प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत बड़े सुधारक नहीं हैं लेकिन वह अर्थव्यवस्था को ऐसी राह पर ले जा सकते हैं जो दोबारा चुनाव जीतने में उनकी मदद करे। कैसे? विस्तार से बता रहे हैं मिहिर शर्मा
सरकार के कार्यकाल के पहले साल को लेकर तमाम विश्लेषण हो चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थक और आलोचक दोनों इस बात को लेकर संशय में हैं कि मोदी से जो उम्मीद थी, वह उस पर खरे उतर पाएंगे या नहीं और क्या वह देश की अर्थव्यवस्था में दूरगामी परिणामों वाले ढांचागत सुधारों को अंजाम दे पाएंगे? मोदी ने जिन छिटपुट सुधारों की राह चुनी है उनके प्रभाव और पैमाने को लेकर असहमति संभव है। कुछ लोगों का कहना है कि नई सरकार ने कई सकारात्मक कदम उठाए हैं जो पर्याप्त हैं। वहीं कुछ अन्य का कहना है कि यह उसकी सीमा है। फिलहाल सबसे बड़ा डर यही है कि प्रशासनिक सुधारों के अभाव में तथा श्रमिकों, भूमि तथा पूंजी के लिए मुक्त बाजार की कमी 'मेक इन इंडिया' के तहत विनिर्माण के लिए बहुत बड़ी बाधा पैदा करेगा। बिना सुधार के हम सालाना 1.3 करोड़ रोजगार नहीं तैयार कर पाएंगे और अगर मोदी ऐसा करने में विफल रहे तो वर्ष 2019 के चुनाव में 2015 की जीत को दोहराना मुश्किल होगा। हमें उस नए भारत की कुछ और समय तक प्रतीक्षा करनी चाहिए जिसका वादा मोदी ने किया है। बहरहाल, दो खतरे स्पष्टï हैं: पहला, उनकी सरकार अगर अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी तो इससे उन लोगों को बढ़ावा मिलेगा जो खतरनाक ढंग के बहुमतवाद के हिमायती हैं। दूसरी बात, पांच साल का समय यूं ही बिना किसी केंद्रित प्रयास के गुजर जाएगा।
इन तमाम बातों के बीच वह एक ऐसी आर्थिक परियोजना सामने रख सकते हैं जिसे कम से कम दूसरी सर्वश्रेष्ठï योजना करार दिया जा सके। यह योजना ऐसी होनी चाहिए जो मोदी की भावना, उनकी कल्पना और शैली के अनुरूप हो तथा जिसे उन संसाधनों तथा राजनीतिक पूंजी की मदद से हासिल किया जा सके जो हमारे पास अभी मौजूद हैं। इससे देश के आर्थिक स्वरूप में बदलाव आएगा और मोदी के पास सन 2019 के चुनाव में इस लाभ को भुनाने का अवसर होगा।
एक विचार है जो इन तमाम मानकों पर खरा उतरता है। पहला एकल एवं एकीकृत बाजार, जिसके नियम कायदे आधुनिक एवं तालमेल भरे हों, जहां पूंजी और श्रमिकों का स्वागत हो। मुंबई से गुडग़ांव तक ऐसे बाजारों की शृंखला होनी चाहिए। निश्चित तौर पर इस योजना में विशेष आर्थिक क्षेत्रों की अहम भूमिका होगी। प्रधानमंत्री ने इसके लिए जापान और चीन से निवेश भी आमंत्रित किया है। दिल्ली मुंबई औद्योगिक कॉरिडोर (डीएमआईसी) तथा डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (डीएफसी) इसके आधार हो सकते हैं। इसके लक्ष्य सहज होने चाहिए। उद्यमियों से यह वादा किया जाना चाहिए कि किसी भी उद्यमी को इस कॉरिडोर के किसी भी राज्य यानी राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा आदि में उद्यम स्थापित करने का मौका मिलेगा।
इसके लिए एक समान कागजी कार्रवाई की जरूरत होगी। वहीं बिना अतिरिक्त कागजी कवायद के कारोबार को एक राज्य से दूसरे में पनपने दिया जाएगा। दूसरी बात उत्पादकों से एक वादा करना होगा सड़क, जल या रेलमार्ग के जरिये कॉरिडोर के किसी भी हिस्से से उन्हें 48 घंटे में बंदरगाह तक पहुंचाया जाएगा। उसके भी 24 घंटे के भीतर उनको बंदरगाह से रवाना कर दिया जाएगा। आखिरी वादा देश भर के श्रमिकों से करना होगा कि अगर उनको डीएमआईसी के करीब किसी क्लस्टर में रोजगार की तलाश है तो उनको बढिय़ा स्वास्थ्य सेवा, आवास आदि मिलेंगे तथा उनको भेदभाव का सामना नहीं करना होगा। इसके अलावा उनके आसपास तथा कार्यस्थल में कानून-व्यवस्था का समुचित प्रवर्तन होगा।
इस आकांक्षा के फायदों पर ध्यान दीजिए। सबसे पहली बात, यह कानून प्रबंधनीय है। इसके लिए किसी कानून पर दोबारा काम करने की आवश्यकता नहीं होगी अथवा आर्थिक सिद्घांतों के बरक्स किसी केंद्रीय नियमन की समीक्षा नहीं करनी होगी। इसके लिए केवल मौजूदा नियम कायदों को तालमेल भरा तथा सहज बनाने की आवश्यकता होगी। दूसरी बात, इसे पूरा करने में राजनीति भी आड़े नहीं आएगी। सभी चार राज्यों में भाजपा की सरकार है और उनमें से कम से कम तीन मोदी के ऋणी हैं। चूंकि यह उनके साझा हित की बात है इसलिए मोदी किसी भी तरह की व्यक्तिगत हिचक या निष्क्रियता को दूर करने में मदद करेंगे।
तीसरा, इसके लिए समय भी कम नहीं पड़ेगा। इस कॉरिडोर में विनिर्माण को बढ़ाने की तैयारी पर लंबे समय से काम चल रहा है। मोदी को बस अंतिम चरण पर काम करना होगा और वह ऐसा कई बार कर चुके हैं। चौथी बात, प्रशासनिक स्तर पर भी यह प्रबंधनीय है। एक राजनेता के तौर पर परियोजना प्रबंधन और पारस्परिक लाभ वाली योजनाओं की निगरानी उनकी मजबूती है। विशेषतौर पर नए शहरों और विनिर्माण समूहों को लेकर काम करना, एक विशिष्ट कॉरिडोर और बंदरगाह का काम उनकी उस मजबूती से ही ताल्लुक रखता है। तनावग्रस्त क्षेत्रों को पूंजी उपलब्ध कराने से इतर सरकार की दिक्कत केवल यह रह जाएगी कि खास परियोजनाओं के लिए पूंजी, अनुमति और साझेदार कहां से आएंगे।
अगर इस लक्ष्य को हासिल करने में ऊर्जा लगाई जाए तो दो कॉरिडोर में काम शुरू हो जाएगा। बाजार और बंदरगाह तक पहुंच, बढिय़ा बुनियादी ढांचा तथा डीएमआईसी के आसपास नए शहरी इलाके कुछ प्रमुख फैक्टरियों को वहां काम करने के लिए प्रेरित करेंगे। विशेष आर्थिक क्षेत्रों में विदेशी पूंजी भी आ सकती है। क्या वास्तव में मोदी को यही करना चाहिए? बिल्कुल नहीं। सबसे पहले तो विभिन्न प्रकार के विशेष आर्थिक क्षेत्रों के साथ हमारा अनुभव बेहद खराब रहा है। दूसरी बात, प्रधानमंत्री का कद एक सुपर चीफ मिनिस्टर से कहीं बड़ा होता है। उनको नीतिगत ढांचा तैयार करना चाहिए जहां देश भर के उद्यमियों, विनिर्माताओं और कारोबारियों को अपनी आकांक्षाएं पूरी करने का अवसर मिले। लेकिन मोदी ने जिस तरह कर प्रशासन और वस्तु एवं सेवा कर के मोर्चे पर समझौते किए हैं उनसे यही लगता है कि ऐसा नहीं होने वाला। हमारे पास ऐसा नेता है जो देशव्यापी बदलाव ला सकता है लेकिन उसमें इच्छाशक्ति का अभाव दिखता है।
अगर उपरोक्त कदम उठाने में कामयाबी मिलती है तो न केवल चारों राज्यों के सकल घरेलू उत्पाद में सुधार होगा बल्कि वह मध्य प्रदेश तथा पंजाब को ऐसे ही तालमेल भरे और सामान्य नियम और लाइसेंस अपनाने के लिए प्रेरित करेगा। नई फैक्टरियों की मौजूदगी, नए नियोजित शहरी क्षेत्र मौजूदा कस्बों में सुधार की प्रेरणा बनेंगे। रोजगार पैदा करने वाली नई कंपनियां तथा फैक्टरियां सामने आएंगी। मोदी के लिए इसके राजनीतिक लाभ भी कम नहीं। हो सकता है वह पूर्वी उत्तर प्रदेश में 2019 तक उतना बदलाव न ला सकें जितनी कि मतदाताओं ने अपेक्षा की हो लेकिन वह इस कॉरिडोर के जरिये अपने मतदाताओं को भविष्य में सम्मानपूर्ण जीवन तो मुहैया करा ही सकते हैं। हो सकता है कि इस स्थिति में क्षेत्र के उम्मीद से भरे युवा एक बार फिर उनके लिए मतदान करें।
साभार- बिज़नेस स्टैंडर्ड से