारे में जानते हैं जो मानवता की एक जीती-जागती मिसाल हैं। यह नाम हाल ही में तब खबरों में आया जबकि आजादी के पहले दूसरे विश्व युद्ध के दौरान यहां के एक शिविर में अपनी जान बचा कर रहने वाले कुछ बुजुर्ग जोकि उस समय बच्चे हुआ करते थे, अपनी पुरानी यादें व मानवता की जीती-जागती मिसाल को याद करने के लिए यहां आए।
बालाचारी गुजरात के पोरबंदर शहर के करीब स्थित एक छोटी सी जगह है। हुआ यह कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पौलेंड में पहले हिटलर ने पुरूषों पर जुल्म ढाहे और कई बच्चों को कैद किया। फिर रूस के शासक स्टालिन ने बड़ी तादाद में वहां के बच्चे को साइबेरिया जैसे अत्यंत ठंडे स्थान में स्थित कष्टकारी जेलों में भेज दिया जहां राजनीतिक कैदियो को रखा जाता था और उन्हे बहुत कम खाना देकर उनसे कड़ा परिश्रम करवाया जाता था। उनमें से बहुत सारे बच्चे व कुछ औरतें अपनी जान बचा कर भाग निकले व पानी के जहाज पर छिपते-छिपाते गुजरात तक पहुंच गए।
पहले उनका जहाज मुंबई पहुंचा पर वहां वायसराय ने उन्हें जहाज से उतरने की अनुमति देने से इंकार कर दिया। वे लोग भूखे, प्यासे व अधमरे हो चुके थे। सबसे छोटा बच्चा दो साल का व सबसे बड़ा 15 साल का था। उनके मां-बाप या तो सेनाओं द्वारा मारे गए थे अथवा वहां की जेलों में कैद थे। जब जामनगर के महाराज दिग्विजय सिंह रणजीत सिंह जाडेजा को इस बात का पता चला तो उन्होंने उन लोगों की मदद करने के लिए तत्काल अंग्रेंज सरकार से संपर्क किया।
जब वह नहीं मानी तो उन्होंने वहां की वार कैबिनेट के सदस्य से संपर्क किया जोकि उनके मित्र थे। उनकी दौड़धूप का बस इतना लाभ हुआ कि तत्कालीन सरकार ने महाराज को उन लोगों को अपनी शरण में ले कर उनकी देखभाल करने की इजाजत दे दी। वे उनके जहाज को जामनगर ले गए और वहां उन्होंने बालचादी इलाके में उनके रहने के लिए एक शिविर स्थापित किया। उन्होंने तब उन बच्चों से कहा कि मैं आज से तुम लोगों का बापू हूं। तुम्हारी देखभाल करूंगा।
महाराज ने उनके कपड़ों, दवाई खाने-पीने का इस्तेमाल किया। एक दिन उन्होंने देखा कि वे बच्चे ज्यादा खाना नहीं खा रहे थे। पूछने पर पता चला कि वह खाना काफी मसालेदार था। अतः उन्होंने कम मसाले व उनकी पसंद का खाना बनवाने के लिए गोवा से रसोइयां बुलवाया ताकि बच्चे खाना खा सके। उनकी पढ़ाई के लिए शिक्षक की व्यवस्था की। इनमें से जीवित एक बच्चे एडम बुरावोस्की ने बताया कि महाराज वहां आकर हम लोगों को तैरना सिखाते व हम लोगों के बीच खेलों की प्रतियोगिताएं करवाते थे और जीत जाने पर हमें 501 या 1001 रुपए इनाम में देते थे।
उन्होंने अंग्रेंज सरकार की आपत्तियों को दूर करने के लिए इन सभी 640 लोगों को गोद ले लिया और उन्हें इस आशय के प्रमाण पत्र भी जारी किए। इस काम में उनकी मदद करने के लिए भारतीय महाराजाओं ने भी महाराजा जाडेजा की मदद की। उनकी इस मानवीय हरकत से प्रभावित होकर जानी-मानी फिल्म निर्देशिका अनुराधा चट्टोपाध्याय ने इस घटना पर एक फिल्म बनाई जिसका नाम था ‘ए लिटिल पोलैंड इन इंडिया’। इनमें उन लोगों के अनुभवों की पूरी कहानी थी।
आजादी के बाद उनकी इस महानता से प्रभावित होकर पोलैंड की सरकार ने राजधानी वारसा में महाराज के नाम पर एक चौराहा बनाया। भारत सरकार ने बालचादी में गुजरात का एकमात्र सैनिक स्कूल खोला। कुछ साल पहले जब पोलैंड के तत्कालीन प्रधानमंत्री भारत आए तो वे बालचादी गए और उन्होंने कहा कि जब हमारे बच्चों को मारा जा रहा था तब भारत ने न सिर्फ उनकी जान बचाई बल्कि उन्हें पाला पोसा। इनमें से एक बुजुर्ग बच्चे ने एक किताब लिखी जिसमें उन्होंने महाराज को ‘ए गुडमैन फ्राम गुडलैंड’ कहकर संबोधित किया है।
उनके नाम पर पोलैंड की राजधानी वारसा में बनाए गए चौराहे का नाम भी ‘गुड मैन स्कवायर’ रखा गया है। पोलैंड की स्वतंत्रता के 100 साल पूरे होने पर वहां की सरकार व भारत सरकार ने इस मौके को एक नए तरीके से बनाने का फैसला किया। बच्चे रविवार को फिर से उस कैंप में जाएंगे जिसे अब सैनिक स्कूल में बदला जा चुका है व जो कभी उनका घर हुआ करता था। इस मौके पर कार्यक्रम की अध्यक्षता भारत में पोलैंड के राजदूत एडम बुराकोवास्की करेंगे। यहां आए पोलिश लोगों ने वहां के गीत भी गए जोकि उन्होंने भारत में रहते हुए सीखे थे।
इनमें से एक वाइजला स्टाईपुला का कहना था कि वहां हमने ऐसा महसूस किया जैसे कि हम लोग अपने घर में ही रह रहे हैं। यह तो हमारा भारत में छोटा-सा पोलैंड था। जबकि एक अन्य बुजुर्ग का कहना था कि हम इसके लिए महाराज व भारत के हमेशा आभारी रहेंगे। ध्यान रहे कि महाराज ने इस कृत्य के बदले में पोलैंड के वारसा स्थित छह प्राइवेट स्कूलों का नाम उनके नाम पर रखा है। वाइजला स्टापुला ने इस घटना पर दो किताबें लिखीं हैं। ध्यान रहे कि गुजरात को याद करने व उसको दुनिया के नक्शे पर लाने के कुछ कारण और भी हैं।
(विवेक सक्सेना राजनीतिक व सामाजिक विषयों पर रोचक शोभपूर्ण लेख लिखते हैं)
साभार- nayaindia.com से