भारत में मुगलों ने अपने शासनकाल में यहां के समाज को किस तरह से तिरस्कृत किया, उसका इतिहास सर्वविदित है। पूरे भारतवर्ष में मंदिरों का विध्वंस करके उनके स्थान पर उन्हीं से तोड़कर निकाली सामग्री से मस्जिदें, दरगाहें और मदरसे बनवाए गए, इसके भी कम प्रमाण नहीं हैं। क्रूर मुगल शासकों ने हिन्दुओं का बड़े पैमाने पर कन्वर्जन किया। भारत में आकर इस्लाम को भी यह ज्ञात हो गया था कि तलवार के बल पर इस देश की वैचारिक प्रखरता तथा बौद्धिक क्षमता को परास्त नहीं किया जा सकता। शरिया की शक्ति भारत में आकर निशक्त होने लगी थी। ऐसी परिस्थिति में मध्य एशिया से आये सूफियों ने अपनी कथित उदार सोच से भारतीय जनमानस पर छाप छोड़ने की कोशिश तो की ही आने वाले समय के लिए सामाजिक संरचना में बदलाव के प्रयास भी किए। इसमें ताकि संदेह नहीं है कि गजनी, गौरी तथा औरंगजेब की कट्टरता से जितना कन्वर्जन हुआ, उसकी तुलना में बाहर से दरवेशी बाना पहने सूफियों ने अपनी ‘उदार छवि’ के बूते ज्यादा कन्वर्जन किया। लेखक के अनुसार, सूफियों के मुगलिया सत्ता से करीबी संबंध रहे थे, जो सूफी दरगाहों के रखरखाव की चिंता किया करते थे।
वरिष्ठ पत्रकार और इतिहासकार हरबंस सिंह की बीस अध्यायों में विभक्त और हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘सूफी, सत्ता और समाज’ में लेखक ने न केवल सूफीवाद का विवेचन किया है अपितु सूफियों के वृहत् समाज पर प्रभावों तथा सत्ता के साथ उनके सम्बन्धों-अंतसंर्बंधों का भी बारीकी से विश्लेषण किया है।
प्रारंभ के तीन अध्याय ‘युग परिवर्तन की पूर्व संध्या’, ‘इस्लाम से पूर्व भारत में धर्म और समाज’ तथा ‘इस्लाम और उसका भारत आगमन’ केवल कुछ ऐतिहासिक घटनाओं तथा दुर्घटनाओं का ही लेखा-जोखा नहीं है वरन् भारतीय समाज की जीवन-शैली, उसके विविध स्वरूप तथा जटिल आंतरिक शक्तियों को भी सामने रखते हैं। लेखक ने भारतीय मानस के चरणबद्ध विकास तथा इस प्रकिया में अनेक मत-पंथों तथा सम्प्रदायों के मिश्रित तथा समुचित दायों व प्रदायों को रेखांकित करते हुए और वैदिककाल से लेकर इस्लाम के प्रादुर्भाव तक की स्थितियों को वैज्ञानिक आधार-बिन्दुओं पर कसने का प्रयास किया है।
सूफियों का समाज तथा सत्ता के साथ यह सम्बन्ध बाहरी धरातल पर जितना सरल तथा सहज लगता है, वास्तव में अपनी आंतरिकता में यह उतना ही जटिल तथा बहुकोणीय रहा। लेखक ने ‘मूर्ति-भंजन अभियान’, ‘सूफियों का आगमन’, ‘हजरत निजामुद्दीन’, अमीर खुसरो और मिश्रित संस्कृति’, ‘सत्ता और चिश्ती सिलसिला’ तथा ‘सूफी और इस्लाम का प्रसार’ तथा ‘समनव्यवाद’ नामक अध्यायों में परत-दर-परत भारतीय समाज पर सूफियों के प्रभाव, दुष्प्रभाव तथा कुप्रभावों का विश्लेषण किया है। इस अंतर्संबध के कारण साहित्य, कला व स्थापत्य पर पड़े़ इस्लामी प्रभाव को भी उजागर करने की कोशिश की गई है। 11वें अध्याय ‘सूफी और इस्लाम का प्रसार’ में लेखक ने लिखा है- ”…धर्म परिवर्तन के प्रति सूफियों का दृष्टिकोण मुख्यत: राजनीतिक संदर्भ पर ही निर्भर करता था। समूचे मध्य युग में शासकों, सामंतों और सूफियों का यह दृष्टिकोण उनकी सत्ता पर पकड़ पर निर्भर करता रहा है।..जब भी कोई मुसलमान शासक किसी हिन्दू राज्य पर आक्रमण करता, या वहां के विद्रोह को कुचलने के लिए कूच करता, उसकी सेना को लश्कर-ए-इस्लाम की संज्ञा देकर उस अभियान को जिहाद कहा जाता था। इन सूत्रों से यह भी पता चलता है कि अभियानों में अनेक सूफी भी होते, जिनमें से कुछ तो वाकई युद्ध में भाग लेते और कुछ अन्य उन जिहादियों को नैतिक समर्थन देते हुए युद्ध के औचित्य को वैध बताते। इसके अलावा सैनिक सूफियों की उपस्थिति को बरकत मानते थे जिससे उनका मनोबल बढ़ता था।”
सत्ता और सूफियों की दूरी अगर कहीं थी तो वह सोची-समझी पूर्व नियोजित गहन योजना का ही परिणाम थी। इसी दूरी ने कई स्थानों पर भारतीय समाज पर उनके प्रभाव को गहराने का काम किया। मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें तामीर करने के मुगलिया जिहाद के संदर्भ में पुस्तक के चौथे अध्याय ‘मूर्ति भंजन अभियान’ में लिखा है, ”..यदि सिराज की मानें तो महमूद ने कम से कम एक हजार मंदिरों को मस्जिदों में बदला था।…भारत के मंदिरों में अकूत संपदा थी, जिस कारण एक तरफ महमूद उन्हें नष्ट कर अपनी आस्था के अनुसार यश प्राप्त कर रहा था तो दूसरी तरफ उनकी संपदा लूटकर वह अपने खजाने भी भर रहा था। अक्सर मूर्तियों को सार्वजनिक रूप से तोड़कर यह सिद्ध कर दिया जाता कि उनके भगवान कितने असहाय हैं।”
इस पुस्तक के कुछ अध्याय तो पहली बार इतिहास की पुस्तकों में, सूफियों के परिपेक्ष्य में उनके योगदान को दर्शाने वाले प्रतीत होते हैं। ‘कश्मीर में इस्लाम’, कुबरवी सिलसिला’, ‘ऋषि सिलसिला’, ‘नंद ऋषि के उत्तराधिकारी तथा हिन्दू प्रतिक्रिया’ जैसे अध्यायों में लेखक ने कश्मीर में सूफी आन्दोलन को विस्तार से पाठकों के समक्ष रखा है, जहां सूफी सोच अपेक्षाकृत उदारवादी प्रतीत होती है। संक्षेप में, यह पुस्तक ‘सूफी, सत्ता और समाज’ पठनीय बन पड़ी है जिसमें इतिहास का बेलाग मूल्यांकन करने का प्रयास किया गया है। हां, पू्रफ की अशुद्धियां कहीं-कहीं खटकती हैं, जिन्हें थोड़े और प्रयास से दूर किया जा सकता था। हरबंस सिंह ने इतिहास में झांकने में मेहनत की है और चीजों को खंगालकर निकाला है। घटनाओं को बयान करने का उनका अंदाज रोचक बन पड़ा है।
पुस्तक : सूफी, सत्ता और समाज
लेखक : हरबंस सिंह
पृष्ठ : 92,
मूल्य : 299 रु.
प्रकाशक : बृहस्पति प्रकाशन
3205, आस्था कुंज, प्लॉट नं. 3,
सेक्टर 3, द्वारका, नई दिल्ली-110078
साभार-साप्ताहिक पाञ्चजन्य से