आजकल तनाव हमारे वर्तमान जीवन जैसे पर्याय-सा बन गया है। रोजमर्रा की जिन्दगी में हैरान, परेशान होते हुए हम सारा दोष दूसरों के मत्थे मढ़ते रहते हैं और यह पूरी तरह से भुला देते हैं कि इसके लिए कहीं हम खुद भी जिम्मेदार हो सकते हैं। हम यह सोचते ही नहीं कि जीवन के प्रति हमारा अपना नजरिया-आस-पास के लोगों के प्रति अपना स्वयं का दृष्टिकोण भी जिम्मेदार हो सकता है।
मनोवैज्ञानिकों की सलाह मानें तो सबसे पहले हमें अपनी खीज-तनाव के कारण खुद में खोजने चाहिए। आस-पास के लोगों, परिस्थितियों के प्रति अपने नजरिए की छान-बीन करनी चाहिए। ऐसा कर सके तो पता चलेगा कि सारी उद्विग्नता का कारण हमारी मानसिकता का बाहरी वातावरण से संगीत न बैठना है और इसके लिए वातावरण की अपेक्षा हम खुद जिम्मेदार हैं।
एलन वाट्स कहते हैं कि वातावरण जड़ है, सोच-विचार रहित है, जबकि हम स्वयं सचेतन हैं। अपने सोचने-विचारने के तौर-तरीकों में फेर-बदल करना हमारे लिए एक आसान बात है। थोड़े से प्रयास के साथ ही हम वातावरण से समस्वरता स्थापित कर सकते हैं। इसी तरह आस-पास के लोगों के व्यवहार पर टीका-टिप्पणी करना, रह-रहकर उन पर दोषारोपण करना, समस्या का कोई सार्थक समाधान नहीं है। क्योंकि सभी-अपनी प्रवृत्तियों एवं संस्कारों के वशीभूत हैं, फिर औरों पर अपना क्या वश? ऐसे में उन पर खीजने, झल्लाने से हमारा तनाव कम होने की बजाय बढ़ेगा ही, तब क्यों न हम समस्याओं के समाधान अपने अन्दर खोजें।
समय कुछ इस तरह के सांचे में ढल गया है कि लोग ऐसी मशीन बनते जा रहे हैं जिसमें रिश्तों, संबंधों और उनसे जुड़ी भावनाओं की कोई कीमत नहीं है. उल्टे भावनाओं को सफलता की राह में रोड़ा और मजाक की चीज़ मान लिया गया है। यही नहीं, सफलता के लिए एक-दूसरे का पैर खींचने से लेकर दूसरे के कंधे पर चढ़कर आगे निकल जाने की ऐसी होड़ शुरू हो गई है कि किसी को किसी की परवाह नहीं रह गई है. आश्चर्य नहीं कि हर कीमत पर सफलता हासिल करने की होड़ में लगे व्यक्ति के लिए समाज और परिवार की भूमिका लगातार महत्वहीन होती जा रही है या परिवार का दायरा निरंतर संकीर्ण होता जा रहा है।
परिवार का मतलब अधिक से अधिक पति-पत्नी-बच्चे रह गए हैं. इन परिवारों की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वे अपनी ही सफलताओं में इस कदर खोये हुए हैं या रोज के जीवन संघर्षों में ऐसे फंसे हुए हैं कि उनके पास यह जानने-देखने की फुर्सत नहीं है कि उनके पड़ोसी का क्या हाल है? कहने का मतलब यह कि लोग अपनी ही सफलताओं के बंदी हो चुके हैं ।
जाहिर है कि यह सफलता की होड़ की सामाजिक-पारिवारिक कीमत है जिसे बदलते हुए दौर की जरूरत बताकर जायज ठहराने की कोशिश भी की जाती है. लेकिन मुश्किल यह है कि इस नई व्यवस्था में जितने सफल लोग हैं,उनकी तुलना में असफल लोगों की संख्या कहीं ज्यादा है। पिछले कुछ वर्षों में छोटे-बड़े शहरों में भी मध्यवर्गीय पारिवारिक सामूहिक आत्महत्या की घटनाओं में चौंकाने वाली वृद्धि हुई है ।
एक सत्य और है -बाहरी माहौल को प्रभावित करने वाले घटकों की संख्या भी काफी है। चाह कर भी सब पर एक साथ काबू पा सकना हमारे वश में नहीं है। बहुत कोशिशों के बावजूद हम कुछ हद तक ही परिस्थितियों को बदल सकते हैं। हाँ! अपने आन्तरिक दृष्टिकोण में परिवर्तन करना अपना बिल्कुल निजी मामला है। इसके फेर-बदल में हम पूरी तरह स्वतन्त्र ही नहीं सक्षम भी हैं। जब हम अपने परिकर के साथ सहअस्तित्व की अनुभूति के साथ रहते हैं तो तनाव अपने आप दूर हो जाता है। लेकिन नकारात्मक चिन्तन और मन में संचित घृणा, द्वेष, ईर्ष्या और भय के संस्कारों के कारण वातावरण से तालमेल बिठाना थोड़ा मुश्किल जरूर है।
इसके लिए आवश्यक है कि मन से बुरे विचारों का कूड़ा-कचरा निकाल फेंका जाय। लेकिन होता इसका उल्टा है। हममें से प्रायः प्रत्येक व्यक्ति सफलता पाने की तीव्र तृष्णा से ग्रसित है। हर वक्त उसे यह भय सताता रहता है कि कहीं वह असफल न हो जाय। जिससे उसे अपने परिवार तथा परिचितों के बीच शर्मिन्दा न होना पड़े। उसके इस भय को अभिभावक और शिक्षक मिलकर बढ़ा देते हैं। अपनी अस्मिता से जुड़ा यह सवाल इस कदर उसके मन पर छा जाता है कि वह लगातार भर और चिन्ता से ग्रसित रहने लगता है। जीवन का हर कृत्य उसके लिए आपातकालीन कार्य बन जाता है और वह लगातार तनाव में रहने लगता है। ऐसा नहीं हैं कि सफलता के लिए प्रयास कना कोई बुरी बात है। लेकिन यदि अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन किया जा सके तो इसे कर्तव्य भावना से तनाव रहित होकर भी किया जा सकता है।
तनाव मुक्त होकर किए गए प्रयास में सफल होने की उम्मीदें भी अधिक होंगी। यदि इसके साथ देशहित और लोकहित की उदात्त भावनाएँ जोड़ी सकें तो मन हर-हमेशा उत्साह एवं प्रफुल्लता से भरा रहेगा। हमारे किए गए काम के सौंदर्य में भी भारी निखर आ जाएगा। इस प्रकार हमारी पूर्व मान्यताएँ जिन्हें मनोवैज्ञानिक ‘मेण्टल प्रोग्रामिंग’ कहते हैं, हमारे जीवन का निर्धारण करती हैं । गलत एवं निषेधात्मक ‘मेण्टल प्रोग्रामिंग’ हमारे गलत चिन्तन एवं गलत शिक्षा का परिणाम है। इस पर चिंतन ही नहीं, सुविचारित कदम भी उठाये जाने चाहिए। यदि वास्तव में आप इस प्रश्न को लेकर गंभीर हैं तो ऐसे कई उपाय हैं जिनसे आप की ऊर्जा को सकारात्मक और सृजनात्मक दिशा में अग्रसर किया जा सकता है, जहाँ काम स्वयं एक तरह का आनंद और निर्माण का पर्याय बन जाए।
अब इस विचार को हम संस्था के सन्दर्भ में भी थोड़ा समझ लें। मनुष्य की आधारभूत आकांक्षाओं में से एक यह है कि वह जहाँ काम करता है वहाँ से खुद से भी बड़ी किसी चीज़ की आशा करता है। उसकी यह आशा केवल तब पूरी ही सकती है जब संस्था अथवा प्रतिष्ठान में मिलजुलकर कार्य करने का वातावरण हो। इसलिए संस्था प्रमुख की यह अहम जिम्मेदारी हो जाती है कि वह टीम भावना के विकास पर प्राथमिकता से ध्यान दे। इससे टीम के सदस्य महत्त्व का अनुभव करेंगे फलस्वरूप उनमें संस्था के प्रति गर्व बोध भी बना रहेगा. इसका एक और परिणाम यह होगा कि वह काम करने में दिलचस्पी लेगा और अवकाश लेने या टालमटोल रवैये से दूर भी रहेगा। इससे व्यक्ति की कार्यशैली की गुणवत्ता और अंततः संस्था की प्रतिष्ठा और उत्पादकता भी बढ़ेगी। यह तभी संभव है जब हम अपना नजरिया बदलें।
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