उच्चतम न्यायालय ने 395 पृष्ठों के अपने फैसले के अंत में केवल एक पंक्ति लिखा है- 3ः2 के बहुमत से तलाक-ए-विद्दत यानी तीन तलाक की प्रथा को समाप्त किया जाता है। इस पंक्ति के बाद किसी प्रकार के किंतु-परंतु की गुंजाइश नहीं रह जाती है जैसा कुछ लोग फैसले की व्याख्या कर रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे. एस. खेहर सहित पांच न्यायाधीशों की पीठ में कई मुद्दों पर एक राय नहीं थी। किंतु अंतिम फैसला मान्य होता है। इसलिए अब भारतवर्ष में कोई मुस्लिम पति अपनी झनक में किसी तरीके से तीन बार तलाक कहकर अपनी पत्नी को अलग नहीं कर सकता। वास्तव में यह एक ऐतिहासिक फैसला है।
मुस्लिम महिलाओं को अन्य मजहबों की महिलाओं के साथ समानता के आधार पर खड़ा करने वाले इस फैसले का प्रगतिशील तबके ने खुले दिल से स्वागत किया है। भारत के लिए यह राहत का विषय है कि हमारे यहां की राजनीति तो फैसला करने में इस बात का विचार करती है कि इसे बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक किस तरह से लेंगे, फलां जाति या समुदाय इस पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करेगी और इस कारण बहुत सारे फैसले जो होेने चाहिए नहीं होते। किंतु न्यायालय इससे पूरी तरह बची हुई है। उसके यहां केवल तथ्य, संविधान और न्याय का आधार चलता है। जो भी व्यवस्था, परंपरा, निर्णय, प्रथा…आदि संविधान की कसौटी पर खरे नहीं हैं, न्याय की कसौटी के विरुद्ध हैं उनको रद्द करने में न्यायालय कभी भी हिचकता नहीं। ऐसा नहीं होता तो जिस तरह से तीन तलाक की प्रथा को इस्लाम का मजहबी विषय मानते हुए एक बड़े तबके ने इसमें हस्तक्षेप करने का विरोध किया था उसमें ऐसा फैसला नहीं आ पाता।
बहरहाल, अब मुस्लिम महिलाओं के हाथों यह ताकत आ गई है कि कोई पुरुषवादी अहं में यदि किसी महिला को तीन तलाक कहकर उसे घर से बाहर करने की कोशिश करता है तो वह उसे न्यायालय के कठघरे में खड़ा कर सकता है। साफ है कि पुरुष का वहां कुछ नहीं चलेगा। फैसला पढ़ने से प्रथमदृष्ट्या ऐसा लगता है कि शीर्ष अदालत ने एक साथ तीन तलाक की प्रथा को असंवैधानिक और अवैध करार दिया है। निश्चय ही इसके साथ कई सवाल उठते हैं। मसलन, इस फैसले को किस प्रकार से लागू किया जाएगा? क्या इस फैसले को लागू कराने के लिए किसी नई व्यवस्था की जरूरत है? जैसा हम जानते हैं मुख्य न्यायाधीश केहर एवं न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर ने संसद से इसके बारे में कानून बनाने को कहा था। किंतु तीन न्यायाधीशों न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ, न्यायमूर्ति आर.एफ. नरीमन और न्यायमूर्ति यू.यू. ललित ने एक साथ तीन तलाक को संविधान का ही उल्लंघन करार दे दिया। इस प्रकार इस व्यवस्था को स्थायी रुप से खत्म कर दिया गया। इसलिए सरकार कानून लाए या नहीं यदि कोई पति एक साथ तीन तलाक देता है तो इससे शादी खत्म नहीं मानी जाएगी। इसके अलावा पत्नी भी उसकी पुलिस में शिकायत करने और घरेलू हिंसा के तहत शिकायत दर्ज करने को स्वतंत्र होगी। वस्तुतः सरकार की ओर से कहा गया है कि इसके लिए जो घरलू हिंसा कानून है उसे ही पर्याप्त माना जाना चाहिए।
देखते हैं भविष्य में क्या होता है। किंतु इस फैसले को पूरा पढ़ने से यह साफ हो जाता है कि न्यायालय ने किसी भी पहलू को छोड़ा नहीं है। मसलन, कुरान क्या कहता है, इस्लाम के जो कई पंथ हैं उनका क्या विचार है, इस्लामी विद्वानों ने इस पर क्या लिखा है, तीन तलाक की प्रथा कब से आरंभ हुई एवं इसका आधार क्या था, इस्लामिक देशों में तलाक की व्यवस्थाएं किस तरह की हैं, किन-किन देशों में क्या-क्या कानून हैं, भारत में इसकी क्या दशा है, यह किस तरह संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है आदि। इसे खत्म करने के विरोधियों ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तथा जमीयत ए उलेमा ए हिन्द ने जो तर्क दिया उसे भी फैसले में पूरा स्थान दिया गया है। जाहिर है, कोई भी विवेकशील व्यक्ति इस फैसले से असंतुष्ट नहीं हो सकता है। हां, कट्टरपंथियों की बात अलग है। या जो मजहब को ठीक से नहीं समझते हैं और जो कठमुल्लाओं की बातों में आ जाते हैं उनकी प्रतिक्रिया भिन्न है। किंतु इससे अब कोई अंतर नहीं आने वाला। 32 वर्ष पूर्व उच्चतम न्यायालय ने शाहबानो मामले में एक फैसला दिया था। उसने उसके पति को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था। इसके खिलाफ देश भर में विरोध प्रदर्शन होने लगा था। इसे मजहब में दखल बताया गया तथा सरकार दबाव में आ गई। इसके बाद तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला कानून बनाकर न्यायालय के आदेश को पलट दिया था।
किंतु इस समय स्थिति अलग है। स्वयं प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस भाषण में कहा था कि अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत मुस्लिम महिलाओं का सरकार समर्थन करती है। इसलिए कुछ भी हो जाए इस फैसले के पलटे जाने की कोई संभावना नहीं है। केन्द्र सरकार की ओर से न्यायालय में जो तर्क दिया गया वही साबित करता है कि न्यायालय से वह इसी प्रकार का फैसले की उम्मीद कर रहा था। उसने जो तर्क दिए उसे देखिए। 1-तीन तलाक महिलाओं को संविधान में मिले बराबरी और गरिमा से जीवन जीने के हक का हनन है। 2-यह मजहब का अभिन्न हिस्सा नहीं है, इसलिए इसे मजहबी आजादी के मौलिक अधिकार में संरक्षण नहीं दिया जा सकता। 3-पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित 22 मुस्लिम देश इसे खत्म कर चुके हैं। 4- मजहबी आजादी का अधिकार बराबरी और सम्मान से जीवन जीने के अधिकार के अधीन है। 5-उच्चतम न्यायालय मौलिक अधिकारों का संरक्षक है। न्यायालय को विशाखा की तरह फैसला देकर इसे खत्म करना चाहिए। केंद्र ने साफ कहा था कि संविधान कहता है कि जो भी कानून मौलिक अधिकार के खिलाफ है, वह कानून असंवैधानिक है। यानी न्यायालय को इस मामले को संविधान के दायरे में देखना चाहिए। यह मूल अधिकार का उल्लंघन करता है। तीन तलाक महिलाओं के मान-सम्मान और समानता के अधिकार में दखल देता है। ऐसे में इसे असंवैधानिक घोषित किया जाए। सरकार ने यह भी कहा था कि पर्सनल लॉ मजहब का हिस्सा नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 25 के दायरे में शादी और तलाक नहीं हैं। साथ ही वह पूर्ण अधिकार भी नहीं है। शरीयत कानून 1937 में बनाया गया था। अगर कोई कानून लिंग समानता, महिलाओं के अधिकार और उसकी गरिमा को प्रभावित करता है तो वह कानून अमान्य होगा और ऐसे में तीन तलाक अवैध है। जाहिर है, केन्द्र सरकार ने भी मामले को गंभीरता से लिया था एवं तीन तलाक के खिलाफ काफी ठोस तर्क दिए थे। इसलिए उसके पीछे हटने का सवाल ही नहीं है।
जो लोग इसे मजहब के खिलाफ मानते हैं उनके बारे में फैसले में कुछ बातें साफ लिखी गईं हैं। एक साथ तीन तलाक को असंवैधानिक करार देने वाले बहुमत के फैसले में शामिल न्यायमूर्ति आर.एफ नरीमन ने लिखा है कि इस्लाम में शादी एक कॉन्ट्रैक्ट की तरह है और इसे निश्चित परिस्थितियों में ही खत्म किया जा सकता है। उन्होंने लिखा है कि यह आश्चर्यजनक है कि एक साथ तीन तलाक की प्रक्रिया में किसी धार्मिक रस्म का आयोजन नहीं किया जाता और न ही इसमें तय समय सीमा और प्रक्रिया का पालन किया जाता है। उनके अनुसार पैगम्बर मोहम्मद ने तलाक को खुद की नजर में जायज चीजों में सबसे नापंसद किया जाने वाला कदम घोषित किया था। तलाक से पारिवारिक जीवन की बुनियाद शादी टूट जाती है। न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा कि निश्चित तौर पर पैगम्बर मोहम्मद के समय से पहले बुतपरस्त अरब में लोग पत्नी को सिर्फ रंग के आधार पर भी छोड़ने को आजाद थे। लेकिन, इस्लाम के प्रवर्तन के बाद पुरुषों के लिए तलाक लेना तभी संभव था, जब उसकी पत्नी उसकी बात न मानती हो या फिर चरित्रहीन हो, जिसके चलते शादी को जारी रख पाना संभव न हो। वास्तव में शीर्ष अदालत ने बहुमत से सुनाए गए फैसले में तीन तलाक को कुरान के मूल तत्व के खिलाफ बताते हुए इसे खारिज किया है। उसने साफ कहा है कि तीन तलाक समेत कोई भी ऐसी प्रथा अस्वीकार्य है, जो कुरान के खिलाफ है।
तो न्यायालय का फैसला मजहब के खिलाफ कतई नहीं है। वैसे भी किसी देश के लिए संविधान सर्वोपरि है। कोई व्यवस्था यदि संविधान के खिलाफ हो और अन्यायपूर्ण हो तो उसे बदला जाना चाहिए। किंतु मुस्लिम पर्सनल लौ बोर्ड तथा जमीयत का मत इसके विपरीत था। इसने कई तर्क दिए। जैसे यह पर्सनल लौ का हिस्सा है और इसलिए न्यायालय इसमें दखल नहीं दे सकता। पर्सनल लॉ में इसे मान्यता दी गई है। तलाक के बाद उस पत्नी के साथ रहना पाप है। सेक्यूलर न्यायालय इस पाप के लिए मजबूर नहीं कर सकती। इसका सबसे कड़ा तर्क यह था कि पर्सनल लॉ को मौलिक अधिकारों की कसौटी पर नहीं परखा जा सकता। हालांकि उसने यह स्वीकार किया कि तीन तलाक अवांछित है, लेकिन साथ में इसे वैध भी माना। इनने कहा था कि यह 1400 साल से चल रही प्रथा है। यह आस्था का विषय है, संवैधानिक नैतिकता और बराबरी का सिद्धांत इस पर लागू नहीं होगा। जाहिर है, न्यायालय ने मजहब के तथ्यों तथा संविधान के आलोक में इन सारे तर्कों को खारिज कर दिया है। यह भी ध्यान रखने की बात है कि न्यायाधीशों के बीच पूरी तरह मतैक्य नहीं था। किंतु जिन दो न्यायाधीशों का मत अलग था उन्होंने भी तीन तलाक को गलत माना। हां, इन्होंने इस मामले में संसद द्वारा कानून बनाने की राय रखी। दोनों न्यायाधीशों ने माना कि यह पाप है, इसलिए सरकार को इसमें दखल देना चाहिए और तलाक के लिए कानून बनना चाहिए। दोनों ने कहा कि तीन तलाक पर छह महीने का स्थगन लगाया जाना चाहिए, इस बीच में सरकार कानून बना ले और अगर छह महीने में कानून नहीं बनता है तो भी स्थगन जारी रहेगा। इसलिए यह तर्क ठीक नहीं है कि दो न्यायाधीश तीन तलाक को ठीक मानते थे।
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