इन्दौर। दिलीप चिंचालकर का जन्म १९५१ में शालिनी और विष्णु चिंचालकर के यहाँ इंदौर में हुआ। सन् १९७६ में दिल्ली के भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान से जीव-रसायन में स्नातकोत्तर किया। पीएचडी करने ऑस्ट्रेलिया पहुँचे, लेकिन मन बदल गया। छपाई विज्ञान पढ़ा, ट्रक और मोटरसाइकिल चलाईं, और भारत लौट आए। १९८० से ‘८२ तक भरतपुर में पक्षी वैज्ञानिक सालिम अली के साथ इकॉलोजिस्ट हो गए।
एक मौन चित्रकार, पत्रकार, जिंदगी के कैनवास को खूबसूरत रंगों से सजाने संवारने वाले, कला से सौंदर्य का भाव जगाने वाले, प्रकृति सेवक और अपनी मौज में जीने वाले दिलीप चिंचालकर का पार्थिव शरीर पंचतत्व में लीन हो गया। इंदौर के रीजनल पार्क मुक्तिधाम में आज लगभग 11.30 बजे के आसपास दीलिप की बिटिया गौरय्या ने दाह संस्कार किया। इस मौके पर प्रसिध्द साहित्यकार सरोज कुमार, प्रभु जोशी, रंगमंच कलाकार श्रीराम जोग, पत्रकार आलोक वाजपेयी, सप्रेस के कुमार सिध्दार्थ, आयुर्वेदिक चिकित्सा अधिकारी डॉ. सम्यक जैन, डॉ. अपूर्व पुराणिक, अशोक कोठारी सहित अनेक परिजन और मित्र शामिल थे।
भीड़ से अलग एक अनूठे अंदाज में जीवन यात्रा पूर्ण कर दिलीप भाई प्रकृति की गोद में असमय चले जायेंगे यह किसी ने सोचा नहीं था। उल्लेखनीय है कि चित्रकार, लेखक दिलीप चिंचालकर का गत 13 नवंबर की शाम को इंदौर में देहांत हो गया । वे पिछले कुछ वर्षों से कठिन बीमारी से जूझ रहे थे। वे प्रसिध्द कला गुरू विष्णु चिंचालकर के पुत्र थे। पिछले कुछ बरसों में दिलीप जी ने चकमक की साज-सज्जा का संपूर्ण दायित्व उठाया था और उसमें नए आयाम भरे थे। गांधी शांति प्रतिष्ठान की पत्रिका ‘गांधी मार्ग’ के भी वे साज-सज्जाकार थे। दिलीप चिंचालकर के निधन पर देश-प्रदेश के जाने माने व्यक्तियों, पत्रकारों और प्रबुध्दजनों ने अपनी श्रध्दांजलि अर्पित की है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री सुश्री मेधा पाटकर ने अपने संदेश में कहा कि इंदौर के विष्णु चिंचालकर गुरुजीके देहान्त से परिसर के संसाधनों को सुंदरता बहाल करने वाले कलाकर्मी को हम खो बैठे थे। अब दिलीपभाई का भी चले जाना उस सृजनशीलता के नुमाइंदे को खो जाना हुआ है, जिन्होंने नर्मदा के साथ प्रकृति का सम्मान किया और आन्दोलन के प्रयासों को भी समर्थन देकर सजाया। हमारी नर्मदा घाटी के तमाम साथियों की ओर से मनस्वी श्रद्धांजलि।
प्रसिध्द पत्रकार कीर्ति राणा ने सोशल मीडिया पर श्रध्दासुमन अर्नित करते हुए कहा कि चकाचौंध से दूर रहने वाले संकोची-मितभाषी दिलीप चिंचालकर चित्रकार, सुलेखनकार, शिक्षक, पर्यावरण की गहरी समझ रखने वाले इलस्ट्रेशन आर्टिस्ट और बेहद संजीदा इंसान थे। उनका जाना इंदौर के #कला_जगत की अपूरणीय क्षति तो है ही। दिलीप चिंचालकर के बनाए इलेस्ट्रेशन की एबी रोड स्थित प्रिसेंस बिजनेस स्कॉय पार्क बिल्डिंग में #अंकित_एडवटाइजिंग_एजेंसी के #पंकज_अग्रवाल की पहल से ही लग सकी थी। इस प्रदर्शनी में उनके बनाए चित्रों को शहर के बौद्धिक वर्ग का अच्छा प्रतिसाद मिला था।
नेशनल बुक ट्रस्ट नईदिल्ली के पंकज चतुर्वेदी ने लिखा कि दिलीप भाई बहुत अच्छे अनुवादक भी थे। चित्र और कला तो उन्हें अपने पिताजी गुरुजी से विरासत में मिली थी जिन्हें दिलीप भाई ने समृद्ध किया था। लन्दन के पत्रकार रॉय मेक्सह्म की किताब का हिंदी अनुवाद चुटकी भर नमक मीलों लम्बी बागड़ उनका विलक्षण कार्य है।
इंदौर के नईदुनिया में लंबे समय साथी रहे कमलेश सेन ने अपनी भावांजलि व्यक्त करते हुए लिखा कि पूरी जिंदगी अपनी मर्जी और उसूल पर चलने वाले वे नेक इंसान थे। उनकी तारीफ में क्या लिखा जाए, शब्द ही कम है। नईदुनिया से विदा होने के पहले मैं उनसे कहा करता था कि अब वहां बुध्दिमान का कोई पैमाना नहीं रह गया है। वे बोला करते थे मूर्खो के साथ काम करने से अच्छा वहाँ से विदा हो लो। यह मैंने नहीं किया तो संस्था ने कर दिया।
वे अपनी शर्तों और कायदे से काम करने वाले इंसान थे। आज भी खरे है तालाब, राजस्थान की रजत बूंदें, देश का पर्यावरण के 3 भाग, नईदुनिया के 8 फिल्मी अंक, लता जी की पुस्तक और कई पत्रिकाओं का आपने ले-आउट दिया। राहुल बारपुते जी के आग्रह से नईदुनिया से जुड़े थे और सन् 2005 में नईदुनिया को अलविदा कह दिया।
स्वतंत्र पत्रकार और लेखक बाबा मायाराम ने लिखा कि नईदुनिया इन्दौर में मेरा दिलीपजी से मिलना जुलना होता ऱहता था। वे अपने मन का काम करते थे। वे अपने पिता व मशहूर चित्रकार विष्णु चिंचालकर जी ( गुरूजी) को आस्ट्रेलिया से चिट्ठियां लिखा करते थे, नई दुनिया में छपी, वे चिट्ठियां मैंने पढ़ी हैं। फिलहाल हमने एक ऐसा चित्रकार व लेखक खो दिया, जिसने कई बड़े लोगों ( राहुल बारपुते जी, कुमार गंधर्व जी) के साथ रहते और बड़े होते हुए खुद की पगडंडी बनाई। सोच बनाई। एक बार उन्होंने कहा था- बाबा, कोई भी काम करो मन से करो, चाहे वह घर में झाडू़ लगाने का ही क्यों न हो। कई यादें हैं।
वरिष्ठ पत्रकार एवं एनडीटीवी से जुडे सूर्यकांत पाठक ने लिखा कि दिलीप जी का नहीं होना, यकीन नहीं होता। बहुत सारी यादें, बहुत अच्छे कलाकार, बहुत अच्छे इंसान नहीं रहे। उनका अनुशासन, उनकी लाइफ स्टाइल और उनके व्यवहार ने बहुत सिखाया। हमेशा चमकती रहने वाली रॉयल एनफील्ड बुलेट वाले दिलीप जी, सधे कदमों से लाइब्रेरी की सीढ़ी चढ़ते दिलीप जी, देखते ही मुस्कराने वाले दिलीप जी, सवाल पूछने पर सारे संशय दूर करने वाले दिलीप जी….बहुत कुछ है जो यहां लिखना संभव नहीं है। उनकी स्मृतियों को सादर नमन।
डॉ. जितेंद्र व्यास ने अपनी भावांजलि अर्पित करते हुए लिखा कि दिलीप जी जैसी बेमिसाल शख्सियत का यूं चले जाना बेहद दुःखद है। जिंदगी को किस अंदाज और किस रंग में जिया जाता है ये उनसे मिलकर ही पता चल जाता था। जिंदगी के हर रंग की वे चलती फिरती पाठशाला थे। हर लम्हें को भरपूर जीने की उनकी कोशिश ताउम्र रही। जो मन को भाया वो किया। जितने सशक्त हस्ताक्षर वे लेखन के थे, रंगों के संयोजन को कागज पर उतारने में उससे भी आगे थे।
अवनीश जैन ने सोशल मीडिया पर अपने भाव व्यक्त करते हुए लिखा कि वे मेरे अदृश्य गुरू थे। प्रकृति प्रेमी, कुशल चितेरे और यायावरी में रंग ढूंढते एक सिद्ध हस्त कलाकार का यूं अचानक चला जाना दिल को दुखी करता है। इंदौर शहर में एक कला गुरु के घर में जन्म और फिर विदेश से शिक्षा प्राप्त दिलीप चिंचालकर सिर्फ एक चित्रकार ही नहीं थे बल्कि अपने आप में पूरा एक जहान थे । बात पुरानी है लगभग 40 साल बीत गए। 1980 के आसपास खरगोन शहर में कक्षा छठी -सातवीं में पढ़ते-पढ़ते जब नईदुनिया अखबार में रोजाना व्यक्ति चित्र आने लगे और उनके नीचे छोटा सा हस्ताक्षर होता #दिलीप के नाम का । कुछ अलग से पहचान लिये यह चित्र रोज ही आते थे और मैं तुरंत पेंसिल और कागज लेकर बैठ जाता उनकी नकल उतारने, कोई गुरु तो था नहीं तो वही चित्र गुरु बन गए और एकलव्य की भांति बिना प्रत्यक्ष गुरु के ही मैं चित्र बनाने लगा, और वही हिंदी की विशेष कैलीग्राफी लगभग लगभग मेरे हाथों में उतरती चली गई और मेरे हस्त लेखन की पहचान बन गई। बाद में 1987 में इंदौर आने के बाद तो कई बार दिलीप जी और आदरणीय विष्णु जी से उनके घर पर तथा कला प्रदर्शनीयों में मुलाकात हुई । धीरे-धीरे दिलीप जी के रंग बिरंगे चित्र नईदुनिया की रविवारीय कहानियों के साथ आने लगे जो अपने आप में एक अलग ही पहचान लिए होते थे। फिर बीच-बीच में दिलीप जी की लेखनी से निकले शब्दों से रचे बसे लेख और कहानियां भी नईदुनिया में छपने लगी । प्रकृति से प्रेम ऐसा कि अपनी बिटिया का नाम भी गौरया रखा। आज शब्द विराम चाहते थे लेकिन मेरे अदृश्य गुरु दिलीप जी को जिंदगी विराम चिह्न लगाने का मौका दे गई।
लेखक, चिंतक व सामाजिक कार्यकर्त्ता संदीप नाईक ने श्रध्दासुमन अर्पित करते हुए लिखा कि गुरुजी की कला की दुनिया वैविध्य से भरी पड़ी थी जहाँ कबाड़ से लेकर बारीक रेखाओं का संयोजन था, वही दिलीप जी की कला व्यापक थी – वे सिर्फ ब्रश और रँगों तक सीमित नहीं थे, लेखन अनुवाद और चकमक से लेकर प्लूटो, सायकिल जैसी पत्रिकाओं और ढेरों किताबों के ले आउट में भी लगातार नया करके रंगों को नया अर्थ दे रहे थे, दिलीप दा का जाना मालवा में ही नहीं, मप्र भर में ही नही – बल्कि सम्पूर्ण कला क्षेत्र में एक शून्य निर्मित हो गया है, संवाद नगर इंदौर का गौरैया कुंज खाली हो गया है, स्व गुरुजी की स्मृतियों के साथ दिलीप दा की स्मृतियां अब उस घर को और सघन कर देंगी। दीवाली पर यह खबर मनहूस ही नहीं दुखद और पीड़ा पहुंचाने वाली भी है, हम सबने एक निजी आत्मीय व्यक्ति खो दिया है जिसकी कमी कोई कभी नहीं भर पायेगा।
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