कोरोना महामारी का मुक़ाबला करने की क्षमता का सवाल हो या बाढ़ नियंत्रण का,बिहार इस समय दोनों गंभीर चुनौतियों से एक साथ जूझ रहा है। वैसे भी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही चुनावी सरगर्मियों ने सम्भवतः इन दोनों ही विकराल समस्याओं को प्राथमिकता देने के बजाए चुनावी दांव पेंच व रणनीतियों को तरजीह देना ज़्यादा मुनासिब समझा है। देश अभी गत 7 जून को पूरे बिहार राज्य में ‘बिहार जनसंवाद’.के नाम से हुई वर्चुअल रैली के उस आयोजन को भूला नहीं है जिसमें राज्य के गांव गांव में 72 हज़ार बड़े स्क्रीन वाले एल ई डी लगाए गए थे और इस वर्चुअल रैली में कथित तौर पर लगभग 144 करोड़ रूपये ख़र्च किये गए थे। यह रैली उन्हीं दिनों में आयोजित हुई थी जबकि देश के कोने कोने से चलकर राज्य के राष्ट्र निर्माता कामगार श्रमिक भूखे प्यासे, ख़ाली जेब अपने ज़ख़्मी पैरों पर अपनी गृहस्थी का बोझ लादे हुए अपने परिवार के साथ अपने अपने गांव को पहुँच रहे थे। लॉक डाउन के शुरुआती दौर में जो केंद्र व बिहार सरकार मिलकर अपने राज्य के कामगारों को वापस लाने का प्रबंध नहीं कर सकी। यहाँ तक कि देर से जो प्रबंध हुए भी उसमें भी बेरोज़गार,भूखे प्यासे श्रमिकों से मनमाना किराया भी वसूला गया। उन्हीं कामगारों व उनके परिवार के लोगों को अपनी उपलब्धियाँ बताने के लिए कथित तौर पर लगभग 144 करोड़ रूपये ख़र्च कर दिए गए?
बहरहाल,आज उस 7 जून की वर्चुअल रैली को याद करने की ज़रुरत इसलिए भी हुई क्योंकि दिल्ली से उस रैली को संबोधित करने हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बड़े ही चुटीले अंदाज़ में तीन बार यह कहा था कि -‘अब लालटेन का ज़माना गया, यह एलईडी का दौर है’। उन्होंने लालू यादव की पार्टी आर जे डी पर निशाना साधते हुए यह बात कही थी। क्योंकि लालटेन आर जे डी का ही चुनाव निशान है। परन्तु हक़ीक़त तो यही है कि जिस तरह बाढ़ में बिहार का बड़ा हिस्सा डूबा हुआ है और बाढ़ पूर्व भी जिस तरह विद्युत् आपूर्ति में लगातार कटौती होती रही है उससे तो यही प्रतीत होता है कि बिहार एक बार फिर से ‘लालटेन युग’ में वापसी करने के लिए तैयार है।
इसी रैली में अनेक नेताओं ने राज्य व केंद्र सरकार की अनेक उपलब्धियों का ज़िक्र किया था जिनमें कोरोना आपदा काल में किये गए अपने कथित उपायों का ज़िक्र भी किया गया। आज बिहार में जिस तरह सामुदायिक व ग्रामीण स्तर पर कोरोना महामारी फैलने के ख़तरे मंडरा रहे हैं और अस्पतालों की दुर्व्यवस्था की जो ख़बरें सामने आ रही हैं वह इन उपलब्धियों के व्याख्यान के दावों की पोल खोलने वाली हैं। मिसाल के तौर पर पिछले दिनों बिहार के सुपौल ज़िले के कोविड केयर अस्पताल का वह चित्र राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की सुर्ख़ियों में छा गया जिसमें एक डॉक्टर को एक ठेले पर बैठकर कोविड केयर सेंटर के परिसर में जाना पड़ा। बारिश की वजह से सुपौल ज़िले के इस कोविड केयर अस्पताल में चारों तरफ़ पानी भर गया है। राज्य के हज़ारों गांवों के संपर्क टूट चुके हैं। हज़ारों गांव पानी में डूब चुके हैं ।इन हालात में ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना के इलाज के लिए जाने वाले डॉक्टर्स को भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। सोचने का विषय है जो कोविड अस्पताल ही बाढ़ में डूबा हो वहां भर्ती मरीज़ों की सुध कौन लेगा और कैसे लेगा ?
कोरोना से निपटने के तरीक़े को लेकर भी बिहार सरकार चौतरफ़ा हमले झेल रही है।विपक्ष का आरोप है कि बिहार में उतने कोरोना टेस्ट नहीं हो रहे हैं जितने होने चाहिए। ज़ाहिर है जब तक बड़ी तादाद में टेस्ट नहीं होंगे, संक्रमण की सही संख्या का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता ? प्रतिदिन यदि 30 हज़ार टेस्ट होंगे तो रोज़ाना कम से कम 5 हज़ार केस सामने आएँगे! आरोप यह भी है कि जो मरीज़ अपनी जाँच करा भी पा रहे हैं उनकी जांच रिपोर्ट आने में 20 से 30 दिन लग रहे हैं. ऐसे में पॉज़िटिव लोग अन्य लोगों को संक्रमित कर या तो जान गँवा चुके होते हैं या अस्पताल पहुंच चुके होते हैं। कुछ मामलों में तो अस्पताल में भर्ती होने के बाद मरीज़ों की जान चली गई उनका अंतिम संस्कार भी हो गया परन्तु बाद में आई जांच रिपोर्ट में मृतक को कोरोना पॉज़िटिव पाया गया। विपक्षी नेता ने तो यहाँ तक कहा कि -‘कई ऐसे लोग हैं जिनका सैम्पल लिया ही नहीं गया पर रिपोर्ट आ गई।’ विधायक स्तर के कई लोगों की जाँच रिपोर्ट कई दिनों तक नहीं आई।
कई जगह अस्पतालों में बेड ख़ाली नहीं होने का हवाला देकर मरीज़ों को भर्ती नहीं किया जा रहा है। और जो भर्ती हैं उनका सही इलाज और देखभाल नहीं हो पा रहा है. डॉक्टरों, लाश उठाने वाले और अन्य मेडिकल स्टाफ़ के पास पी पी ई किट और सही मास्क तक मौजूद नहीं हैं। पर्याप्त वेंटिलेटर नहीं हैं जो हैं भी उनकी गुणवत्ता संदिग्ध है? यहाँ तक कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी आशंका जताई है कि स्वास्थ्य व्यवस्था की भारी कमी के कारण बिहार कोरोना का राष्ट्रीय हॉटस्पॉट बन सकता है। बिहार सरकार के सबसे बड़े कोविड अस्पताल नालंदा मेडिकल कॉलेज के वार्ड से एक वीडियो वॉयरल हुई जिसमें एक मृत व्यक्ति का शव कई घंटों तक बेड पर रखा हुआ था। और आस-पास मौजूद मरीज़ इस बात का इंतज़ार कर रहे हैं कि आख़िर अस्पताल प्रशासन इसे वार्ड से कब हटाएगा।जबकि राज्य के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ने अस्पतालों को हिदायत दी है कि वो शवों को वार्ड में न छोड़कर कहीं अलग रखे जाने की व्यवस्था करें।
एक तरफ़ जहाँ कोरोना और बाढ़ नितीश कुमार की शासकीय क्षमता को चुनौती दे रहे हैं वहीँ इसी बाढ़ के बीच भ्रष्टाचार का भी एक ऐसा उदाहरण सामने आया है जिसने पूरे विश्व में बिहार को बदनाम कर दिया है। राज्य के गोपालगंज ज़िले में गंडक नदी पर राष्ट्रीय राज मार्ग पर बना छपरा- सत्तरघाट पुल मुख्यमंत्री के उदघाटन किये जाने के मात्र 29वें दिन ही ध्वस्त हो गया। बताया जाता है कि इस पल के निर्माण में 263 करोड़ की लागत आई थी। गोया इसी तरह की अनेक दुर्व्यवस्थाएँ है जो सिर चढ़कर बोल रही हैं। घनघोर दुर्व्यवस्था के इस वातावरण में नितीश अपनी लोकप्रियता को पुनः कैसे अर्जित कर पाएंगे यह समय ही बताएगा।
निर्मल रानी