Saturday, November 23, 2024
spot_img
Homeपुस्तक चर्चाभारत के आम नागरिक के संघर्ष को पहचान देने वाली पुस्तक

भारत के आम नागरिक के संघर्ष को पहचान देने वाली पुस्तक

याद नहीं कितने अरसे बाद एक हिन्दी उपन्यास उठाया और तीन दिन की रिकार्ड अल्पावधि में पूरा पढ़ डाला , बल्कि यह उपन्यास स्वयं को पढ़वा ले गया यह कहना अधिक उपयुक्त होगा।

‘अगम बहै दरियाव’ उत्तर भारत के ग्राम्य जीवन , विशेषकर किसान जीवन और स्थानीय स्तर पर जातीय सम्बंधों की जकड़न , तद्जनित शोषण एवम सरकारी कर्मचारियों , थाना , कचहरी के भ्रष्टाचार से उपजी पेचीदगियों की एक तरफ गहराई से पड़ताल करता है तो दूसरी ओर आर्थिक उदारीकरण ,पिछड़े वर्गों में आई नई राजनीतिक चेतना तथा हिंदुत्ववादी राजनीति के उभार द्वारा जनित स्थितियों को भी रेखांकित करता है ।

यह उपन्यास हिंदी में ‘गोदान’ , ‘राग दरबारी’ और कुछ सीमा तक ‘मैला आँचल’ की परंपरा की अगली और नवीनतम कड़ी है . ‘गोदान’ 1930 के दशक में प्रकाशित हुआ था , तो ‘राग दरबारी’ ‘1960’ के दशक में , इक्कीसवीं सदी का हिन्दी पाठक , विशेषकर 1990 के बाद जन्मी पीढी अपने लाख ग्रामीण संस्कारों के बावजूद , ‘गोदान’ के होरी या धनिया से उस तरह का परिचय नहीं बिठा पाता , या ‘राग दरबारी’ के बैद जी , सनीचर , लंगड़ , बद्री पहलवान से उतना परिचित नहीं हो पाता जितना ‘अगम बहै दरियाव’ के संतोखी हजाम , छत्रधारी ठाकुर , माठा बाबा , हिंसक क्रांतिकारी जंगू , अम्बेडकर वादी दलित वकील तूफानी या गाँव के जमींदार से लोहा लेने वाले विद्रोही जी जैसे चरित्रों से फौरी तादात्म्य बिठा सकता है . इक्कीसवीं शताब्दी के भारतीय ग्रामीण समाज मे ‘होरी’ , या ‘बैद जी’ जैसे चरित्रों की उपलब्धता , प्रमाणिकता हो या न हो , ‘संतोखी’ और ‘छत्रधारी’ की तो लगभग हर गाँव में अनिवार्य उपस्थिति होगी।

कथा वितान ऐसा है कि इसमें कोई एक नायक नही , न एक खलनायक , बल्कि इन दो अतियों के बीच अनेक श्वेत-श्याम-धूसर चरित्रों का पूरा एक ‘स्पेक्ट्रम’ है, जो न केवल कथा को जीवंत ढंग से आंदोलित किये रहता है , बल्कि इसे समकालीन ग्रामीण सामाजिक यथार्थ के और निकट करता है . जैसा कि हर एक रोचक कथा की विशेषता होती है कि कथा और पाठक के बीच से कथाकार को स्वयं को अदृश्य कर लेना , या अपना हस्तक्षेप इतना न्यून कर लेना की उसकी उपस्थिति का आभास न हो , इस उपन्यास और पाठक के बीच कोई फांक नहीं रह पाती और यह ‘दरियाव’ अपने कथा-प्रवाह में पाठक को जैसे अंतिम पृष्ठ तक बहा ले जाता है।

इस सब के अतिरिक्त इस उपन्यास की एक अन्य विशिष्टता है जो ‘गोदान’ , और ‘राग दरबारी’ की परंपरा में होते हुए भी उनसे इसे विशिष्ट बनाती है , और वह है लोकोक्तियों , लोकगीतों ,नौटंकी के बोलों का एक समृद्ध संग्रह . इस उपन्यास को लोकस्मृति से तेजी से विलुप्त होते लोक-गीतों एवम कहावतों के एक अद्वितीय कोष या संग्रह के रूप में भी देखा जा सकता है , जो इसके साहित्यिक मूल्य में वृद्धि ही करता है ।

ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित कथाओं में आंचलिक बोलियों के कुछ ऐसे शब्द जरूर आ जाते हैं जिन्हें प्रत्येक हिन्दी पाठक नहीं समझ सकता , यह समस्या इस उपन्यास में भी है , तथापि ऐसे शब्द कम ही हैं और जहां हैं भी वहां उनके अर्थ प्रसंगों के आलोक में खुलते जाते हैं।

संक्षेप में एक लंबे अरसे के बाद एक बेहद रोचक और पठनीय कृति हासिल हुई है ‘हिन्दी उपन्यास’ को , तो बिना देर किए इस जादुई ‘दरियाव’ में छलाँग लगाइए और स्वयं को कथा-प्रवाह में बहने दीजिए।

साभार- https://www.facebook.com/santosh.choubey से

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -

वार त्यौहार