सच कहता हूं कि जो खुशी पहली बार अपने जन्मदिन पर उपहार में एक साइकिल मिलने से हुई थी वह ‘एसयूवी’ खरीदने से भी नहीं हुई। तब मौका मिलते ही पिताजी की साइकिल चलाते थे। वह गिरती। खराब होती। डांट पड़ती पर फिर से उसे चलाने का लोभ संवरण नहीं कर पाता। जब हम छोटे थे तो साइकिल ही आम आदमी की सवारी हुआ करती थी। निम्न वर्ग में तो शादी में साइकिल व बाजा (ट्रांजिस्टर) मिलना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी।
कुछ लोग तो नई साइकिल पर चढ़ी पन्नी या कागज उतारने की जगह उस पर पुराना कपड़ा लपेट देते थे ताकि वह गंदी न हो जाए। तब कार नहीं साइकिल चोर हुआ करते थे। थाने में जब्त की गई कारें या मोटर साइकिलें नहीं बल्कि साइकिलों के ढेर लगे रहते थे। संपन्न लोग अपनी साइकिल में ‘डायनमो’ लगवाते थे जो कि पहिए से रगड़ खाने के बाद सामने लगी लाइट के लिए करेंट पैदा करता था। तब साइकिल का लाइसेंस व रात में आगे ‘ढिबरी’ (मिट्टी के तेल से जलने वाली बत्ती) लगाकर चलाना जरुरी होता था।
मैंने खुद बचपन में मुलायम सिंह यादव को साइकिल चलाकर किदवई नगर आते देखा। वे अपने पायजमा के पांयचे में एक क्लिप लगाते थे ताकि उसका पांयचा कहीं चेन में फंस कर गंदा या फट न जाए। संयोग से उनकी पार्टी का चुनाव चिन्ह भी साइकिल ही है। वैसे पहले यह मेनका गांधी की पार्टी संजय विचार मंच को आवंटित किया गया था।
उन दिनों मैंने भी संजय विचार मंच में काफी रुचि लेनी शुरु कर दी थी। पार्टी की रैलियां होने लगी थीं। जेएन मिश्र, अकबर अहमद, डंपी सरीखे नेता काफी सक्रिय थे। मेनका गांधी को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी। उन्होंने रैलियों का सिलसिला शुरु कर दिया था। एक बार किसी रैली में आए दो लोगों के बीच शर्त लग गई कि अगर उनमें से कोई मेनका गांधी को छू ले तो वह उसे 500 रुपए देगा। दोनों ही मेरे परिचित थे। उनमें से एक शर्त जीत गया।
उसने होडल में होने वाली रैली में यह ऐलान करवाया कि वह मेनका गांधी को छोटी सी भेंट देना चाहता है। इसके बाद वह मंच पर गया। उसने सोने का बहुत छोटा सा ब्रोच तैयार करवाया था जो कि साढ़ी में लगाया जाता है। वह मंच पर चढ़ा और उसने सबके सामने मेनका गांधी का अभिनंदन करते हुए यह ब्रोच उनकी साड़ी में लगा दिया और वह शर्त जीत गया।साइकिल का ध्यान इसलिए आया क्योंकि स्वतंत्रता दिवस के दो दिन पहले हिंदुस्तान की सबसे बड़ी साइकिल निर्माता कंपनी हीरो के मालिक व संस्थापक ओमप्रकाश मुंजाल का निधन हुआ है। अविभाजित पंजाब के कमालिया शहर में जन्में इस उद्योगपति ने सचमुच कमाल कर दिखाया। वे न केवल देश के सबसे बड़े साइकिल निर्माता बने बल्कि एक दशक से गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड में भी उनका नाम दर्ज है। देश की 48 फीसदी साइकिलें उनकी कंपनी की है और वह हर साल 19 लाख साइकिलें तैयार करती हैं जो कि विश्व रिकार्ड बन गया है।
उनकी प्रगति की कहानी किसी के लिए भी मिसाल बन सकती है। वे लोग 1943 में अमृतसर आ गए थे जहां उनके पिता साइकिल के पुरजे बनाते थे। वे चार भाई थे – । बाद में वे लोग लुधियाना आ गए और 1956 में उन्होंने 50 हजार रुपए बैंक से कर्ज लेकर अपनी साइकिल बनाने का कारखाना शुरु किया। तब कंट्रोल और लाइसेंस का युग था। साइकिल बनाने के लिए भी लाइसेंट कोटा लेना पड़ता था। सरकार यह तय करती थी कि कितनी साइकिलें बनायी जाएंगी। पहले साल उन्हें 639 साइकिलें बनाने का कोटा मिला। साइकिल फैक्टरी लगाने में पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रतापसिंह केरो ने उनकी काफी मदद की थी। उनके इस अहसान को ब्रज मोहन कभी नहीं भूले और जब तब इस को याद करते रहते थे।
मुंजाल के काम करने का तरीका सबसे अलग था। वे अपनी कंपनी के हर कर्मचारी को उसके नाम से जानते थे। एक बार उनकी फैक्टरी में हड़ताल हो गई। यूनियन वालों ने मेन गेट पर ताला जड़ दिया। यूनियन का कहना था कि जब तक उनकी मांगे नहीं पूरी की जाएगी तब तक काम नहीं होगा। वे अंदर ही थे। अचानक वे अपने केबिन से निकले और फैक्टरी की ओर चल पड़े। उन्हें देख कर कुछ बड़े अधिकारी भी साथ हो लिए। फैक्टरी में जाकर उन्होंने वहां मौजूद कुछ कर्मचारियों से कहा कि आप लोग चाहें तो हड़ताल पर जा सकते हैं पर मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि मुझे अपने आर्डर पूरे करने हैं जो कि मैंने डीलरों से किए हुए हैं।
उन्होंने आगे कहा कि मेरे डीलर और डिस्ट्रीब्यूटर तो यह बात समझ सकते हैं कि हड़ताल के कारण साइकिल का उत्पादन बंद है। पर उस बच्चे को मैं कैसे समझाउंगा जिसके मां-बाप ने उसके जन्मदिन पर उसे हीरो साइकिल दिलवाने का वादा किया हुआ है। मैं अपने दम पर साइकिल बनाउंगा। वे वहीं लगे रहें। उनकी देखादेखी फैक्टरी के अंदर मौजूद मजदूर, अफसर भी काम में लग गए। उन्होंने सबके साथ ही खाना खाया। रात को सबके साथ फर्श पर सोए।
अगले दिन हालात सुधरें और हड़ताल समाप्त हो गई। उनका हमेशा जोर इस बात पर रहा कि फैक्टरी में स्वचालित मशीनों की जगह इंसानी श्रम का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल किया जाए जिससे रोजगार के ज्यादा अवसर पैदा हो। बाद में तीनों भाई अलग-अलग हो गए थे पर इसके बावजूद भी उन्होंने एक दूसरे के कर्मचारियों को लेने पर कोई रोक नहीं लगाई थी। उन की सभी कंपनियों का विज्ञापन बजट साझा था। इससे वे अपनी शर्तों पर विज्ञापन कंपनियों से मनचाही दरो के लिए मोलभाव करते थे।
पहले एक-दूसरे की कंपनियों में उनकी क्रास होल्डिंग थी। जब उन्होंने अपना हिस्सा वापस लिया तो आपसी टकराव या मुकदमेबाजी नहीं हुई। एक भाई ने कहा कि आप इसके बदले में इतना ले लीजिए। पर दूसरे ने जवाब दिया कि मेरे हिसाब से आप मुझे कुछ ज्यादा ही दे रहे हैं। ओम प्रकाश मुंजाल को शेरो शायरी का बहुत शौक था। उनकी कंपनी की सालाना डायरी में उनका यह शौक स्पष्ट झलकता था। उनके घर में बच्चों के जन्मदिन पर केक नहीं कटता था हवन होता था। उन्होंने होटल, अस्पताल, स्कूल, कालिज बनवाए। जब 87 साल की आयु में उन्होंने दुनिया छोड़ी तो उनकी कुल संपत्ति 8 हजार करोड़ रू की थी, जिस पर उन्हें हर साल 400 करोड़ रुपए का मुनाफा हो रहा था। उनके बारे में ए-वन साइकिल कंपनी के मालिक ने बहुत अच्छी बात कही थी, उनके मुताबिक ‘जब किसी सार्वजनिक समारोह में वे लोग मिले तो मुंजाल ने सामने वाले व्यक्ति से यह कहते हुए उनका परिचय कराया कि इनसे मिलिए यह मेरे सबसे बड़े प्रतिस्पर्धी और बेटे हैं।’
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, विनम्र उनका लेखन नाम है)
साभार- http://www.nayaindia.com/ से