कालजयी जीवनी आवारा मसीहा के रचियता सुप्रसिद्ध साहित्यकार विष्णु प्रभाकर कहते थे कि एक साहित्यकार को केवल यह नहीं सोचना चाहिए कि उसे क्या लिखना है, बल्कि इस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए कि क्या नहीं लिखना है. वह अपने लिखने के बारे में कहते थे कि प्रत्येक मनुष्य दूसरे के प्रति उत्तरदायी है, यही सबसे बड़ा बंधन है और यह प्रेम का बंधन है. उन्होंने लेखन को नए आयाम प्रदान किए. उनके लेखन में विविधता है, जीवन का मर्म है, मानवीय संवेदनाएं हैं. अपनी साहित्यिक शक्तियों के बारे में उनका कहना था, मेरे साहित्य की प्रेरक शक्ति मनुष्य है. अपनी समस्त महानता और हीनता के साथ, अनेक कारणों से मेरा जीवन मनुष्य के विविध रूपों से एकाकार होता रहा है और उसका प्रभाव मेरे चिंतन पर पड़ता है. कालांतर में वही भावना मेरे साहित्य की शक्ति बनी. त्रासदी में से ही मेरे साहित्य का जन्म हुआ. वह मानतावादी थे. वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के दर्शन और सिद्धांतों से प्रभावित थे. वह कहते थे, सहअस्तित्व में मेरा पूर्ण विश्वास है. यही सहअस्तित्व मानवता का आधार है. इसीलिए गांधी जी की अहिंसा में मेरी पूरी आस्था है. मैं मूलत: मानवतावादी हूं अर्थात उत्कृष्ट मानवता की खोज ही मेरा लक्ष्य है. वर्गहीन अहिंसक समाज किसी दिन स्थापित हो सकेगा या नहीं, लेकिन मैं मानता हूं कि उसकी स्थापना के बिना मानवता का कल्याण नहीं है. उनकी रचनाओं में लोक जीवन की सुगंध है. उदाहरण देखिए, यह कैसी ख़ुशबू है? क्या यह ईख के खेतों से तो नहीं आ रही? हां, यह वही से आ रही. यह भीनी-भीनी गंध और वह, उधर मकई के खेतों से आने वाली मीठी-मीठी महक.
विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून, 1912 को उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के गांव मीरापुर में हुआ. उनका असली नाम विष्णु दयाल था. उनका पारिवारिक वातावरण धार्मिक था, जिसका उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा. उनके पिता दुर्गा प्रसाद धार्मिक विचारों वाले व्यक्ति थे. उनकी माता महादेवी शिक्षित महिला थीं, जो कुपर्थाओं का विरोध करती थीं. उन्होंने पर्दाप्रथा का भी घोर विरोध किया था. विष्णु प्रभाकर की पत्नी सुशीला भी धार्मिक विचारधारा वाली महिला थीं. विष्णु प्रभाकर का बाल्यकाल हरियाणा में गुज़र. उन्होंने वर्ष 1929 में हिसार के चंदूलाल एंग्लो-वैदिक हाई स्कूल से दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की. तत्पश्चात् परिवार की आर्थक तंगी के कारण उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी भी कर ली. वह चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी के तौर पर काम करते थे. उस समय उन्हें प्रतिमाह 18 रुपये मिलते थे. उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से भूषण, प्राज्ञ, विशारद, प्रभाकर आदि की हिंदी-संस्कृत परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं. उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से ही स्नातक भी किया. उनकी पहली कहानी 1931 में हिंदी मिलाप में प्रकाशित हुई. इस कहानी को बहुत सराहा गया. परिणामस्वरूप उन्होंने लेखन को ही अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लिया. पहले वह प्रेमबंधु और विष्णु नाम से लेखन करते थे, परंतु बाद में उन्होंने अपने नाम के साथ प्रभाकर शब्द जोड़ लिया और विष्णु प्रभाकर नाम से लिखने लगे. हिसार में रहते हुए उन्होंने नाटक मंडली में भी काम किया. देश के स्वतंत्र होने के बाद वह दिल्ली में बस गए और आजीवन दिल्ली में ही रहे. उन्होंने 1955 से 1957 तक दिल्ली आकाशवाणी में नाट्य निर्देशक के तौर पर कार्य किया. इसके बाद उन्होंने लेखन को ही अपनी जीविका बना लिया.
विष्णु प्रभाकर ने कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, निबंध, एकांकी, यात्रा-वृत्तांत और कविता आदि प्रमुख विधाओं में लगभग सौ कृतियां लिखीं, परंतु आवारा मसीहा उनकी पहचान का पर्याय बन गई. उनके कहानी संग्रहों में आदि और अंत, एक आसमान के नीचे, अधूरी कहानी, संघर्ष के बाद, धरती अब भी धूम रही है, मेरा वतन, खिलौने, कौन जीता कौन हारा, तपोवन की कहानियां, पाप का घड़ा, मोती किसके सम्मिलत हैं. बाल कथा संग्रहों में क्षमादान, गजनंदन लाल के कारनामे, घमंड का फल, दो मित्र, सुनो कहानी, हीरे की पहचान सम्मिलत हैं. उनके उपन्यासों में ढलती रात, स्वप्नमयी, अर्द्धनारीश्वर, धरती अब भी घूम रही है, पाप का घड़ा, होरी, कोई तो, निशिकांत, तट के बंधन तथा स्वराज्य की कहानी सम्मिलत हैं. उनके नाटकों में सत्ता के आर-पार, हत्या के बाद, नवप्रभात, डॉक्टर, प्रकाश और परछाइयां, 'बारह एकांकी, अब और नहीं, टूट्ते परिवेश, गांधार की भिक्षुणी और अशोक सम्मिलत हैं. उन्होंने जीवनियां भी लिखी हैं, जिनमें आवारा मसीहा और अमर शहीद भगत सिंह सम्मिलत हैं. उन्होंने यात्रा वृतांत भी लिखे हैं. इनमें ज्योतिपुंज हिमालय, जमुना गंगा के नैहर में, हंसते निर्झर दहकती भट्ठी सम्मिलत हैं. उन्होंने संस्मरण हमसफ़र मिलते रहे भी लिखा है. उन्होंने कविताएं भी लिखी हैं. उन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी, जो कई भागों में प्रकाशित हुई.
विष्णु प्रभाकर की पहचान कहानीकार के रूप में रही है, परंतु उन्होंने कविताएं भी लिखी हैं. उनका एक कविता संग्रह चलता चला जाऊंगा नाम से प्रकाशित हुआ है. उनकी कविताओं में जीवन दर्शन ही नहीं, मानव संवेदनाओं का मर्म है.
कितनी सुंदर थी
वह नन्हीं-सी चिड़िया
कितनी मादकता थी
कंठ में उसके
जो लांघ कर सीमाएं सारी
कर देती थी आप्लावित
विस्तार को विराट के
कहते हैं
वह मौन हो गई है-
पर उसका संगीत तो
और भी कर रहा है गुंजरित-
तन-मन को
दिगदिगंत को
इसीलिए कहा है
महाजनों ने कि
मौन ही मुखर है,
कि वामन ही विराट है
उनकी उत्कृष्ट रचनाओं के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. उनकी आवारा मसीहा सर्वाधिक चर्चित जीवनी है, जिसके लिए उन्हें पाब्लो नेरूदा सम्मान, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार सदृश अनेक देशी-विदेशी पुरस्कार मिले. उन्हें उपन्यास अर्द्धनारीश्वर के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया. प्रसिद्ध नाटक सत्ता के आर-पार के लिए उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा मूर्तिदेवी पुरस्कार मिला तथा हिंदी अकादमी दिल्ली द्वारा शलाका सम्मान प्रदान किया गया. उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का गांधी पुरस्कार तथा राजभाषा विभाग बिहार के डॉ. राजेंन्द्र प्रसाद शिखर सम्मान से भी सम्मानित किया गया. उन्हें पद्मभूषण पुरस्कार भी प्रदान किया गया, किंतु राष्ट्रपति भवन में उचित व्यवहार न होने के विरोध स्वरूप उन्होंने पद्म भूषण की उपाधि लौटाने की घोषणा की.
यशस्वी साहित्यकार विष्णु प्रभाकर 11 अप्रैल, 2009 को इस संसार चले गए. संसार से जाते-जाते भी वह अपना शरीर दान कर गए. उन्होंने अपनी वसीयत में अपने संपूर्ण अंगदान करने की इच्छा व्यक्त की थी. इसीलिए उनका अंतिम संस्कार नहीं किया जा सका, बल्कि उनके पार्थिव शरीर को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को सौंप दिया गया. विष्णु प्रभाकर ऐसे मानवतावादी व्यक्तित्व के धनी थे.
संपर्क
डॉ. सौरभ मालवीय
सहायक प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी
राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल
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