यह अत्यंत दुखद समाचार है कि तेलुगु और हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार, ‘चंदामामा’ के पूर्व संपादक और बालसाहित्यकार, उत्कट जीवट के धनी बालशौरि रेड्डी हमारे बीच नहीं रहे. 15 सितंबर, 2015 को सुबह लगभग 10 बजे के आस-पास फोन की घंटी बजी और उठाते ही यह दुखद समाचार सुनने को मिला. अपने कानों पर यकीन नहीं कर पाई क्योंकि 8 सितंबर को उनसे फोन पर बात हुई थी तो कह रहे थे – बेटी भोपाल जा रहा हूँ विश्व हिंदी सम्मलेन में भाग लेने. आने के बाद बात करेंगे. वे मुझे बेटी कहकर संबोधित करते थे।
चूंकि रड्डी जी और मेरे पिताजी अच्छे दोस्त थे. बचपन में तो मैं उनकी गोद में खेली थी. उनकी जिजीविषा इतनी सक्षम थी कि वे दो बार मौत से जीत चुके थे. संकोच करते हुए रड्डी जी के घर फोन किया. उधर से भैया (उनके सुपुत्र) ने फोन उठाया और जब मैंने उनसे यह कहा कि ‘भैया यह मैं क्या सुन रही हूँ?’ तो उन्होंने कहा – ‘ठीक ही सुना है. सुबह 8.30 बजे चाय पी रहे थे और हम सबसे बात करते करते अचानक ही लुढ़क गए.’ बस इतना ही कह पाए. उनकी सिसकियाँ सुनाई दे रही थी.
बालशौरि रेड्डी का जन्म आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिला में स्थित मोल्लल गूडूर में 1 जुलाई, 1928 को हुआ था. उनकी मातृभाषा तेलुगु थी. अपनी मातृभाषा के साथ साथ हिंदी के लिए भी वे समर्पित थे. वे हमेशा यही कहा करे थे कि मेरी दो-दो मातृभाषाएँ हैं – तेलुगु और हिंदी. तेलुगु के साथ साथ हिंदी में भी उन्होंने अनेक मौलिक रचनाओं का सृजन किया. बालसाहित्य के साथ साथ उपन्यास, कहानी, नाटक निबंध, समीक्षा, आलोचना आदि विधाओं के माध्यम से उन्होंने दक्षिण भारत की संस्कृति को हिंदी पाठकों तक पहुँचाने का काम किया. मौलिक लेखन के साथ साथ अनुवादों के माध्यम से भी उन्होंने दक्षिण और उत्तर के भेद को मिटाने का प्रयास किया.
पाश्चात्य देशों की तुलना में भारत में आज भी बालसाहित्य की कमी है. इस क्षेत्र में बालशौरि रेड्डी का प्रयास सराहनीय है. ‘चंदामामा’ पत्रिका के माध्यम से उन्होंने बालसाहित्य लेखन को आगे बढ़ाया. उनकी मान्यता थी कि देश का भविष्य बच्चों के बौद्धिक एवं मानसिक विकास पर ही निर्भर होता है. इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने हिंदी के बालपाठकों के लिए ‘तेलुगु की लोक कथाएँ’, ‘आंध्र के महापुरुष’, ‘तेनाली राम के लतीफे’, ‘तेनाली राम के नए लतीफे’, ‘बुद्धू से बुद्धिमान’, ‘न्याय की कहानियाँ’, ‘तेनाली राम की हास्य कथाएँ’, आदर्श जीवनियाँ’, ‘आमुक्तमाल्यदा’ जैसी बालोपयोगी रचनाएँ कलात्मक रूप से प्रस्तुत की. बालसाहित्य के संबंध एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि “बच्चों के लिए लिखा गया साहित्य मनोरंजक हो. उनका हित करने वाला हो. साहित्य का कार्य है मानव मात्र को योग्य नागरिक एवं उत्कृष्ट सामाजिक बनाना, जीवन यात्रा में सही दिशा में बोध कराना. साहित्य मनोरंजन भी करे, साथ ही परोक्ष रूप से उसमें सामाजिक और नैतिक मूल्यों से युक्त मानदंड स्थापित करने की क्षमता भी हो.” उल्लेखनीय है कि उनकी पहली रचना बालसाहित्य की ही रचना थी.
हिंदी प्रचार-प्रसार में बालशौरि रेड्डी का योगदान उल्लेखनीय है. यदि उन्हें राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत व्यक्ति कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. नेताओं की कथनी और करनी में अंतर देखकर वे चिंतित हो जाते थे. इसीलिए वे कहा करते थे – “हमारे राष्ट्रीय नेता तथा शासन तंत्र से जुड़े हुए लोग मंच पर अथवा हिंदी दिवस, सप्ताह या पखवाड़े के समारोहों में उत्तेजित स्वर में हिंदी के प्रति जोश प्रकट करते हैं तथा प्राचीन सांस्कृतिक वैभव का गुणगान करते थकते नहीं. किंतु व्यावहारिक रूप में कार्यान्वयन का जब प्रश्न उठता है, तब नाना प्रकार की समस्याओं की दुहाई देकर अपने को अधिक उदार होने की, प्रशस्ति पाने का नाटकीय अभिनय करते हैं. हमारे यहाँ कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर दर्शित होता है.” जो लोग यह मानते हैं कि हिंदी के विकास में क्षेत्रीय भाषाएँ बाधक बनती हैं उनकी धारणा को खंडित करते हुए वे कहा करते थे कि “मातृभाषा कभी भी राष्ट्रभाषा के मार्ग में बाधक नहीं बन सकती. सभी क्षेत्रीय भाषाएँ पुष्प हैं जो राष्ट्र रूपी हार की शोभा बढ़ाते हैं. हिंदी के विकास के पड़ाव में अंतर्धारा के रूप में मातृभाषा कार्य कर सकती है.”
बालशौरि रड्डी क्रियाशील व्यक्ति थे. वे यह मानते थे कि आराम हराम है. महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और उनके विचारों से वे प्रभावित हुए तथा अपने जीवनकाल में उनके विचारों का पालन करते रहे. उनसे जब भी मुलाकात होते थी तो वे कहा करते थे – मुझे तो 100 साल तक जीने की उम्मीद है. उनकी जिजीविषा को देखकर हम सब आश्चर्य व्यक्त करते थे. हिंदी-तेलुगु का एक सुदृढ़ सेतु गिर गया. आज 13 साल पहले ही उनके सौ साल पूरे हो गए. ऐसे महान व्यक्तिव को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि….
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डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा
सह-संपादक ‘स्रवन्ति’
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद
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