देश की आजादी में न जाने कितने लोगों ने अपना जीवन बलिदान किया लेकिन इस जंग के कुछ नाम हमेशा के लिए अमर हो गए. साल 1907 में विदेश में पहली बार भारत का झंडा फहराया गया और आजादी के चार दशक पहले ये काम करने वाली महिला भीकाजी कामा इतिहास के पन्नों में दर्ज कर गई अपनी उपस्थिति. पारसी परिवार में आज ही के दिन जन्मीं भीकाजी भारत की आजादी से जुड़ी पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी थीं. आज भीकाजी कामा का आज 157वां जन्मदिन है.
जर्मनी के स्टुटगार्ट में हुई दूसरी ‘इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस’ में 46 साल की पारसी महिला भीकाजी कामा ने भारत का झंडा फहराया था. आज के तिरंगे से अलग ये आजादी की लड़ाई के दौरान बनाए गए कई अनौपचारिक झंडों में से एक था. बीबीसी में छपी खबर के मुताबिक मैडम कामा पर किताब लिखने वाले रोहतक एम.डी. विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर बी.डी.यादव का कहना है कि उस कांग्रेस में हिस्सा लेनेवाले सभी लोगों के देशों के झंडे फहराए गए थे और भारत के लिए ब्रिटेन का झंडा था, उसको नकारते हुए भीकाजी कामा ने भारत का एक झंडा बनाया और वहां फहराया. अपनी किताब, ‘मैडम भीकाजी कामा’ में प्रो.यादव बताते हैं कि झंडा फहराते हुए भीकाजी ने जबरदस्त भाषण देते हुए कहा था कि ऐ संसार के कॉमरेड्स, देखो ये भारत का झंडा है, यही भारत के लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, इसे सलाम करो.
भीकाजी कामा का जन्म साल 1861 में मुंबई में एक समृद्ध पारसी परिवार में हुआ था. साल 1885 में उनकी शादी जानेमाने व्यापारी रुस्तमजी कामा से हुई. ब्रितानी हुकूमत को लेकर दोनों के विचार बहुत अलग थे. रुस्तमजी कामा ब्रिटिश सरकार के हिमायती थे और भीकाजी एक मुखर राष्ट्रवादी. डॉ. निर्मला जैन अपनी किताब ‘भीखाई जी कामा’ में लिखती हैं, कि उस समय भीकाजी की हमउम्र लड़कियां इससे बेहतर जीवन साथी की कल्पना और आशा नहीं कर सकती थीं, लेकिन भीकाजी उनसे अलग थीं. उन्होंने तो अपने वतन को विदेशी दासता से मुक्ति दिलाने का सपना देखा था. शादी के कुछ दिनों बाद ही भीकाजी कामा आजादी की लड़ाई में कूद गईं.
1896 में बॉम्बे में प्लेग की बीमारी फैली और वहां मदद के लिए काम करते-करते भीकाजी कामा खुद बीमार पड़ गईं. इलाज के लिए वो 1902 में लंदन गईं और उसी दौरान क्रांतिकारी नेता श्यामजी कृष्ण वर्मा से मिलीं. प्रो. यादव बताते हैं कि भीकाजी उनसे बहुत प्रभावित हुईं और तबीयत ठीक होने के बाद भारत जाने का ख़्याल छोड़ वहीं पर अन्य क्रांतिकारियों के साथ भारत की आज़ादी के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन बनाने के काम में जुट गईं. लॉर्ड कर्ज़न की हत्या के बाद मैडम कामा साल 1909 में पेरिस चली गईं जहां से उन्होंने ‘होम रूल लीग’ की शुरुआत की. यूरोप और अमरीका में लगभग तीस साल से ज्यादा समय तक भीकाजी कामा ने अपने क्रांतिकारी लेखों के जरिए देश के आजादी के हक में आवाज बुलंद रखी.
देश की आजादी में अपना सबकुछ वार देने वालीं महान क्रांतिकारी भीकाजी कामा ने 13 अगस्त, 1936 में मुंबई के पारसी जनरल अस्पताल में आखिरी सांस ली थी. उनके मुख से निकले आखिरी शब्द थे- वंदे मातरम. 26 जनवरी 1962 को उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया गया. भारतीय तटरक्षक सेना में जहाजों के नाम भी उनके नाम पर रखे गए. भारत में कई स्थानों और सड़कों का नाम भीकाजी कामा के नाम पर रखा गया है.