Sunday, November 24, 2024
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संविधान को ‘धर्म-ग्रंथ’ कहना दोनों का मजाक!

भारतीय संविधान आदर्श नहीं है। संविधान के मुख्य निर्माता डॉ. अंबेदकर ने ही दो बार, वह भी संसद में, पूरी जिम्मेदारी से कहा था कि वे “इस संविधान को जला देना चाहते” हैं। प्रथम अवसर पर (2 सितंबर 1953) उन्होंने कहा कि, ‘‘मैं इस संविधान को पसंद नहीं करता। यह किसी के काम का नहीं।’’ दूसरे अवसर पर (19 मार्च 1955) उन्होंने बताया कि ‘‘जो मंदिर बनाया गया, उस पर देवताओं के बजाए राक्षसों ने कब्जा कर लिया।’’

उसी संविधान की आज डॉ. अंबेदकर का नाम ले-लेकर आडंबरपूर्ण पूजा करवाना हास्यास्पद है। वैसे भी, संविधान राजनीतिक तंत्र चलाने का दस्तावेज है। देश उस से बहुत ऊँची वस्तु है। संविधान में बदलाव होते रहते हैं। यहाँ तो इसे मनमाने बदला गया है। जैसे, 42वें संशोधन (1976) द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘सोशलिस्ट’ व ‘सेक्यूलर’ जोड़कर बुनियादी रूप से विकृत किया गया। तब से यह केवल समाजवाद और सेक्यूलरवाद मानने वालों का संविधान है। ऐसी मतवादी तानाशाही थोप कर भिन्न विचार वाले नक्कू बना दिए गए। इसलिए तब से वामपंथी, इस्लामी और इस्लामपरस्त ही ‘संवैधानिक मूल्यों’ की अधिक दुहाई देते हैं। उन्हें मालूम है कि वे क्या बोल रहे हैं!

यह संघ-भाजपा की सदाबहार मूढ़ता का एक और इश्तहार है कि वे भी ‘संवैधानिक मूल्यों’ की पूजा का राग अलापते हैं। बिन समझे कि क्यों वामपंथी और इस्लामी यह संविधान लहराते हैं? जबकि दोनों अपनी-अपनी पूर्ण सत्ता वाले देशों में जैसा विधान रखते हैं, उस का नमूना अभी चीन और ईरान है। वामपंथी और इस्लामपरस्त केवल हिन्दू-विरोधी दबाव देने के लिए चालू भारतीय संविधान लहराते हैं। लेकिन उन्हीं का उत्साही अनुकरण कर के संघ-भाजपाई किस बात पर गर्व करते हैं?

‘सोशलिज्म’ और ‘सेक्यूलरिज्म’ धारणाओं से हमारे संविधान निर्माता बखूबी परिचित थे। उन्होंने सोच-समझ कर, बल्कि सेक्यूलरिज्म पर विचार करके, इसे संविधान में कोई जगह नहीं दी। अतः 1976-78 ई. में कांग्रेस, कम्युनिस्ट और जनता पार्टी जिस में जनसंघ (भाजपा का पूर्वरूप) शामिल था, सब ने संविधान को भयंकर विकृत कर दिया। यहाँ वामपंथी-इस्लामी दबदबे का रास्ता साफ किया।

नोट करें कि जब संविधान बना ही था, तब भी डॉ. अंबेदकर ने इसे गैर-सेक्यूलर, यानी धार्मिक भेद-भावकारी बताया था। इसीलिए आगे सभी के लिए ‘समान नागरिक संहिता’ बनाने की बात संविधान में लिखी गई थी।

लेकिन यह संविधान एक अधिक गंभीर तरह से हिन्दुओं के विरुद्ध पक्षपात करता है। बल्कि इस ने हिन्दुओं को विशेष खतरे में डालने का बाकायदा प्रबंध किया। संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता वाली धारा 25 में ‘प्रोपेगेशन ऑफ रिलीजन’, यानी अपना रिलीजन फैलाने का अधिकार भी दिया गया है। किन्तु ‘धर्म-रक्षा’ का अधिकार नहीं दिया! याद रहे, केवल क्रिश्चियनिटी और इस्लाम ही दूसरों को धर्मांतरित कराने का ‘धर्म-प्रचार’ करते हैं। संविधान सभा में भी ‘प्रोपेगेशन’ का क्रिश्चियन, इस्लामी अर्थ ही लिया गया था। जब इस नुक्ते पर बहस हो रही थी तो कहा गया कि इसे ‘क्रिश्चियन मित्रों’ का ध्यान रखते हुए स्वीकार कर लें, क्योंकि कई कांग्रेस नेता ‘प्रोपेगेशन’ वाला नुक्ता हटाना चाहते थे।

बाद में भी, इस पर स्वयं प्रधानमंत्री नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को पत्र (17 अक्तूबर 1952) लिख कर साफ किया कि, “वी परमिट, बाई अवर कंस्टीच्यूशन, नॉट ओनली फ्रीडम ऑफ कांशेंस एंड बिलीफ बट आलसो प्रोजेलाइटिज्म।” यानी, धर्मांतरण कराना, जो केवल क्रिश्चियन और मुस्लिम कराते हैं। भारत में यह मुख्यतः हिन्दुओं का धर्मांतरण है, यह भी सभी नेता जानते थे। किन हथकंडों और प्रपंचों से धर्मांतरण कराया जाता है, यह भी वे बखूबी जानते थे!

अतः संविधान में हिन्दुओं को धर्म-रक्षा का अधिकार नहीं देना हिन्दुओं पर दोहरी चोट है! क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिन्दू का धर्मातरण कराना ‘मौलिक अधिकार’है। किन्तु ऐसे घोषित शिकारियों से हिन्दू अपनी धर्म-रक्षा कर सकें, इस का उन्हें कोई सामान्य अधिकार भी नहीं दिया गया। बेचारे अन्य कारण देकर, या अवैध तरीकों से ही अपनी धर्म-रक्षा कर सकते हैं। जैसे, धोखा-धड़ी की गुहार लगाकर, रो-गाकर, या जिसे अवैध कहकर उन्हें दंडित किया जाएगा! झारखंड में ऐसे मुकदमे चल रहे हैं, जिस में धोखे या जोर-जबरदस्ती धर्मांतरण कराने वाले मिशनरी, तबलीगी तो छुट्टा घूमते हैं, किन्तु उन का विरोध करने वाले हिन्दुओं को कोर्ट से जमानत भी नहीं मिलती! फिर भी, यहाँ हिन्दुओं को ही ‘सांप्रदायिक’, ‘असहिष्णु’, ‘बहुसंख्यकवादी’, आदि कह-कह कर लांछित किया जाता है।

वस्तुतः 42वें संशोधन के बाद संविधान धाराओं 25-31 का पूरा अर्थ हिन्दू-विरोधी कर डाला गया। तब से देश में दो प्रकार के नागरिक हैं: (1) अल्पसंख्यक, (2) गैर-अल्पसंख्यक। एक को डबल अधिकार, दूसरे को केवल सिंगल जो पहले वाले को भी है। इस प्रकार, एक विशेषाधिकार-संपन्न अल्पसंख्यक, तथा बाकी हीन गैर-अल्पसंख्यक ही सही संज्ञा है। इस थोपी गई हीनता के कारण ही कई हिन्दू संप्रदाय अपने को हिन्दुओं से अलग, और इसलिए अल्पसंख्यक कहलाने का प्रयास करते रहे हैं। इस के लिए उन्हें ही लांछित करने वाले संघ-भाजपाई अपने गिहरबान में झाँक कर देखें कि संविधान में ‘सेक्यूलर’ जोड़कर, और खुद को गर्व से ‘सच्चा सेक्यूलर’ कहकर वास्तव में उन्होंने क्या विध्वंस किया है! उन्होंने हिन्दुओं को संवैधानिक रूप से हीन नागरिक बना देने में सक्रिय सहयोग किया। और अब उन के महान अबोध नेता इसी संविधान की जबरन पूजा करवा कर हिन्दुओं के जले पर नमक छिड़क रहे हैं!

वस्तुतः, संविधान में ‘सोशलिस्ट’ जोड़ना हमारी वैचारिक स्वतंत्रता पर भी चोट थी। आखिर, सोशलिज्म राजनीतिक आइडियोलॉजी है! उसे संविधान की उदघोषणा में ही जोड़ देने से सोशलिज्म का विरोध असंवैधानिक हो गया। उस शब्द को सब की भलाई जैसा कुछ मानकर तरह देने वाले सोचें कि संविधान में ही नकली शब्द रखे रहने से पाखंड को बढ़ावा मिलता है। कहना कुछ, मानना कुछ। जिन्हें समाजवाद और सेक्यूलरवाद से सहमति नहीं, वे भी झूठी शपथ देकर चुनाव लड़ते हैं।

आगे, ‘दल-बदल कानून’ (52वाँ संशोधन, 1985) बनाकर भी संविधान विकृत किया गया। यह सांसदों, विधायकों की वैयक्तिक और वैचारिक स्वतंत्रता का हनन है। मूल संविधान में राजनीतिक दलों का उल्लेख तक न था। विधायिका और कार्यपालिका में सारी शक्ति व उत्तरदायित्व सांसदों को वैयक्तिक रूप से दिए गए थे। सारी योग्यताएं भी व्यक्ति की निर्धारित की गई हैं। उस में दल कहीं नहीं आता। दल स्वैच्छिक संगठन है जिसे चार लोग मिल कर बनाते या मिटाते हैं। लेकिन यही दल अब संवैधानिक संस्थाओं – संसद, विधान सभाओं – को अपने अंगूठे के तले रखता है। सारे सांसद, विधायक अपने-अपने दल के बँधुआ भेड़-बकरियाँ हैं। यह सरासर विवेकहीन और मूल संविधान के विरुद्ध है। इसे यूरोप, अमेरिका में सांसदों की पूर्ण स्वतंत्रता से तुलना करके भी देख लें।

इसी संविधान की पूजा-आरती कराने से भी केवल हिन्दू भ्रमित होंगे। बाकी लोग इस संविधान को जो समझते हैं, वह जगजाहिर है। इस तरह, अपने को हिन्दू-संगठक कहने वाले नेता नए-नए हिन्दू-विरोधी कार्यक्रम और दस्तावेज गढ़ते हैं। पर धौंस जमाते है कि उन के दल-संगठन के सिवा हिन्दुओं का कोई सहारा नहीं। यह हिन्दुओं के जले पर नमक छिड़कना है।

धर्म और संविधान, दोनों की सही समझ रखें। झूठी बातें गंभीरता से प्रचारित करना सब के बुद्धि-विवेक की हानि करना है। सत्ताबल से झूठे विचारों को लादना है। ऐसा करने वाले यह विडंबना भी देखें कि संविधान को वे जो कह रहे हैं – धर्म का ग्रंथ – वह धारणा, धर्म, उन्होंने ही पूरी शिक्षा प्रणाली से बाहर कर दी है! हमारे किशोर और युवा, उन से बनने वाले नीति-निर्माता जानते ही नहीं कि धर्म क्या है? रिलीजन क्या है? लेकिन उन पर दबाव दिया जा रहा है कि वे संविधान जैसे सामान्य प्रशासन मैनुअल को ‘धर्म-ग्रंथ’ कहकर इस की आरती उतारें! चाहे बाहुबल, धनबल, पार्टीबल या अंतर्राष्ट्रीय ताकत रखने वाले इसे ठेंगा दिखाते हुए मनमानियाँ करते रहें। निस्संदेह, यह हमारे धर्म और इस संविधान, दोनों का मजाक उड़ाना ही है।

साभार-https://www.nayaindia.com/ से

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