चीन की सीमा से निकलकर भारतीय सीमा में दाख़िल होते हुए, ब्रह्मपुत्र अपने साथ जितना पानी ले आती है, उसे किसी भी सूरत में कम करके नहीं आंका जा सकता है.
ब्रह्मपुत्र/यारलुंग सांगपो नदी को लेकर चीन और भारत के बीच जल विवाद को हमेशा ही जल के प्रवाह पर दादागीरी करने वाले चीन की उस बदनीयती की नज़र से देखा जाता है, जिसके ज़रिए वो नीचे की ओर भारत के हितों को चोट पहुंचाना चाहता है. चीन के ग्रैविटी बांध प्रोजेक्ट को लेकर मीडिया में तमाम तरह की चर्चाएं होती देखी गई हैं. ग्रैविटी बांध प्रोजेक्ट असल में चीन के तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र (TAR) के ग्याका में बन रहे ज़ैंगमू बांध का है. भारतीय सीमा के भीतर ब्रह्मपुत्र नदी में आ रहे तमाम बदलावों को तिब्बत में बन रहे इस बांध के हवाले से चीन की साज़िश बताया जाता रहा है. इसकी मिसाल के तौर पर ब्रह्मपुत्र के पानी में बढ़ती गंदगी और अरुणाचल प्रदेश में इसका पानी काला पड़ने (अरुणाचल में यारलुंग सांगपो को सियांग कहा जाता है), चीन द्वारा बारिश के सीज़न में पानी के बहाव के आंकड़े साझा करना अस्थायी तौर पर बंद करने और तिब्बत सीमा के पास चेक डैम बनाने के रूप में दी जाती है. डोकलाम विवाद के दौरान, भारत और चीन ने तेज़ बहाव के दिनों में ब्रह्मपुत्र नदी के पानी के आंकड़े साझा करने के सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए थे.
भारत के लिए इसके कितने गंभीर परिणाम होंगे.
पिछले साल नवंबर के आख़िरी हफ़्ते में भारतीय और वैश्विकमीडिया में ये ख़बरें काफ़ी चर्चित रही थीं कि चीन, तिब्बत में वास्तविक नियंत्रण रेखा के बेहद क़रीब यारलुंग सांगपो पर एक विशाल बांध बनाने की योजना पर काम कर रहा है. कुछ ख़बरों में कहा गया कि चीन के इस क़दम से, ‘भारत की जल सुरक्षा पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा.’ ये प्रस्तावित बांध तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र के मीडॉग गांव में बनने वाला है, जो अरुणाचल प्रदेश के बेहद पास है. अगर नदी के बहाव में बांध की शक्ल में ऐसी बाधा डाली जाती है, तो इसके भारत के लिए कितने गंभीर परिणाम होंगे, उन्हें ब्रह्मपुत्र नदी में पानी के मौजूदा बहाव और बारिश के दौरान इसमें आने वाले बदलाव की दृष्टि से समझने की ज़रूरत है.
सबसे पहले तो हमें ये समझना होगा कि यारलुंग सांगपो/ब्रह्मपुत्र नदी में पानी का प्रवाह और इसके क्षेत्र में होने वाली बारिश का एक दूसरे से क़रीबी संबंध है. भले ही ब्रह्मपुत्र नदी के बहाव में बारिश के साथ साथ बर्फ़ पिघलने और ग्लेशियर के पानी का भी बड़ा योगदान क्यों न हो. अगर हम ब्रह्मपुत्र नदी की पूरी लंबाई के नज़रिए से देखें, तो इसमें पानी के बहाव के स्तर में बर्फ़ और ग्लेशियर पिघलने का योगदान बेहद कम होता है. हालांकि, ब्रह्मपुत्र नदी के ऊपरी इलाक़े, जहां बारिश कम होती है, वहां इसके बहाव का मुख्य स्रोत बर्फ़ और पिघले ग्लेशियर ही हैं. यारलुंग सांगपो/ब्रह्मपुत्र नदी की कुल लंबाई 2880 किलोमीटर है. इसमें से 1625 किलोमीटर का इलाक़ा तिब्बत के पठार से होकर गुज़रता है, जहां नदी को यारलुंग सांगपो के नाम से जाना जाता है. भारत में ब्रह्मपुत्र नदी की लंबाई 918 किलोमीटर है. यहां इसे सियांग, दिहांग और ब्रह्मपुत्र के नाम से जाना जाता है. नदी का बाक़ी का 337 किलोमीटर का हिस्सा बांग्लादेश से होकर गुज़रता है, जहां इसे जमुना कहकर बुलाया जाता है.
बांग्लादेश के गोलांदो में ब्रह्मपुत्र नदी गंगा में मिल जाती है. तीन अलग अलग देशों में ब्रह्मपुत्र नदी की लंबाई के इस वर्णन से ऐसा लगता है कि, ब्रह्मपुत्र नदी में पानी का सबसे ज़्यादा बहाव, तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र (TAR) से होकर गुज़रता है. लेकिन, ये महज़ एक मिथक है! ब्रह्मपुत्र नदी जैसे जैसे आगे बढ़ती है, वैसे वैसे ये ताक़तवर और चौड़ी नदी में तब्दील होती जाती है. यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि नदी को ब्रह्मपुत्र नाम, भारत के असम राज्य के सादिया से मिलता है, जहां तीन सहायक नदियां लोहित, दिबांग और दिहांग मिलकर एक नदी बनती हैं.
नदी के बहाव और बारिश में काफ़ी अंतर देखने को मिलता है. तिब्बत वाले अधिकतर हिस्से में यानी जब इसे यारलुंग नदी कहा जाता है, ये नदी ऐसे इलाक़े से गुज़रती है, जहां हिमालय पर्वत के कारण बारिश बहुत कम होती है. इस क्षेत्र में नदी को बारिश के पानी का योगदान अपने दक्षिणी हिस्से की तुलना में बहुत कम मिलता है. इसीलिए, हिमालय के उस पार यानी उत्तरी इलाक़े में बारिश का वार्षिक औसत जहां लगभग 300 मिलीमीटर है, वहीं दक्षिणी हिस्से में बारिश का वार्षिक औसत लगभग 3000 मिलीमीटर है. पर्वत के तराई वाले इलाक़ो में अक्सर इतनी बारिश होती है कि इससे भयंकर बाढ़ आ जाती है. असम की ब्रह्मपुत्र घाटी के उत्तरी पूर्वी इलाक़े में बारिश का वार्षिक औसत काफ़ी अधिक है और जैसे जैसे ये पश्चिम की ओर बढ़ती है, तो बारिश का औसत कम होता जाता है. सबसे अधिक प्रवाह वाले समय में, ब्रह्मपुत्र नदी का मॉनसून की बारिश से ताक़त मिलती है.
तिब्बत के पठार में नदी का प्रवाह मापने के नुक्शिया और सेला ज़ोंग स्टेशनों में सबसे अधिक जल प्रवाह लगभग पांच हज़ार और दस हज़ार क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड (cumecs) है. वहीं असम के गुवाहाटी में पानी के प्रवाह का उच्चतम स्तर 55 हज़ार क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड है. नुक्शिया में कम प्रवाह के दिनो का औसत 300 से 500 क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड होता है, तो भारत के पासीघाट में ये दो हज़ार क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड होता है. वहीं, गुवाहाटी में कम पानी के प्रवाह वाले दिनों में ब्रह्मपुत्र में पानी का बहाव चार हज़ार क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड से अधिक तो बहादुराबाद में ये पांच हज़ार क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड के आस-पास होता है.
कुल मिलाकर हम ये कह सकते हैं कि नुक्शिया में ब्रह्मपुत्र नदी में पानी के वार्षिक बहाव 31.2 अरब क्यूबिक मीटर (BCM) की तुलना, पांडु/गुवाहाटी में वार्षिक बहाव (494 BCM) या बांग्लादेश के बहादुराबाद में वार्षिक प्रवाह (625 BCM) से नहीं की जा सकती है. इसके साथ साथ, नदी के पानी में तलछट की मात्रा में भी इसी तरह का अंतर देखा जाता है. तिब्बत के पठारी इलाक़ों में यारलुंग सांगपो नदी के पानी में तलछट की बहुत अधिक मात्रा नहीं होती है. इसकी तुलना में भारतीय सीमा में बहने वाली ब्रह्मपुत्र नदी के पानी में इतना पानी होता है कि वो तलछट को भी अपने साथ बहा सके. भारत की सीमा में ब्रह्मपुत्र नदी में पानी और तलछट की अधिक मात्रा होने में इसकी बहुत सी बड़ी सहायक नदियों दिबांग, दिहांग (सियांग), लोहित, सुबांसिरी, मनास, संकोश और तीस्ता वग़ैरह का भी योगदान होता है. जहां नुक्शिया में तलछट का वार्षिक औसत लगभग 3 करोड़ टन होता है (जैसा कि 2016 में वांग और साथियों द्वारा लिखे गए रिवर मॉर्फोडायनामिक्स ऐंड स्ट्रीम इकोलॉजी ऑफ़ द क़िंघाई–तिब्बत प्लेट्यू में कहा गया है). वहीं बांग्लादेश के बहादुराबाद में औसत वार्षिक तलछट की मात्रा 73.5 करोड़ टन मापी गई है.
यहां हमें एक और बात भी ध्यान में रखनी होगी. भारत के जल संसाधन मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, ब्रह्मपुत्र में कुल इस्तेमाल के लायक़ पानी की संभावित मात्रा (PUWR) केवल 25 प्रतिशत होती है. इसीलिए बारिश पानी के बहाव और तलछट की मात्रा को देखते हुए अगर हिमालय के उस पार यारलुंग सांगपो नदी पर कोई बांध बनाया भी जाता है, तो उससे भारत और बांग्लादेश पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, भले ही चीन का इरादा कुछ भी हो. जैंगमू प्रोजेक्ट जिस जगह स्थित है, उसके लिहाज़ से तो ये बात और तार्किक मालूम होती है.
अनदेखी नहीं की जानी चाहिए
लेकिन, हम यही बात तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र के मीडॉग गांव में बनने वाले प्रोजेक्ट को लेकर नहीं कह सकते. इसकी वजह ये है कि तिब्बत का मीडॉग गांव, हिमालय के दक्षिणी हिस्से में पड़ता है, जहां पर यारलुंग नदी की मुख्य धारा में पारलुंग सांगपो नदी का पानी मिलने से ये और ताक़तवर हो जाती है. मीडॉग में वार्षिक औसत बारिश के जो आंकड़े हमने फिगर-1 में दिखाए हैं, उनके अनुसार वहां बरसात का सालाना औसत लगभग तीन हज़ार मिलीमीटर है. जो नुक्शिया के वार्षिक औसत 500 मिलीमीटर से काफ़ी अधिक है. इसके अलावा यारलुंग नदी जहां से चीन की सीमा से बाहर निकलती है, वहां उसमें कितना पानी होता है, इसे लेकर भी विवाद है. चीन के कुछ विद्वानों का अनुमान है कि उस समय यारलुंग नदी में 135.9 अरब क्यूबिक मीटर (BCM) पानी होता है. वहीं, भारत के जलशक्ति मंत्रालय के आंकड़े कहते हैं कि भारतीय सीमा में प्रवेश करते वक़्त यारलुंग सांगपो में 78.1 अरब घन मीटर (BCM) पानी होता है. दोनों ही देशों के आंकड़ों में अंतर बहुत अधिक है. हालांकि भारत के कुछ पुराने अनुमानों के मुताबिक़, अरुणाचल प्रदेश के टुटिंग में यारलुंग सांगपो नदी में पानी 179 अरब घन मीटर होता है. इसीलिए प्रतिशत के लिहाज़ से देखें, तो चीन की सीमा से भारत में प्रवेश करते वक़्त, नदी में जो पानी होता है, उसकी मात्रा इतनी भी कम नहीं होती कि उसकी अनदेखी कर दी जाए. भले ही पानी की ये मात्रा असम में ब्रह्मपुत्र के बाढ़ वाले मैदानी इलाक़ों या बांग्लादेश में जमुना नदी के प्रवाह वाले इलाक़ों के लिहाज़ से कोई मायने न रखती हो.
चीन के बांध को लेकर अब दो तरह की चिंताएं हैं. आदर्श स्थिति में चीन को ऐसा बांध बनाना चाहिए, जिससे निचले इलाक़ों की ओर नदी के प्रवाह पर कोई फ़र्क़ न पड़े. मगर, इससे तिब्बत में नदी की पारिस्थितिकी या इकोसिस्टम पर विपरीत असर पड़ सकता है, और इसका कुछ प्रभाव हम अरुणाचल प्रदेश में भी देख सकते हैं. हालांकि, हम इस बात को लेकर निश्चिंत नहीं हो सकते कि जब नदी में पानी कम होता है, तो उस दौरान रन ऑफ़ द रिवर प्रोजेक्ट से भारत में आने वाले पानी पर कोई बुरा असर नहीं पड़ेगा. तो, अगर चीन अपने बांध के ज़रिए यारलुंग सांगपो नदी का कुछ पानी जलाशय में जमा करता है, तो इसका कुछ असर अरुणाचल प्रदेश में नदी में पानी की उपलब्धता पर पड़ सकता है. हालांकि, सादिया के बाद के प्रवाह पर इसका कोई ख़ास असर नहीं पड़ेगा.
चीन के यारलुंग सांगपो पर बांध बनाने से जो दूसरा प्रभाव पड़ने आशंका है, वो अधिक चिंता वाली बात है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि हमारे अपने रिसर्च के मुताबिक़, तिब्बतसे जहां यारलुंग नदी तीखा मोड़ लेते हुए, भारत में दाख़िल होती है, उस ग्रेट बेंड वाले इलाक़े में यिगॉन्ग सांगपो, पारलुंग सांगपो और लोअर यारलुंग में भारी बारिश होती है. यहां पर भूस्खलन और हिमस्खलन से अचानक बाढ़ आने की घटनाएं होने का डर रहता है. इस इलाक़े में हर साल कम से कम ऐसी दस या इससे भी अधिक प्राकृतिक आपदाएं आने की आशंका होती है. इसके अलावा मीडॉग में भी हर साल ऐसी औसतन 12 से 15 आपदाएं आती हैं. सबसे बड़ी चिंता तो पूर्वी हिमालय के एक बड़े हिस्से में ज़लज़ले को लेकर होती है. अगर भूकंप आता है, तो इससे बांध टूटने या दूसरी ऐसी दुर्घटनाएं होने की आशंका है, जिसका फौरी असर ख़ास तौर से अरुणाचल प्रदेश में देखने को मिल सकता है, और वहां पर अचानक बाढ़ आ सकती है.
आंकड़ों की कमी के कारण हमारे इस विश्लेषण की भी अपनी सीमाएं हैं. अगर पर्याप्त आंकड़े होते, तो हम परिस्थिति का बेहतर विश्लेषण कर सकते थे; लेकिन, हमें कुछ निष्कर्षों पर पहुंचने के लिए अलग अलग स्रोतों से आंकड़े जुटाने पड़े. अभी हमारे पास जितने आंकड़े हैं, उनके आधार पर ये निष्कर्ष निकाला जाता सकता है, कि मीडॉग में चीन द्वारा बनाए जाने वाले बांध का अरुणाचल प्रदेश पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है. लेकिन, अभी ऐसा नहीं लगता कि इसका कोई असर असम या बांग्लादेश पर पड़ेगा. ऐसे में मीडिया में जो दावा किया गया है कि… ‘इससे उत्तर पूर्वी भारत की जल सुरक्षा पर दूरगामी परिणाम होंगे’, वो बात को बढ़ा-चढ़ाकर कहने की मिसाल है. फिर भी, आज ज़रूरत इस बात की है कि सीमा के आर पार जल के प्रवाह के आंकड़ों को भारत सरकार द्वारा सार्वजनिक किया जाए. इससे भारत को सटीक जल कूटनीति अपनाने के लिए स्वतंत्र रूप से विश्लेषण प्राप्त करने का मौक़ा मिलेगा. ग़लत जानकारी से नुक़सान ज़्यादा हो रहा है!
साभार- https://www.orfonline.org/ से