दुनिया भर में मशहूर गजानन माधव मुक्तिबोध कवि मात्र नहीं, मुखर समीक्षक, मर्मभेदी कहानीकार और बीसवीं सदी के प्रखर बौद्धिक व्यक्तित्व थे, जिनके मानसिक संगठन और अंतहीन उधेड़बुन को समझना अब भी शेष है। सब जानते हैं कि मुक्तिबोध की डायरी का अपना अलग अंदाज़ और वार्तालाप की शैली में अपने विचारों की परतें अनावृत्त करने का उनका अपना मिज़ाज़ था। उसी डायरी पर एक नज़र –
गजानन माधव मुक्तिबोध को न साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और न ही ज्ञानपीठ पुरस्कार। जो मुक्तिबोध उत्तर शती के हिन्दी संसार में चर्चा के केंद्र में हैं, यह एक कटु सत्य है कि जीते जी उनका एक भी कविता-संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ था। यह तो 1980 में उनका संपूर्ण साहित्य ‘मुक्तिबोध रचनावली’ के रूप में छह खंडों में प्रकाशित हुआ है। मुक्तिबोध जितने बड़े कवि हैं, उतने ही बड़े आलोचक, कथाकार और उपन्यासकार भी हैं। उनका समग्र कृतित्व हमारे समय की अनुपम धरोहर इसलिए है क्योंकि उसमें हमारे समय का जीवंत इतिहास दर्ज है।
रस्तोगी जी के नज़रिए से अगर देखें तो मुक्तिबोध की आलोचना की कोई परम्परा नहीं है। उन्हें उस समय हिन्दी आलोचना के जो मॉडल सुलभ थे, वे उस राह के अनुगामी नहीं बने। इसलिए उन्होंने अपनी आलोचना के लिए बिल्कुल एक नया मुहावरा गढ़ा। खासतौर से ‘एक साहित्यिक की डायरी’ (साहित्यालोचना) की तो दूसरी मिसाल अभी तक भी हिन्दी आलोचना में उपलब्ध नहीं है। इसकी वजह यह है जिसकी ओर श्री अदीब ने इशारा किया है, ‘मुक्तिबोध की डायरी उस सत्य की खोज है जिसके आलोक में वे अपने अनुभव को सार्वभौमिक अर्थ देते हैं।’ (एक साहित्यिक की डायरी, फ्लैप पर छपी टिप्पणी)।
‘एक साहित्यिक की डायरी’ के प्रकाशन का भी एक दिलचस्प इतिहास है। इसके पहले संस्करण की पांडुलिपि मार्च, 1964 में मुक्तिबोध ने भोपाल में श्रीकांत वर्मा को सौंपी थी और वह जिस रूप में चाहते थे, उसी रूप में वह छपी भी।ये सारी डायरियां जबलपुर में प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘वसुधा’ में, ’57, ’58 और ’60 में प्रकाशित हुई थीं। इस कृति के स्थापत्य और इतिहास के बारे में श्रीकांत वर्मा से ही जानें। वास्तविकता यह है कि ‘एक साहित्यिक की डायरी’ केवल उस स्तंभ का नाम था जिसके अंतर्गत समय-समय पर मुक्तिबोध को अनेक प्रश्नों पर विचार करने की छूट न केवल सम्पादक की ओर से, बल्कि स्वयं अपनी ओर से भी होती थी।’ (फ्लैप पर छपी टिप्पणी)। वास्तव में यह सभी निबंध ‘काव्य’ या ‘साहित्य’ के सत्यान्वेषण के रूप में सामने आये हैं। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में संगृहीत निबंधों की मार्फत मुक्तिबोध ने आधुनिक सृजन समीक्षा को नये प्रतिमान दिये हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस संग्रह के सभी निबंध साहित्यालोचना की कलात्मक प्रौढ़ता के निकट हैं।
गजानन माधव मुक्तिबाेध की कालजयी कृति ‘एक साहित्यिक की डायरी में’ 13 निबंध संगृहीत हैं जो इस प्रकार से हैं—‘तीसरा क्षण’, ‘एक लंबी कविता का अंत’, ‘डबरे पर सूरज का बिम्ब’, ‘हाशिये पर कुछ नोट्स’, ‘सड़क को लेकर एक बातचीत’, ‘एक मित्र की पत्नी का प्रश्न-चिन्ह, नये की जन्म-कुण्डली : एक’, ‘नये की जन्म-कुण्डली : दो’, ‘वीरकर’, ‘विशिष्ट और अद्वितीय’, ‘कुटुयान और काव्य सत्य’, ‘कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी : एक’, व ‘कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी : दो’। साहित्यालोचना पर केंद्रित इन निबंधों में वे चीजों को वैसे ही मार्क्सवादी तरीके से पड़तालते हैं, जैसे मुक्तिबोध अपनी कविता में चीजों को देखते हैं। इन निबंधों की अनेक अर्थछवियां हैं, अनन्त व्यंजनागत अर्थ हैं, लेकिन वे सभी उनके जीवन के अनुभवों की धूप में से छन कर सामने आए हैं। मुक्तिबोध के अनुसार कला के तीन क्षण हैं। उनसे ही जानें वे तीन क्षण कौन से हैं—‘कला का पहला क्षण है जीवन का तीव्र उत्कट अनुभव। दूसरा क्षण है इस अनुभव का अपने कसकते-दुखते हुए मूलों से पृथक हो जाना और एक ऐसी फैंटेसी का रूप धारण कर लेना मानो वह फैंटेसी अपनी आंखों के सामने ही खड़ी हो। तीसरा और अंतिम क्षण है इस फैंटेसी के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णावस्था तक की गतिमानता। …फैंटेसी अनुभव की कन्या है और उस कन्या का अपना स्वतंत्र विकास-मान व्यक्तित्व है। वह अनुभव से प्रसूत है इसलिए वह उससे स्वतंत्र है।’ (तीसरा क्षण, पृ. 20-21)।
मुक्तिबोध ने सातवें दशक के शुरुआती वर्ष में साहित्यकार की ईमानदारी पर जो सवाल उठाया था, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है, ‘आज के साहित्यकार का आयुष्य क्रम क्या है? विद्यार्जन, डिग्री और इसी बीच साहित्यिक प्रयास, विवाह, घर, सोफासेट, एरिस्ट्रोक्रैटिक लिविंग, गहनों से व्यक्तिगत संपर्क, श्रेष्ठ प्रकाशकों द्वारा अपनी पुस्तकों का प्रकाशन, सरकारी पुरस्कार… और चालीसवें वर्ष के आसपास अमेरिका या रूस जाने की तैयारी, किसी व्यक्ति या संस्था की सहायता से अपनी कृतियों का अंग्रेजी या रूसी में अनुवाद, किसी बड़े भारी सेठ के यहां या सरकार के यहां ऊंचे किस्म की नौकरी। अब मुझे बताइए यह वर्ग क्या तो यथार्थवाद प्रस्तुत करेगा और क्या आदर्शवाद।’ (पृ. 34, एक लंबी कविता का अंत)। यहीं मुक्तिबोध छोटी कविता में मन न रमने का कारण भी बताते हैं देखें, ‘यथार्थ के तत्व परस्पर गुम्फित होते हैं, साथ ही पूरा यथार्थ गतिशील होता है। अभिव्यक्ति का विषय बनकर जो यथार्थ प्रस्तुत होता है वह भी ऐसा ही गतिशील है और उसके तत्व भी परस्पर गुम्फित हैं। यही कारण है कि मैं छोटी कविताएं लिख नहीं पाता और जो छोटी होती हैं वे वस्तुत: छोटी न होकर अधूरी होती है।’ (पृष्ठ 30)। साहित्यालोचना का असल कार्य क्या है यह भी जानें, ‘आलोचना करते वक्त हम गलतियों के लिए कम से कम पच्चीस-तीस प्रतिशत हाशिया छोड़ दें तो बहुतेरे के हृदय-दाह समाप्त हो जायें और हार्दिक तथा वैचारिक आदान-प्रदान अधिक सुगम या सहज हों।’ (हाशिए पर कुछ नोट्स, पृ. 50)।
मुक्तिबोध ने कलाकार की ईमानदारी का प्रश्न बार-बार उठाया है। उनसे ही जानें कि काव्य रचना का सच्चा नेपथ्य है क्या, भले ही काव्य-रचना हाथ में कलम लेकर टेबल पर की जाती रही हो, किन्तु रचना की सच्ची मनो भूमिका काव्य रचना के क्षणों के बाहर निरंतर तैयार होती रहती है। (कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी : दो, पृ. 118)।
—————————————
(लेखक- डॉ. चन्द्रकुमार जैन, दिग्विजय कालेज, राजनांदगांव में प्राध्यापक हैं)