प्रधानमंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने निजी तौर पर जामा मस्जिद के शाही इमाम को पत्र लिखा था और उन्हें यह भरोसा दिया था कि मुगलकालीन मस्जिद को संरक्षित स्मारक का दर्जा नहीं दिया जाएगा। यह जानकारी आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की ओर से दिल्ली हाई कोर्ट में दिए गए एक पत्र से सामने आई है। हाई कोर्ट पिछले एक दशक से ज्यादा वक्त से यह पता लगाने की कोशिश कर रहा है कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने जामा मस्जिद को संरक्षित स्मारक घोषित करने से क्यों इनकार कर दिया था।
20 अक्टूबर 2004 को लिखे गए पत्र में तत्कालीन पीएम ने इमाम को लिखा था कि उन्होंने संस्कृति मंत्रालय और एएसआई को निर्देश दे दिया है कि वे मरम्मत का काम पूरा 'तय वक्त में' पूरा कर दें। इस मरम्मत का अनुरोध इमाम ने 10 अगस्त 2004 के लेटर में किया था। पीएम ने उन्हें लेटर में यह भी बताया था कि मंत्रालय ने तय किया है कि जामा मस्जिद को संरक्षित स्मारक घोषित नहीं किया जाएगा।
कोर्ट में 15 दिनों पहले दाखिल अपने जवाब में एएसआई ने कहा कि जामा मस्जिद को केंद्र सरकार के तहत संरक्षित स्मारक का दर्जा देने का मुद्दा उठा था, लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री ने शाही इमाम को 'भरोसा' दिया था कि मस्जिद को संरक्षित स्मारक घोषित नहीं किया जाएगा। एएसआई ने अपने पत्र में लिखा है, 'जामा मस्जिद संरक्षित स्मारक नहीं है, फिर भी इसके ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए एएसआई 1956 से ही समय-समय पर रखरखाव का काम अपने खर्च पर करता रहा है। इसका पैसा संस्कृति मंत्रालय देता रहा है, न कि शाही इमाम या वक्फ बोर्ड।'
इस संबंध में ईटी के सवालों के जवाब मनमोहन सिंह ने नहीं दिए। बुखारी से टिप्पणी के लिए संपर्क नहीं हो सका। पिछले 11 वर्षों में दिल्ली हाई कोर्ट की कई पीठों ने जामा मस्जिद को संरक्षित स्मारक घोषित न करने के निर्णय से जुड़ी फाइल की कॉपी मांगी है। ऐसा एक निर्देश 27 अप्रैल 2005 को कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली डिवीजन बेंच ने दिया था।
कोर्ट ने 2004 में दाखिल की गई एक पीआईएल के संबंध में कदम उठाए थे। पीआईएल में मांग की गई थी कि अथॉरिटीज को जामा मस्जिद को संरक्षित स्मारक घोषित करने और उसके अंदर और आसपास से अतिक्रमण हटाने का निर्देश दिया जाए। पिछले साल नवंबर में सुहैल अहमद खान ने अपने वकील देविंदर पाल सिंह के जरिये दाखिल एक पीआईएल में शाही इमाम के बेटे की दस्तारबंदी को चुनौती दी थी और मस्जिद के मैनेजमेंट की सीबीआई जांच की मांग की थी।
दिल्ली वक्फ बोर्ड के वकील ने कहा था कि जामा मस्जिद वक्फ की प्रॉपर्टी है, लेकिन वह यह नहीं समझा सके कि मस्जिद की देखरेख में बोर्ड ने अपने अधिकार का कोई इस्तेमाल क्यों नहीं किया है। बोर्ड भी कोर्ट के इस सवाल का जवाब नहीं दे सका कि उसने मस्जिद के पूरे मैनेजमेंट का जिम्मा मौलाना सैयद अहमद बुखारी पर क्यों छोड़ दिया है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के फाउंडर मेंबर कमाल फारूकी ने ईटी से कहा, 'जामा मस्जिद को अगर संरक्षित स्मारक घोषित किया जाता है तो इसमें क्या दिक्कत हो सकती है। हालांकि एएसआई को यह लिखित गारंटी देनी होगी कि मस्जिद में नमाज पढ़ने पर कभी कोई रोक नहीं लगेगी। साथ ही, उसे अपने तहत आने वाली 53 मस्जिदों में नमाज की इजाजत देनी चाहिए।'
साभार- इकॉनामिक टाईम्स से