दक्षिण भारत के चाणक्य माधवाचार्य विद्यारण्य


भारतीय इतिहास के अनेक ऐसे पहलुओं को जान-बूझ कर अनदेखा किया गया है, जो कि हमारे साम्राज्यों की निर्मितियों और स्थायित्व के सबसे बड़े कारण रहे हैं। यह विमर्श विजयनगरम् साम्राज्य के संस्थापक हरिहर और बुक्का जैसे महान, मेधावी और महत्वाकांक्षी शासकों पर नहीं अपितु उन्हें कुंदन बनाने वाले उनके सहयोगी, गुरु और कालांतर में महामंत्री माधवाचार्य विद्यारण्य पर केंद्रित है। विद्यायरण्य को दक्षिण भारत का चाणक्य कहा जाता है; अपने अपने समय के दो महति विद्वानों की ऐसी तुलना सार्थक प्रतीत होती है।

हम चर्चा करेंगे कि क्यों माधवाचार्य विद्यारण्य को दक्षिण का चाणक्य कहा जाता है, इससे पहले एक प्रश्न आपके सम्मुख अवश्य रखना चाहता हूँ; सोचिए कि ऐसा क्यों है कि हम अतीत के नायकों-खलनायकों को स-विस्तार जानते हैं जबकि युगप्रवर्तकों को नहीं। जब भी बड़े सामाजिक बदलाव हुए हैं, राजनीति को महानायक प्राप्त हुआ है, लेकिन उनके पीछे किसी न किसी बड़े शिक्षक, विचारक, नीतिनिर्माता अथवा योजनाकार का हाथ अवश्य रहा है। महान मौर्य साम्राज्य की संस्थापना के साथ चाणक्य-चंद्रगुप्त की युति ने जो समाज को दिया वह अनमोल और वर्तमान के समक्ष भी प्रेरणा है, उदाहरण है। चाणक्य के शिष्य की साम्राज्यवादिता वस्तुत: स्थायित्व के लिये थी, उद्देश्यपूर्ण थी अर्थात भारतवर्ष की बिखरी-बटी हुई सीमाओं को एक ध्वज के अंतर्गत ला कर शासन प्रदान करना।
मौर्य साम्राज्य के ही एक अन्य वैभवशाली सम्राट अशोक के लिए उनके महा-अमात्य रहे राधागुप्त की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही है। विद्वानों को अपने साथ रखना-विचारविमर्श में उन्हें महत्व देना नन्द साम्राज्य के संस्थापक महापद्मनन्द की भी प्राथमिकता थी, वे अष्टाध्यायी जैसे महान ग्रंथ की रचना करने वाले विद्वान पाणिनी को अपना घनिष्ठ मित्र और सलाहकार मानते थे। इसी कड़ी में हमें शुंग साम्राज्य की ओर भी एक दृष्टि करनी चाहिये; इस दौर में महर्षि पतंजलि, सम्राट पुष्यमित्र शुंग के गुरु, मार्गदर्शक और पुरोहित रहे हैं।

ये केवल कुछ प्रचलित उदाहरण हैं। आज जब हम पूर्व-मध्यकालीन भारत के गौरवशाली विजयनगर साम्राज्य की बात करने जा रहे हैं और चर्चा माधवाचार्य विद्यारण्य पर की जा रही है तब यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि जो स्थान चंद्रगुप्त के उत्थान में चाणक्य का, अशोक के उत्थान में राधागुप्त का, पुष्यमित्र शुंग के उत्थान में पतंजलि का रहा है वही स्थान विजयनगर साम्राज्य के संस्थापकों हरिहर और बुक्का के जीवन में माधवाचार्य विद्यारण्य का रहा है। संक्षेप में यही कि भारतीय भूभाग पर मुसलमान आक्रान्ताओं की कुदृष्टि हमेशा से रही है लेकिन समय समय पर ऐसे महानायक हुए हैं जिन्होनें उनका सामना किया, उनकी जड़ों में मट्ठा डालने का कार्य किया है। मुहम्मद बिन कासिम से आरंभ कर मुगलों तक को खदेडऩे में राजा दाहिर की पुत्रियों के बलिदान से ले कर छत्रपति महाराज शिवाजी तक के योगदानों को भले ही एनसीईआरटी की पुस्तकें समुचित स्थान न दें लेकिन यह निस्संदेह है कि हमारे इतिहास का वास्तविक गौरव यहीं निहित है।

गजनियों, गोरियों, गुलामों, तुगलकों, सैयदों, लोदियों ने दक्षिण भारत की समृद्धि को लूटने की जो परिपाटी बनाई इसने न केवल प्रशासनिक हलकों को झखझोर दिया बल्कि यहाँ का सामाजिक-धार्मिक तानाबाना भी नष्ट होने लगा था। ऐसे में आवश्यकता थी कि इस राष्ट्र की समृद्धि को लूटने के साथ साथ इस्लाम का तलवार के बल पर प्रचार करने निकले दिल्ली सलतनत के खूंखार लुटेरों को प्रतिरोध दिया जाये। एक विद्वान ही समाज को गहराई से समझता है, समस्या का वास्तविक अन्वेषण कर पाता है और समाधान की दिशा प्रशस्त करता है। एक एक कर मुसलमान आक्रान्ताओं द्वारा नष्ट किये जा रहे दक्षिण के राज्यों को समेटना आवश्यक था, एक केन्द्रीय शक्ति चाहिए थी जो दीवार बन सके। वह प्रेरणा कि ”तन से, मन से, धन से; तन मन धन जीवन से;हम करें राष्ट्र आराधन” तब हरिहर और बुक्का नाम के दो भाईयों को प्रदान करने का कार्य किया, विद्वान माधवाचार्य विद्यारण्य ने।

कौन थे विद्यारण्य? स्थापित इतिहास की पुस्तकें इस तरह मौन हैं कि अनेक द्वितीयक तथा साहित्यिक साधनों से उनके विषय में जानकारी समगरीकृत हो पाती है। उल्लेख मिलता है कि विद्यारण्य के पिता नाम नाम था मायण। मायण के तीन पुत्र थे माधव, सायण और भोगनाथ। माधव अर्थात विद्यारण्य का जन्म वर्ष 1296 को तुंगभद्रा नदी के तटवर्ती पम्पाक्षेत्र अर्थात वर्तमान हम्पी के निकट के किसी गांव में हुआ था। उनका वास्तविक नाम तो माधव ही था, विद्यारण्य नामकरण उन्हें वर्ष 1331 ई. में संन्यास ग्रहण करने के पश्चात प्राप्त हुआ। माधव ने आरम्भिक शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की। उनकी माता श्रीमती देवी भी विदुषी थी। तत्पश्चात उनके तीन गुरु कहे जाते हैं जिनमें प्रमुख है श्रृंगेरी मठ के तत्कालीन प्रमुख विद्यातीर्थ, वेदान्त के परम विद्वान भारती तीर्थ और साहित्य तथा संस्कृति के ज्ञाता श्रीकंठ। आप, विद्वानों की विविधता और विषय की विविधता को देखें और अनुभव करें कि तत्कालीन शिक्षा पद्यति बड़े बड़े अन्वेषकों, विचारकों और विद्वानों की जननी क्यों थी। शिक्षा में उनकी मेधा ने ही उन्हें कालांतर में माधवाचार्य के रूप में पहचान प्रदान की। शिक्षा पूरी हुई तो आचार्यों से उन्होंने पूछा कि वे गुरुदक्षिणा में क्या प्रदान करें, उत्तर मिला अपना जीवन। गुरु भी योग्यता पहचानते थे, उन्हें ज्ञात था कि अप्प दीपों भव वाली मन:स्थिति उनके इसी विद्यार्थी में अंतर्निहित है, यही है जो दिल्ली के सुलतानों के फैलाये अंधकार से लड़ सकता है, उजियारा फैला सकता है।

आचार्य विद्यारण्य ने जब वास्तविकता के धरातल पर पैर रखा तो वह उन्हे जलता हुआ प्रतीत हुआ। उनके समकालीन का एक संदर्भ कहता है कि ”उस समय लोग चिदम्बरम् के पवित्र तीर्थ को छोड़कर भाग गए थे। मंदिरों के गर्भगृह और मंडलों में घास उग आयी थी। अग्रहारों से यज्ञ धूप की सुगंध के स्थान पर पकते मांस की गंध आने लगी थी। ताम्रपर्णी नदी का जल चंदन से मिश्रित होने के स्थान पर गोरक्त से मिश्रित होने लगा था। देवालयों और मंदिरों पर कर लग गए थे। अनेक मंदिर देखभाल न होने के कारण या तो स्वयं गिर गए थे अथवा गिरा दिए गए थे। हिन्दू राज्य छल-बल से समाप्त होते जा रहे थे।” व्यथित आचार्य इस अवस्था को बदल देना चाहते थे, इसके लिए उन्हें दो सहयोगी भाई भी मिल गए हरिहर और बुक्का जो स्वयं तत्कालीन राजनीति की चपेट में अपनी राजनैतिक पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। माधवाचार्य विद्यारण्य जानते थे कि प्रजा में अपने धर्म के छिन जाने का असंतोष है, राजाओं-सामंतों में अपनी गरिमा के नष्ट होने की ग्लानि है। यही सही समय है जबकि गरम लोहे पर हथौड़ा मार दिया जाना चाहिए।

माधवाचार्य के पिता विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक भाईयों हरिहर और बुक्का के कुलगुरु कहे जाते हैे, अत: यह स्वाभाविक था कि वे स्वयं भी उनके संपर्क में आ गए। यह संपर्क जिन परिस्थितियों में हुआ वह भी रोचक वृतांत है। अपनी पुस्तक ”पूर्व मध्यकालीन भारत” में श्रीनेत्र पाण्डेय लिखते हैं ”हरिहर और बुक्का भाईयों को रायचूर प्रदेश में आणेगुण्डी के राजा के यहाँ नौकरी करनी पड़ी। यहाँ भी वे मुसलमान आक्रान्ताओं की क्रूरता से बच नहीं सके, दिल्ली लाये गये। यद्यपि रायचूर पर मुसलमानों ने अपना अधिकार स्थापित कर लिया था परन्तु वे वहाँ शान्ति तथा सुव्यवस्था न स्थापित कर सके। अतएव सुल्तान तुगलक ने हरिहर तथा बुक्का को मुक्त कर दिया और उन्हें रायचूर दोआब का सामंत बना कर दक्षिण भेज दिया”।
 इस क्रम में अपनी पुस्तक ”विजय नगर का इतिहास” में श्री वासुदेव उपाध्याय लिखते हैं कि ”बड़े भाई हरिहर ने होयसल नरेश वीर बल्लाल के शासन समय में ‘महामण्डलेश्वर’ का पद ग्रहण किया था”। मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल के अन्तिम भाग में जब तुगलक साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो रहा था उसी समय होयसल साम्राज्य भी शक्तिहीन हो चला था। इस सभी के दृष्टिगत और अपने गुरु माधवाचार्य विद्यारण्य की प्रेरणा से हरिहर ने भी स्वयं को स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया। हरिहर और बुक्का के एक प्रशासनिक अधिकारी, सामंत, महामण्डलेश्वर और अंतत: एक साम्राज्य के अधिष्ठाता होने के विषय में श्रीनेत्र पाण्डेय लिखते हैं ”इन दोनों भाइयों का परम सहायक तथा नेता उस समय का प्रकांड पण्डित विद्यारण्य था जिसने इस वंश की उसी प्रकार सहायता की जिस प्रकार चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य की की थी।
अपने गुरु तथा सहायक के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए इन दोनों भाइयों ने तुंगभद्रा नदी के किनारे पर विद्यानगर अथवा विजयनगर नामक नगर की नींव डाली। इस नगर के स्थान का सुझाव भी विद्यारण्य का ही दिया हुआ था। उल्लेख मिलता है कि ”जहाँ पर विजयनगर (आज की हंपी) की स्थापना हुई उस भूमि पर भ्रमण करते हुए विद्यारण्य ने देखा कि कुछ खरगोश कुत्तों को खदेड़ रहे हैं। कुत्ते भाग रहे हैं और खरगोश पीछा कर रहे हैं। यह असंभव दिखने वाला दृश्य था। विद्यारण्य को लगा कि तुंगभद्रा की तटवर्ती इस भूमि में कुछ विशेष ही तेज है, जो ताकतवर शत्रुओं को भी मार भगाने की क्षमता रखती है।” यह नगर वर्ष 1336 ई0 में पूर्ण कर दिया गया था। यह नगर मुसलमानों के आक्रमण से सुरक्षा पाने के लिये बड़ा उपयुक्त था।”

अनेक संदर्भ इस बात की पुष्टि करते हैं कि विद्यारण्य ने विजयनगर के प्रथम शासक हरिहर के समय से उनकी आगे की तीन पीढिय़ों तक को अपना मार्गदर्शन प्रदान किया था। हरिहर प्रथम ने उन्हें अपने से भी ऊंचा आसन और सम्मान दिया था तथा वैदिक मार्ग प्रतिष्ठाता के सम्मानित सम्बोधन से सम्बोधित किया। जब वे छिहत्तर वर्ष की आयु के थे, उन्होंने राजनैतिक जीवन से भी संन्यास ले लिया। इसके पश्चात वे परम तत्व की साधना में लगा गए, वे शाृंगेरी चले आए और कुछ समय के पश्चात यहाँ के पीठाधीश्वर का पद उन्होंने सुशोभित किया।

कुछ विद्वान शृंगेरी के पीठाधीश्वर और विजयनगर के संस्थापक विद्यारण्य को दो अलग व्यक्ति मानते हैं लेकिन अधिकतम साक्ष्य और संदर्भ उनके एक ही होने का इशारा हैं। माधवाचार्य विद्यायरण्य ने ‘पराशरमाधवीय’ ‘जीवन मुक्ति विवेकपंचदशी’ ‘प्रायश्चित सुधानिधि’ और ‘जैमिनीय न्यायमाला’ जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना भी की है। वर्ष 1386 में उन्होंने यह लोक त्याग दिया था। ऐसे महान मनीषी इस भारत भूमि को प्राप्त हुए हैं यही कारण है कि हमने सैंकड़ों आक्रमण झेले, असंख्य आतताईयों का सामना किया लेकिन अब भी हमारा अपनी सांस्कृतिक पहचान के साथ अस्तित्व बना हुआ है। विजयनगर साम्राज्य का लंबे समय तक बना रहना और मुसलमान आक्रान्ताओं को चुनौती देना निश्चय ही गौरवशाली शासकों के साहस का प्रतिफल था तथापि माधवाचार्य विद्यारण्य जैसे दूरदृष्टा विद्वानों के योगदान को कमतर नहीं आका जा सकता।

 
(लेखक एनएचपीसी में इंजीनियर तथा प्रसिद्ध लेखक हैं।)
साभार-  https://www.bhartiyadharohar.com/ से