Sunday, November 24, 2024
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व्यापक जैव विविधता से भरपूर है चंबल बेसिन

विश्व पर्यावरण दिवस ५ जून पर विशेष

देश की जैव विविधता में वनस्पति के साथ-साथ वन्यजीवों का विशेष महत्व है। वन्यजीव हमारे पर्यावरण को बचाने में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वन्यजीवों को हमारे जंगलों और अभयारण्यों में देखा जा सकता है। वन्य जीवों को बचाने एवं संरक्षित करने के लिए देश में अभयारण्यों का विकास किया गया एवं कई जगह चिड़ियाघर विकसित किए गए।

अनेक जीवों का अस्तित्व समाप्त होने के कगार तक पहुंच गया जिन्हें संरक्षित करने के लिए उनके संरक्षण की विशेष योजनाएं संचालित की गई। प्रारंभ में स्थापित अभयारण्यों में से अनेक को देश में राष्ट्रीय प्राणी पार्क बनाया गया। देश का प्रथम कॉर्बेट राष्ट्रीय प्राणी उद्यान 1936 में उत्तराखंड (पूर्व में उत्तर-प्रदेश में शामिल) में स्थापित किया गया। जम्मू एवं कश्मीर का हेमिसा, राजस्थान का मरुभूमि,उत्तराखंड का गंगोत्री, अरुणाचल प्रदेश का नमदाफा, सिक्किम खांगचेगंडोंगा, छत्तीसगढ़ के गुरु घासीदास एवं इंद्रावती, गुजरात का गिर एवं पश्चिम बंगाल का सुन्दरबन देश के प्रमुख विख्यात राष्ट्रीय प्राणी पार्क हैं। ये नेशनल पार्क लुप्त होते वन्य जीवों का संरक्षण तो करते ही हैं वहीं इन्हें देखने के लिए पूरे विश्व से सैलानी आते हैं।

पर्यावरण और वन्यजीवों के संरक्षण की इस सक्षिप्त रूपरेखा के साथ हम चर्चा करते हैं व्यापक जैवविविधता से भरपूर चम्बल नदी के बेसिन में पाई जाने वाली जैव विविधता के की व्यापकता के बारे में। चम्बल नदी भारत की पहली ऐसी नदी है जो दक्षिण से उत्तर की और मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में बहते हुए उत्तर प्रदेश के इटावा के समीप यमुना नदी की गोद में समा जाती है। चम्बल नदी पर बांधों के बन जाने से देश को बिजली,सिंचाई और पेयजल सुविधा तो मिली किंतु नदी में रहने वाले जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया।

चंबल नदी के रेतीले तट गहरे जल में समा गए तथा कल-कल बहती हुई नदी विशाल जलाशय में बदल गई। अनेक प्रकार की मछलियां जो कल-कल बहने वाली नदी में ही रहना पसन्द करती हैं, वे नष्ट हो गई। नदी के बीच में द्वीप क्षेत्रों पर तथा नदी के रेतीले तटों पर ऊदबिलाव, मगरमच्छ तथा घड़ियाल प्रजनन करते थे, अण्डे देते थे तथा रेत स्नान एवं धूप का आनन्द लेते थे। जब रेतीले तट और द्वीप क्षेत्र नष्ट हो गये तो इन जन्तुओं का प्रजनन करना बहुत कठिन हो गया और ये भी नष्ट होने के कगार पर आ गए। मानव द्वारा इन जलचरों का लगातार शिकार किए जाने के कारण भी ये प्रजातियां तेजी से नष्ट होने की तरफ बढ़ीं। 1970 के दशक में वैज्ञानिकों ने पाया कि घडि़याल (गैवियलिस गैगेटिकस) चम्बल से लुप्त होता जा रहा है।

चम्बल नदी के बेसिन के अभयरण्यों एवं जंगलों में बबूल, बेर, सालर, खिरनी लेबुरम,अर्जुन,धोक,बेल,महुआ,बेलानाइटिस आदि वनस्पतियां पाई जाती हैं। मुख्य घाटियों में धोक ही ज्यादा मिलता है।

चम्बल नदी के किनारे कराइयों में चैसिंगा,जरख, काले हिरण,चिंकारा,चितकबरा हिरन, लोमड़ी, नीलगाय, भालू, पैंथर,टाइगर, साम्भर, नेवला, खरगोश, सियघोष,जंगली लंगूर, लाल मुह के बंदर,बिल्ली,सियार, भालू, जंगली बिल्ली, नेवला, खरगोश आदि वन्यजीव पाए जाते हैं। यहां एवियन जाती के पक्षियों की विविधता असाधारण है। चम्बल के किनारे एवं जलाशयों में स्थानीय एवं ग्रीष्म-पथ प्रवास वाले पक्षियों में सारस,टिकड़ी, नकटा,छोटी डूबडूबी, सींगपर,जाँघिल, घोंघिल,चमचा,लोहरजंग, हाजी लगलग होता है।

इसके साथ – साथ सफेद हवासील,गिर्री बतख,गुगलर बतख, छोटी सिलही बतख,सफेद बुज्जा, कौआरी बुज्जा, कला बुज्जा, सिलेटी अंजन, नरी अंजन, गजपाँव, बड़ा हंंसावर,टिटहरी,जर्द टिटहरी, अंधा बगुला,करछीया बगुला, गाय बगुला,गुडेरा,यूरेशियाई करवान,बड़ा करवान,छोटा पनकोवा, जल कूकरी,जीरा बटन,मोर, हीरामन तोता, कांटीवाल तोता, टुईयां तोता पाया जाता हैैै। सामान्य रूप से पपीहा,हरा पतरंग, अबलक चातक, कबूतर, धवर फाखता, चितरोया फाखता, ईट कोहरी फाखता, टूटरुं, कुहार भटतीतर,कोयल,करेल उल्लू,हुदहुद, नीलकंठ, मैना, अबलकी मैना, गुलाबी मैना, अबाबील,रामगंगरा, सफेद भौंह खंजन, बैंगनी शक्कर खोरा, मुनिया, बयां, चित्रित तीतर, सफेद तीतर, सिलेटी दुम फुदकी, गौरैया आदि प्रजातियों के पक्षी पाए जाते हैं। मोर भी बड़ी संख्या में देखे जाते हैं।

शीत ऋतु के दौरान अनेक प्रवासी पक्षी भी बड़ी संख्या में देखने को मिलते हैं। राजहंस, सरपट्टी सवन, नीलसर,छोटी मुर्गाबी, छोटी लालसिर बतख, तिधलरी बतख, पियासन बतख ,अबलख बतख, सुर्खाब, गेड़वाल, जमुनी जलमुर्गी, जल पीपी, जलमुर्गी, पीहो, छोटी सुरमा चैबाहा, चुटकन्ना उल्लू,कला शिरशिरा एवं सफेद खंजन आदि प्रमुख प्रवासी पक्षी देखे जाते हैं। चम्बल नदी क्षेत्र में लगभग 150 प्रकार की पक्षी प्रजातियां पायी जाती हैं। कीटों की भी कई प्रजातियां पाई जाती हैं।

चम्बल घडियाल अभयारण्य
घड़ियाल पूरे विश्व में केवल गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, सिन्ध तथा चम्बल में ही पाए जाते थे। वर्ष 1974 में सिन्ध नदी में लगभग 70 घडियाल थे किन्तु अस्सी के दशक में सिन्ध नदी में एक भी घड़ियाल शेष नहीं रहा। वैज्ञानिकों ने बताया कि इन जलचरों की प्रजातियों के समाप्त होते जाने का प्रमुख कारण उनके नैसर्गिक निवास स्थलों का नष्ट होना, चमड़े के लिए शिकार किया जाना तथा मछली पकड़ने के जालों में फंस जाने के कारण डूबने से मर जाना बताया।

अत: भारत सरकार ने घड़ियाल के पुनर्वास की व्यापक योजना बनाई जिसके तहत घडियालों एवं मगरमच्छों के अण्डों से बच्चे तैयार कर उन्हें फिर से नदियों में छोड़ा जाना सम्मिलित था। चम्बल नदी घडियालों के लिए बेहतर प्राकृतिक आवास है। इसके अतिरिक्त अन्य लुप्तप्राय: जीव जैसे ऊदबिलाव, गांगेय सूंस (डाल्फिन) तथा मगर मच्छ भी इसमें पाए जाते हैं।

लुप्त होते घड़ियालों के संरक्षण के लिए वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के अंतर्गत भारत सरकार द्वारा 30 सितम्बर 1978 को रास्ट्रीय चम्बल अभ्यारण्य के लिए प्रशासनिक स्वीकृति जारी की गई। यह अभयारण्य तीन राज्यों की सीमा क्षेत्र में आने से मध्य प्रदेश राज्य क्षेत्र की अधिसूचना 20 दिसम्बर 1978 को की गई। इसी प्रकार की अधिसूचना उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा 20 जनवरी 1979 को एवं राजस्थान राज्य द्वारा 7 दिसम्बर 1979 को जारी की गई। लगभग 600 किलोमीटर लम्बे तथा नदी तट के दोनों ओर 1000 मीटर चैड़े क्षेत्र को अभयारण्य घोषित कर दिया। चम्बल घड़ियाल अभयारण्य का दक्षिणी छोर कोटा शहर से लगभग 30 किलोमीटर दूर जवाहर सागर बांध से प्रारम्भ होता है।

कोटा बैराज के केशोरायपाटन तक के 18 किलोमीटर के मुक्त क्षेत्र को छोड़कर यह अभयारण्य पालीघाट, बटेसुरा होते हुए पंचनदा में चम्बल, पहूंज, कुंवारी और सिंध नदियों के यमुना में मिलन स्थल तक फैला हुआ है। अभयारण्य की देखरेख एवं प्रशासनिक कार्य के लिए वन विभाग के अधीन परियोजना अधिकारी का कार्यालय मध्य प्रदेश के मुरैना में स्थापित किया गया।

चम्बल नदी में घड़ियाल संरक्षण परियोजना 1979 से प्रारंभ की गई और 1980 में इसकी स्थापना की गई। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि राष्ट्रीय चम्बल घड़ियाल अभयारण्य मगरमच्छ प्रजातियों के संरक्षण का दुनिया में सब से बड़ा अभयारण्य है। चम्बल नदी में 1979 से 1987 के मध्य अलग-अलग स्थानों पर तीन से चार वर्ष की आयु के लगभग एक से दो मीटर तक की लम्बाई वाले 1287 शिशु घडियाल छोड़े गए। ये घडियाल शिशु मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के देवरी घडियाल प्रजनन केन्द्र से लाए गए थे।

घड़ियाल प्रजनन के लिए राजस्थान में कोटा के निकट गुड़ला में बेहतर साइट है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश की इटावा रेंज में खेड़ा अजब सिंह, कसऊआ,पिनाहट रेंज के रेहा घाट, विप्रवली, चम्बल की रेतिया, बाह केन्जरा, हरलालपुरा एवं नंदगवां में घड़ियाल की प्रजनन साइटस है। इनका प्रजनन काल 15 जून तक होता है जब अंडों से बच्चे निकलते हैं। एक मादा घड़ियाल एक समय में अपने घोंसले जिसे बिल भी कहते है 40 से 60 अंडे देती हैं। अक्सर 15 जून के बाद मानसून का मौसम शुरू हो जाता है। बरसात से और नदी में पानी के तेज वेग से काफी अंडे बह कर नष्ट हो जाते हैं और 10 प्रतिशत बच्चे ही बच पाते हैं। रेत का अवैध खनन भी इनके जीवन को प्रभावित करता है। इन जगहों पर घड़ियालों को प्रजनन करते, अंडों से नन्हे-नन्हे बच्चे निकलते,उनकी अठखेलियां देख खास कर विदेशी सैलानी आनन्दित होते हैं।

घड़ियाल अभयारण्य को देखने के के लिए उपवन संरक्षक (वन्य जीव) मुरैना से अनुमति लेनी होती है। जवाहर सागर से कोटा बैराज तक या तो नदी में नाव के माध्यम से या फिर नदी के तट पर जीप के द्वारा यात्रा की जा सकती है। चम्बल घड़ियाल अभयारण्य को नजदीक से देखने के लिए अनेक स्थानों पर व्यू पॉइंट्स बनाये गए हैं। कई व्यू पॉइंट से कोटा में उपलब्ध गाइड के साथ जलचर, किनारे के पक्षी एवं लैंड्सकैप का आनन्द और फोटोग्राफी के लिए बोट सुविधा भी उपलब्ध कराई गई है ।पिनाहट,नंदगांव घाट,सेहसों एवं भरच तक वाहन से भी जाया जा सकता है। वन्यजीव संरक्षण अधिकारी के माध्यम से बोटिंग की व्यवस्था की जा सकती है। अभयारण्य परियोजना क्षेत्र में नदी की गहराई में गेपरनाथ महादेव का प्राकृतिक दर्शनीय स्थल है। केशोरायपाटन में भगवान कृष्ण के प्राचीन मंदिर हैं, जहाँ पर्यटक ग्रामीण मेलों का आनन्द उठा सकते हैं। पालीघाट से रणथम्भौर का ऐतिहासिक किला, बाघ परियोजना क्षेत्र और अभयारण्य अधिक दूर नहीं हैं। वन विभाग की सख्ती के चलते जंगल में मानवीय दबाव व अवैध शिकार पर अंकुश लगा है।

चम्बल नदी के किनारे राजस्थान के धौलपुर शहर के समीप 20 किमी दूरी पर मध्य प्रदेश के मुरैना में ईको सेंटर घड़ियाल प्रोजेक्ट स्थापित किया गया है। यहां घड़ियाल हेचरी में चम्बल से हर वर्ष मई के महीने में करीब 200 अंडों को लाकर पोटेशियम परमेगनेट के घोल में धोते हैं एवं अंडों को हेचरी की रेत में दबकर रख देते है। जन्म से पहले अंडे से आवाज आती है और कुछ देर में अंडा फोड़ कर नन्हा घड़ियाल का बच्चा बाहर निकल आता है। इन बच्चों को चार वर्ष तक देवरी सेंटर के विभिन्न पूलों में पूर्ण देखरेख में पल जाता है। इन पुलों में घड़ियाल के बच्चों की अठखेलियां देखते ही बनती है। नदी में घड़ियाल को नजदीक से देखने का यह एक सुंदर स्थल है। नदी में छोड़ते समय इनकी पूंछ पर टैग लगा देते हैं। यह ईको सेंटर पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। यहां हजारों पर्यटक प्रतिवर्ष इसे देखने आते है। घड़ियाल के छोटे – छोटे बच्चों को देख कर न केवल बड़े वरण बच्चे विशेष रूप से खुश होते हैं। चम्बल में नोकायन का लुफ्त उठाने के लिए यहां चम्बल सफारी की व्यवस्था भी की गई है। केंद्र के केयर टेकर आपको घड़ियाल के प्रजनन से लेकर अंडे बनने एवं बच्चों के पालन ,जीवन चक्र, विशेषताएं आदि की सम्पूर्ण जानकारी प्रदान कर जिज्ञासा शांत कर ज्ञान बढ़़ते हैं।

बरही गांव में कछुआ संरक्षण केंद्र
चंबल बेसिन क्षेत्र में भिंड जिले के बॉर्डर पर चंबल नदी किनारे इसे मुरैना के देवरी घड़ियाल केंद्र की तरह विकसित किया जा रहा है। पिछले दिनों सेंक्चुरी से पहली बार कछुओं को केंद्र में शिफ्ट किया गया है। फिलहाल 269 कछुए शिफ्ट किए गए हैं। इनमें 70 बाटागुर डोंगोका, 4 पंगसुरा टेंटोरिया, 195 बाटागुर कछुगा प्रजाति के कछुए हैं। यह गंभीर रूप से लुप्तप्राय श्रेणी के हैं। मध्य नेपाल, उत्तरपूर्वी भारत, बांग्लादेश और बर्मा में पाया जाता है।

दुनियाभर में इसका अंतिम व्यवहार आवास चंबल सेंक्चुरी है। भिंड के बरही गांव में चंबल नदी किनारे बनाए गए कछुआ संरक्षण केंद्र परियोजना के अंतर्गत सेंक्चुरी में 4 स्थान बरौली-कतरनीपुरा घाट, बटेश्वरा घाट, उसैद घाट और कनकपुरा घाट पर कछुओं के प्राकृतिक आवास हैं।

चंबल में हैं खास प्रजाति के कछुएः
बाटागुर कछुआ यह लाल मुकुट वाला कछुआ दक्षिण एशिया के मीठे पानी में रहने वाली प्रजाति है। मादा की लंबाई 56 सेमी तक होती है। वजन 25 किलो ग्राम तक होता है। नर काफी छोटे होते हैं। बाटागुर डोंगोकाः लुप्तप्राय प्रजाति का है। यह तीन धारीवाला होता है। पंगसुरा टेंटोरियाः कूबड़ निकला होता है और मेहराबदार होता है। चित्रा इंडिकाः लुप्तप्राय प्रजाति है। यह छोटे सिर और कोमल कवच वाला होता है। निल्सोनिया गैंगेटिका का ऊपरी हिस्सा कालीन की तरह होता है। यह 94 सेमी तक लंबा है। यह खुशी की बात है कि चम्बल सेंक्चुरी में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गंभीर खतरे में घोषित बाटागुर कछुगा प्रजाति का कुनबा भी बढ़ रहा है। इस से चम्बल को नई पहचान मिलेगी।चम्बल नदी म एवं किनारे-किनारे कंदराओं में पाये जाने वाले इन जलीय जीवों के साथ चम्बल के सहारे-सहारे वन्यजीव अभयारण्य भी मौजूद हैं।

भैंसरोडगढ़ वन्यजीव अभयारण्य
चम्बल के किनारे अरावली पर्वत की गोद में भैंसरोडगढ़ वन्य जीव अभयारण्य राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में प्रकृति एवं वन्यजीवों को देखने का खूबसूरत स्थल है। यह अभयारण्य भारत के प्रमुख अभयारण्यों में माना जाता है जिसकी घोषणा 1983 ई. में की गई थी। यह स्थल प्रकृति प्रेमियों एवं फोटोग्राफर्स के लिए पूर्ण आकर्षण लिए हुए है।अभयारण्य के 229.14 वर्ग क्षेत्रफल में बबूल, बेर, सालर, खीरनी आदि वनस्पति पाई जाती हैं। यहाँ वन्य जीवों को विचरण करते देखना रोमांचित करता है। यहां पैंथर,सियार, जरख,खरगोश , जंगली बिल्ली, लोमड़ी,भेड़िया,भालू, बिज्जू, चीतल,सांभर,नीलगाय, चिंकारा,उड़न गिलहरी,जंगली सुअर,गिद्द, जंगली मुर्गी,मगरमच्छ,काला मुह का बंदर,नेवला,सर्प, आदि वन्यजीव एवं मोर,सारस, विभिन्न प्रकार की चिड़ियाएं पक्षी पाए जाते हैं। अभयारण्य को देखने के लिए प्रातः काल प्रवेश करना उपयुक्त रहता है जिससे पूरे दिन वन्य जीवों और प्रकृति का भरपूर आनंद लिया जा सके। भैंसरोड़ किले में ठहरने की उत्तम व्यवस्था है।

मुकुन्दरा हिल्स राष्ट्रीय टाइगर पार्क
घना जंगल, पहाड़, झरने, पोखर, तालाब और सदानीरा चम्बल और प्रकृति की गोद में पलते सैकड़ों प्रजाति के वन्यजीव जैसा स्थान बाघों की बसावट के लिए मुकुन्दरा सुरक्षित,अनुकूल और आदर्श जगह है। इस अनूठे रिजर्व में वन्यजीव, वनस्पति, पुरा सम्पदा पर्यटकों को आकर्षित करती है। मुकुन्दरा हिल्स को राष्ट्रीय पार्क का दर्जा देने के लिए 9 जनवरी 2012 को अधिसूचना जारी की गई ।जवाहर सागर अभयारण्य, चंबल घड़ियाल अभयारण्य, दरा अभयारण्य के कुछ भाग लगभग 199.51 वर्ग क्षेत्र को मिलाकर राज्य का तीसरा राष्ट्रीय पार्क बनाने की घोषणा की गई एवं 10 अप्रैल 2013 को टाइगर रिजर्व घोषित किया गया।

यह राजस्थान का तीसरा टाइगर रिजर्व बनगया है। रणथंभौर एवं सरिस्का पहले से टाइगर रिजर्व हैं। उल्लेखनीय है कि मुकुन्दरा हिल में 1955 में दरा वन्य जीव अभयारण्य की स्थापना की गई थी। टाइगर रिजर्व राष्ट्रीय राजमार्ग 12 पर स्थित है। राष्ट्रीय उद्यान का क्षेत्रफल 294.41 वर्ग किलोमीटर एवं बाघ परियोजना का क्षेत्रफल 759.99 वर्ग किलोमीटर है जिसमें कोर क्षेत्र 417 वर्ग किलोमीटर एवं बफर जोन क्षेत्र 342.82 वर्ग किलोमीटर है। वनस्पति एवं जैव विविधता इसकी विशेषता है। इसमें शुष्क, पतझड़ी वन, पहाडियां, नदी, घाटियों के बीच तेंदू, पलाश, बरगद, पीपल, महुआ, बेल, अमलताश, जामुन, नीम, इमली, अर्जुन, कदम, सेमल और आंवले के वृक्ष पाये जाते हैं। यहां चीतल, भालू, पैंथर व सांभर हैं।

चम्बल नदी किनारे बघेरे, भालू, भेडिया, चीतल, सांभर, चिंकारा, नीलगाय, काले हरिन, दुर्लभ स्याहगोह, निशाचर सिविट केट और रेटल जैसे दुर्लभ प्राणी भी देखने को मिलेंगे। गागरोनी तोता मुकुंदरा हिल्स में पाया जाने वाला विशेष प्रजाति का तोता है जिसकी कंठी लाल रंग की व पंख पर लाल रंग का धब्बा होता है। इसे हीरामन तोता तथा हिंदुओं का आकाश लोचन (मनुष्य की आवाज में बोलने वाला) भी कहा जाता है। माना जाता है कि प्राचीन काल में इस तोते का उपयोग जासूसी करने हेतु किया जाता था। इसे वन विभाग ने झालवाड़ जिले का शुभंकर घोषित किया है। रिजर्व के सेल्जर क्षेत्र में एक हैक्टेयर में एक एनक्लोजर एवं 28 हैक्टेयर में एक अन्य एनक्लोजर सावन भादो क्षेत्र में बनाया गया है।

पर्यटक मुकुन्दरा हिल्स टाइगर रिजर्व में 25 किलोमीटर जंगल की सैर के साथ चंबल की सफारी भी कर सकेंगे। पर्यटकों को चंबल में बोटिंग करवाई जाएगी।
जवाहर सागर से भैंसरोडगढ़ तक बोट में सवार होकर चंबल के सौन्दर्य को नजदीक से निहार सकेंगे और साथ ही जंगल के दिलचस्प नजारों को आप कैमरें में कैद कर सकेंगे। यहां आपको ऐसे नजारे देखने को मिलेंगे की आज तक आपने देखे ही नहीं होंगे। आने वाले समय में हाड़ौती पूरे देश में पर्यटन सर्किल के रूप के उभरेगा।

यह रिजर्व अन्य टाइगर रिजर्वों से कहीं अधिक खूबसूरत, बड़ा और समृद्ध है। यह पहला टाइगर रिजर्व है, जहां लोगों को जंगल और जल दोनों मार्गों की यात्रा का अवसर मिलेगा। मुकुंदरा अभयारण्य से चंबल, काली सिंध, आहू ,आमझर नदियाँ जुड़ी हुई हैं। अभयारण्य क्षेत्र में रामसागर व झामरा नामक स्थानों पर जंगली जानवरों के अवलोकन के लिए अवलोकन ओदिया बनाई गई हैं।
जवाहर सागर अभयारण्य

जवाहर सागर अभयारण्य कोटा जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर दूर है तथा कोटा रावत भाटा राज्यमार्ग पर स्थित है। जवाहर सागर बांध तथा कोटा बैराज का भराव क्षेत्र वन्य जीवों की विहार स्थली है। वर्ष 1975 में जवाहर सागर अभयारण्य की घोषण की गई तथा 1980 में पुन: जवाहर सागर अभयारण्य के कुछ भाग को सम्मिलित करते हुए राष्ट्रीय चम्बल घड़ियाल अभयारण्य की घोषणा की गई। धोकड़ा तथा बांस के वनों से आच्छादित यह अभयारण्य तथा चम्बल नदी का सीधा खड़ा तट जैविक विविधता का विपुल भण्डार हैं। यह अभयारण्य 315 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। इस अभयारण्य में घड़ियाल, मगरमच्छ, जल-मानुष आदि जलचर एवं बघेरा, चीतल, जंगली सूअर, रीछ, लोमड़ी, सियार, नीलगाय (रोझ) चिंकारा, लक्कड़ बग्घा आदि वन्यजीव देखे जा सकते हैं।


रामगढ़ विषधारी वन्यजीव अभयारण्य

बूंदी से 15 किमी की दूरी पर है और बूंदी-नैनवा रास्ते पर स्थित है। यह विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों और जीवों का आवास है। तेंदुआ, सांभर, जंगली सूअर, चिंकारा, स्लॉथ भालू, भारतीय भेड़िया, लकड़बग्घा, सियार, और लोमड़ी इस अभयारण्य में देखे जा सकते हैं। यह 252.79 किमी के क्षेत्र में फैला हुआ है। वर्ष 2012 में रणथम्भौर टाइगर रिजर्व से निकलकर बूंदी के जंगलों में आया एक युवा बाघ रामगढ की खोई हुई शान को वापस लौटाने में मील का पत्थर साबित हुआ। रामगढ़ में ही इस बाघ का टी 62 नामकरण हुआ। टी 62 करीब डेढ साल तक रामगढ व बूंदी के जंगलों में रहा इससे वन अमला हरकत में आया तथा जंगल में फिर से सुरक्षा बढ़ने लगी।

रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान
चम्बल नदी के प्रवाह मार्ग में सवाईमाधोपुर में रणथम्भौर राष्ट्रीय पार्क बाघों की सर्वोत्तम क्रीड़ा स्थल है। यहाँ के वन्य जीवों में सबसे प्रमुख है हमारा राष्ट्रीय पशु बाघ, जिसे यहाँ दिन की रोशनी में भी आराम से देखा जा सकता है। यहाँ बाघ के अलावा तेंदुआ, जरख, रीछ, सियार, सहेली, नील गाय, सांभर, चीतल, हिरण, जंगली सूअर, चिंकारा, जंगली बिल्ली, मगरमच्छ आदि वन्य जीव प्रमुख रूप से पाए जाते हैं। रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान प्राचीन काल से ही अपने पशु-पक्षियों के लिए विख्यात रहा है। रियासती काल में यह जयपुर के महाराजाओं की शिकारगाह थी। आजादी के बाद राज्य सरकार ने 7 नवम्बर 1955 को इसके 392.5 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल को अभयारण्य घोषित किया।

बाघ परियोजना के लिए चयनित 9 बाघ रिजर्व क्षेत्रों में से रणथम्भौर भी एक है। इसे 1 नवम्बर 1980 को राणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया। इसका क्षेत्रफल 274.5 वर्ग किलोमीटर है। रणथम्भौर टाइगर रिजर्व का कुल क्षेत्रफल 133.6 वर्ग किलोमीटर है। यह एक शुष्क पतझड़ी वन क्षेत्र है, जहांं अरावली एवं विन्ध्याचल दोनों की पर्वत श्रृंखलाएं मिलती हैं। यहाँ इस समुचित क्षेत्र में पदम तालाब, राजबाग, मलिक तालाब, गिलाई सागर, मानसरोवर एवं लाहपुर झीलें हैं। सवाई माधोपुर शहर से करीब 13-14 किलोमीटर दूर स्थित इस राष्ट्रीय उद्यान में जोगी महल पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। इसके खुले बरामदे में बैठकर सामने बने पद्म तालाब में वन्यजीवों को विभिन्न गतिविधियां करते हुए देख मन अति प्रसन्न होता है।पद्म तालाब के अतिरिक्त राजबाग और मलिक तालाब के आस-पास भी सैकड़ों की संख्या में चीतल, सांभर, नीलगाय और जंगली सूअर भी घूमते हुए देखे जा सकते हैं। रणथम्भौर ने राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित कर अपना एक अलग स्थान बनाया है, जिसका मुख्य कारण राष्ट्रीय पशु बाघ है।

केलादेव राष्ट्रीय उद्यान पक्षी उद्यान
चंबल के बेसिन से लगता केलादेव राष्ट्रीय उद्यान पक्षी प्रेमियों के लिए एक स्वर्ग है। यहाँ पर 390 से अधिक प्रजाति के पक्षियों को सूचीबद्ध किया गया है। इनमें से करीब 120 प्रजाति के प्रवासी (माईग्रेटरी) पक्षी तथा शेष आवासी (रेजीडेन्ट) पक्षी हैं। प्रत्येक वर्ष की शुरूआत होते ही देश के विभिन्न हिस्सों से हजारों आवासी (रेजीडेन्ट) पक्षी यहाँ आकर अपने नीड़ का निर्माण करते हैं। भारत में केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान ही एक मात्र ऐसा स्थान है, जहाँ साइबेरियन क्रेन सर्दियां बिताने आते हैं। ये करीब अक्टूबर के अंत या नवम्बर के प्रारम्भ में आते हैं और फरवरी के अंत या मार्च के प्रारंभ में साइबेरिया के लिए वापस प्रस्थान कर जाते हैं। प्रति वर्ष ओपेन बिल्ड स्टार्क, पेन्टेड स्टार्क, इग्रेट, स्पूनबिल, कार्मोरेन्ट, स्नेक बर्ड, व्हाईट आईबिस, ग्रेहीरान आदि प्रजाति के हजारों पक्षी यहाँ आकर अपने जोड़े बनाकर प्रजनन करते हैं। इन विभिन्न पक्षियों द्वारा बनाए गए घोंसले कुशल कारीगरी का परिचय देते हैं।

कैलादेवी अभ्यारण्य
चम्बल बेसिन में करोली में कैलादेवी अभ्यारण्य भी बाघ परियोजना का हिस्सा है। पूर्व में यह बाघों की शरणस्थली रहा है जिसमें रियासतों के समय में बाघों की अच्छी संख्या पाई जाती थी। राज्य सरकार ने 1984 में यह क्षेत्र अभयारण्य के रूप में घोषित किया। प्रभावी संरक्षण एवं सुरक्षा के लिए 1991 में इसे बाघ परियोजना में शामिल किया गया। अभयारण का सम्पूर्ण क्षेत्र नालों, दर्रों के साथ-साथ ऊंचा-नीचा और पथरीला है। विंध्याचल पर्वत की घाटियां, चट्टानें जो समतल एवं चपटी हैं जिनमें खोह जैसी आकृतियां पाई जाती हैं जो देखने में अत्यन्त रमणीक एवं चित्ताकर्षक हैं।यह क्षेत्र शुद्ध रूप से धोंक वन क्षेत्र है। धोंक के साथ-साथ अन्य वनस्पतियां भी पाई जाती हैं जिनमें खैर, गूगल, झावेरी आदि झाड़ियां मुख्य हैं। पठारी इलाकों पर समतल क्षेत्र के नालों में प्रचुर मात्रा में घास पाई जाती है जो वन्य जीवों को समुचित मात्रा में भोजन प्रदान करती है। अभयारण्य में बाघ के साथ-साथ बघेरे, लकड़बग्घा, भालू आदि देखने को मिलते हैं। हरबीवोरस में चिंकारा, नील गाय, खरगोश, रीछ, आदि पाये जाते हैं जो पर्यटकों को आकर्षित करते हैं।

यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि मध्य प्रदेश में विंध्य की जना पाव पहाड़ियों से निकल कर 1050 किलोमीटर की यात्रा कर इटावा के समीप यमुना की अंक में समा जाने वाली चम्बल नदी और इसके बेसिन क्षेत्र की जैव विविधता के दर्शन करना अपने आप में एक अनूठा रोमांचक अनुभव होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजस्थान जनसंपर्क विभाग के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं)
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