कोरोना के इन 55 दिनों में मुझे दो हिंदुस्तान साफ-साफ दिख रहे हैं। एक हिंदुस्तान वह है, जो सचमुच कोरोना का दंश भुगत रहा है और दूसरा हिंदुस्तान वह है, जो कोरोना को घर में छिपकर टीवी के पर्दों पर देख रहा है। क्या आपने कभी सुना कि आपके किसी रिश्तेदार या किसी निकट मित्र का कोरोना से निधन हो गया है ? मैंने तो अभी तक नहीं सुना। क्या आपने सुना कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री की तरह हमारा कोई नेता, कोई मंत्री, कोई सांसद या कोई विधायक कोरोना का शिकार हुआ है ? हमारे सारे नेता अपने-अपने घरों में दुबके हुए हैं। देश के लगभग हर प्रांत में मेरे सैकड़ों-हजारों मित्र और परिचित हैं लेकिन सिर्फ एक संपन्न परिवार के सदस्यों ने बताया कि उनके यहां तीन लोग कोरोना से पीड़ित हो गए हैं। मैंने पूछा कि यह कैसे हुआ ? उनका अंदाज था कि यह उनके घरेलू नौकर, ड्राइवर या चौकीदार से उन तक पहुंचा होगा। यानि कोरोना का असली शिकार कौन है ? वही दूसरावाला हिंदुस्तान ! इस दूसरे हिंदुस्तान में कौन रहता है ? किसान, मजदूर, गरीब, ग्रामीण, कमजोर और नंगे-भूखे लोग !
वे चीन या ब्रिटेन या अमेरिका जाकर कोरोना कैसे ला सकते थे ? उनके पास तो दिल्ली या मुंबई से अपने गांव जाने तक के लिए पैसे नहीं होते। यह कोरोना भारत में जो लोग जाने-अनजाने लाए हैं, वे उस पहले हिंदुस्तान के वासी हैं। वह है, इंडिया ! वे हैं, देश के 10 प्रतिशत खाए-पीए-धाए हुए लोग और जो हजारों की संख्या में बीमार पड़ रहे हैं, सैकड़ों मर रहे हैं, वे लोग कौन हैं ? वे दूसरे हिंदुस्तान के वासी हैं। वे ‘इंडिया’ के नहीं, ‘भारत’ के वासी हैं। इन भारतवासियों में से 70-80 करोड़ ऐसे हैं, जो रोज कुआ खोदते हैं और रोज़ पानी पीते हैं। उनके पास महिने भर की दाल-रोटी का भी बंदोबस्त नहीं होता। इन्हीं लोगों को हम ट्रकों में ढोरों की तरह लदे हुए, भयंकर गर्मी में नंगे पांव सैकड़ों मील सफर करते हुए, थककर रेल की पटरी पर हमेशा के लिए सो जाने के लिए और सड़कों पर दम तोड़ते हुए रोज देख रहे हैं। सरकारें उनके लिए भरसक मदद की कोशिशें कर रही हैं, लेकिन उनसे भी ज्यादा भारत की महान जनता कर रही है।
आज तक एक भी आदमी के भूख से मरने की खबर नहीं आई है। यदि सरकारें, जैसा कि मैंने 25 मार्च को ही लिखा था, प्रवासी मजदूरों को घर-वापसी की सुविधा दे देतीं तो हमें आज पत्थरों को पिघलाने वाले ये दृश्य नहीं देखने पड़ते। आज भी ‘भारत’ के हर वासी के लिए सरकार अपने अनाज के भंडार खोल दे और कर्जे देने की बजाय दो-तीन माह के लिए दो सौ या ढाई सौ रुपए रोज का जीवन-भत्ता दे दे तो हमारे ‘इंडिया’ की सेवा के लिए यह भारत फिर उठ खड़ा होगा।
www.drvaidik.in से साभार
आदरणीय वैदिक साहब मैंने आपका यह लेख पढ़ा और बहुत दुख हुआ इसको पढ़कर के लेकिन मैं यह भी सोच रहा हूं यह मेरी व्यक्तिगत विचार है कि क्या 200 ढाई ₹100 और अनाज के भंडार तो सरकार ने खोल ही दिए हैं ₹200 देकर के दैनिक भत्ता देकर कि क्या भारत को या उन लोगों को आत्मनिर्भर किया जा सकता है मेरे ख्याल से यह फौरी राहत होगी लेकिन दूरदर्शी या दूरगामी परिणाम देखने के लिए जितने भी प्रवासी मजदूर जो कि शहरों से लौटे हैं और जिन्हें बहुत अधिक परिश्रम करके स्किल्ड हुए हैं उन लोगों को अब शहर वापस ना जाते हुए अपने ही गांव अपने ही कस्बे में उस सारी टेक्निक्स वह सारे काम धंधे जो उन्होंने शहरों में सीखे हैं अगर वह अपनी सारी मेहनत अपने गांव के लिए लगाएं अपने गांव के देश अपने परिवार जहां है वहीं के लिए लगाएं तो आने वाले भविष्य में कभी प्रवासी मजदूरों की समस्या नहीं होगी और मुझे तो यहां तक लगता है कि लोग शहर जाना ही बंद कर देंगे अगर वे लोग अपने अपने गांव को सुधर सक्षम इंफ्रास्ट्रक्चर से डिवेलप कर दें तो सरकार को कुछ ऐसी योजनाएं बनानी चाहिए कि अब वे शहरों को वापस ना हो और अपने गांव में रहते हुए अपने परिवार के साथ कुछ ऐसे कामों में जुट जाएं जिससे कि वह हर एक गांव का नक्शा बदल दे फिर गांव और शहर के बीच में बहुत ज्यादा अंतर ना रहने दें इससे बहुत सारी इंडस्ट्रीज भी हमारी गांव में जाएगी छोटी मोटी इस तरीके से पर्यावरण को भी किसी एक जगह पर पर्यावरण की समस्या नहीं रहेगी जैसे दिल्ली इंदौर मुंबई में सारी फैक्ट्रियां अलग-अलग गांव में अलग-अलग परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग जगहों में होंगी तो प्रदूषण भी कम होगा और हर जगह पूर्ण समानता तो नहीं लेकिन हम समानता की ओर एक कदम अग्रसर जरूर हो जाएंगे शायद अंतोदय अब हो सकता है अगर सरकार इसको पूर्ण इच्छाशक्ति से करने के लिए कुछ उपाय कारगर उपाय करें।
धन्यवाद