पुण्डरीकाक्ष का सामान्य अर्थ होता है -” जिसकी अक्ष रूपी इंद्रियां पुंडरीक बन गयी हों”। एक प्रकार की विशिष्टता को ही पुंडरीक कहा जाता है। सामान्य को कण्डरीक कहा जाता है और कण्डरीक का विपरीतार्थक पुण्डरीक होता है। संस्कृत में पुण्डरीकाक्ष का अर्थ “श्वेत पद्म अथवा श्वेत कमल के समान नेत्र वाला “भी होता है।
दैत्यों के अत्याचार से परेशान होकर देवताओं ने भगवान विष्णु से इनका संहार करने की प्रार्थना की। बैकुंठ पति भगवान विष्णु कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को बैकुंठ से वाराणसी आए और ब्रह्ममुहूर्त में मणिकार्णिका घाट पर स्नान करके देवो के देव महादेव की एक सहस्त्र श्वेत कमल पुष्पों से पूजा करने का संकल्प लिया। शिवजी ने ठिठोली की और विष्णु की परीक्षा हेतु एक श्वेत पद्म विलुप्त कर दिया । भगवान विष्णु जी भगवान जी की पूजा आरम्भ कर चुके थे । मंत्रोच्चार के साथ कमल पुष्प शिवलिंग पर चढ़ाने लगे। जब 999 कमल पुष्प चढ़ाए जा चुके तो भगवान विष्णु चौंके, क्योंकि हजारवां कमल पुष्प गायब था। विष्णु ने काफी ढूंढा पर वह पुष्प नहीं मिला। पूजा के मध्य में उठ नही सकते। उन्होंने सोचा मेरा एक नाम कमलनयन भी है । शिवजी को प्रसन्न करने के लिए अपना नेत्र ही भगवान महादेव को समर्पित किया जा सकता है। उन्होंने अपने नेत्र को अर्पित करने के लिए जैसे ही उद्धत हुए भगवान शिव प्रकट हुए और उन्होंने कहा , “आप से महान मेरा कोई भक्त नही है। आज के पश्चात इस तिथि को वैकुंठ शुक्ल चतुर्दशी के नाम से जाना जाएगा। इस दिन व्रत करने के उपरांत जो प्रथम आपका उसके उपरांत मेरा पूजन करेगा उसको सीधा वैकुंठ की प्राप्ति होगी।”
शिव जी ने छिपाया हुआ कमल देकर विष्णु जी को नेत्र निकलने से रोक दिया। इस कारण से भगवान विष्णु को कमल नयन कहा जाता है। इसके पश्चात शिव जी ने प्रसन्न होकर भगवान विष्णु को तीनों लोकों के पालन की जिम्मेदारी और सुदर्शन चक्र भी प्रदान किया। जिससे श्री हरी विष्णु ने दैत्यों का संहार कर देवताओं को सुख प्रदान किया।
हिन्दू पौराणिक ग्रन्थों और महाभारत की मान्यताओं के अनुसार श्रीकृष्ण का एक नाम पुण्डरीकाक्ष था। चार भुजाधारी भगवान विष्णु के दाहिनी एवं ऊर्ध्व भुजा के क्रम से शंख, चक्र गदा और पद्म आदि आयुधों को क्रम को धारण करने पर भगवान की भिन्न-भिन्न मुद्राएं – संज्ञाएँ मानी जाती हैं। दक्षिण भारत में इस स्वरूप के अनेक मंदिर मिलते है। विष्णु के इस स्वरूप का बहुत आदर और श्रद्धा के साथ पूजन किया जाता है।
पुंड से ही पुंडरीक भी बना है। ‘पुण्डरीक’ का अर्थ ‘कमल’ होता है। ‘कमल’ पवित्रता और पूर्णता का प्रतीक होता है। पुंडरीकाक्ष विशेषण के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जिसकी आँखे कमल के समान सुंदर हों उसे पुण्डरीक कहते हैं। भगवान विष्णु के कई नाम हैं और उनके अवतारों के अनुसार उनके नाम रख दिये गए और उन्हें पुकारा जाने लगा। श्री हरि के इन्हीं नामों में से एक है कमल नयन भी है।
पुण्ड से उर्ध्वपुंड और त्रिपुंड भी बना है। पुंड संज्ञा पुंलिंग शब्द है जिसके दो अर्थ हैं पहला अर्थ तिलक होता है। चंदन, केसर आदि पोतकर मस्तक या शरीर पर बनाया हुआ चिह्न होता है। इसे टीका भी कह सकते हैं। हिंदू धर्म में जितने संतों के मत हैं, जितने पंथ है, संप्रदाय हैं उन सबके अपने अलग-अलग तिलक होते हैं। सनातन धर्म में शैव, शाक्त, वैष्णव और अन्य मतों के अलग-अलग तिलक होते हैं। ये 52 द्वारे, सात अखाड़े और चार सम्प्रदाय में कम से कम 20 से 25 हज़ार प्रकार के तिलक होते हैं। मुख्य तिलक में एक रामानंदियों के हैं, और दूसरे वैष्णवो के हैं।
उसे त्रिपुंड कहते हैं एक उर्ध्व पुण्ड भी होता है। जो सन्यासी लोग लगाते हैं, शंकर जी का त्रिपुंड होता है। जो शंकर त्रिपुंड लगाते हैं वो धनुष का प्रतीक है। राम जी के धनुष के आकार का भी तिलक होता है। इसके अलग- अलग भाव हैं, कोई इसे त्रिशूल का प्रतीक मानता है।”
शैव तिलक : – शैव परंपरा में ललाट पर चंदन की आड़ी रेखा या त्रिपुंड लगाया जाता है।
शाक्त तिलक :- शाक्त सिंदूर का तिलक लगाते हैं। सिंदूर उग्रता का प्रतीक है। यह साधक की शक्ति या तेज बढ़ाने में सहायक माना जाता है।
वैष्णव तिलक :- वैष्णव परंपरा में चौंसठ प्रकार के तिलक बताए गए हैं। रामानुजाचार्यों में माथे के बीच में श्री का तिलक और किनारे सफेद रंग की तिलक लगाने की परम्परा है। श्यामनंदी और निम्बार्कचार्य संप्रदाय के संत लाल श्री की जगह काली बिंदी लगाते हैं। इसमें कुछ संत सिर्फ काली बिंदी लगाते हैं तो कुछ बिंदी के साथ चंदन की धारियों को भी मस्तक पर सजाते हैं। स्वामी नारायण संप्रदाय से जुड़े संत केवल लाल बिंदी लगाते हैं।
ब्रह्मपुराण में ऊर्ध्व पुंड्र तिलक की क्या महिमा :-
माथे पर राख द्वारा चिन्हित तीन आड़ी रेखाऐं दर्शाती हैं की लगाने वाला शिव-भक्त है। नाक पर तिकोन और उसके ऊपर “V” चिन्ह यह दर्शाता है कि लगाने वाला विष्णु-भक्त है। यह चिन्ह भगवान विष्णु के चरणों का प्रतीक है, जो विष्णु मन्त्रों का उच्चारण करते हुए लगाया जाता है।
तिलक लगाने के अनेक कारण एवं अर्थ हैं परन्तु यहाँ हम मुख्यतः वैष्णवों द्वारा लगाये जाने वाले गोपी-चन्दन तिलक के बारे में चर्चा करेंगे । गोपी-चन्दन (मिट्टी) द्वारका से कुछ ही दूर एक स्थान पर पायी जाती है। इसका इतिहास यह है कि जब भगवान इस धरा-धाम से अपनी लीलाएं समाप्त करके वापस गोलोक गए तो गोपियों ने इसी स्थान पर एक नदी में प्रविष्ट होकर अपने शरीर त्यागे। वैष्णव इसी मिटटी को गीला करके विष्णु-नामों का उच्चारण करते हुए, अपने माथे, भुजाओं, वक्ष-स्थल और पीठ पर इसे लगते हैं।
तिलक हमारे शरीर को एक मंदिर की भाँति अंकित करता है, शुद्ध करता है और बुरे प्रभावों से हमारी रक्षा भी करता है। अगर कोई वैष्णव जो उर्धव-पुन्ड्र लगा कर किसी के घर भोजन करता है, तो उस घर के २० पीढ़ियों को परम पुरुषोत्तम भगवान घोर नरकों से निकाल देते हैं। – (हरी-भक्तिविलास ४.२०३, ब्रह्माण्ड पुराण से उद्धृत)।
हे पक्षीराज! (गरुड़) जिसके माथे पर गोपी-चन्दन का तिलक अंकित होता है, उसे कोई गृह-नक्षत्र, यक्ष, भूत-पिशाच, सर्प आदि हानि नहीं पहुंचा सकते। – (हरी-भक्ति विलास ४.२३८, गरुड़ पुराण से उद्धृत) जिन भक्तों के गले में तुलसी या कमल की कंठी-माला हो, कन्धों पर शंख-चक्र अंकित हों, और तिलक शरीर के बारह स्थानों पर चिन्हित हो, वे समस्त ब्रह्माण्ड को पवित्र करते हैं । – पद्म पुराण
हमारे यहां प्रायः कहा जाता है —
‘चित्रकूट के घाट पर भय संतन की भीड़,
तुलसीदास चंदन घिसे तिलक करत रघुवीर’ ।
इस प्रकार तिलक का बहुत महत्व है, तो हिन्दू संस्कृति सभ्यता ये बताती है अगर कोई तिलक लगाता है, तो वो अपने पूजा पाठ आस्था में विश्वास रखता है, इसलिए लगाता है।”
पुंड्र का दूसरा अर्थ दक्षिण भारत की एक जाति का नाम भी यही है जो पहले रेशम के कीड़े पालने का काम करती थी ।
उय्यकोण्डार (नई व्यवस्था का उद्धारकर्ता”) उर्फ़ पुण्डरीकाक्ष स्वामीजी का समय संवत ८२६-९३० रहा है। वे श्री संप्रदाय के सन्त आचार्य के साथ ही साथ विष्णु के एक स्वरूप या नामधारी भी थे। नाथमुनि के सबसे प्रसिद्ध शिष्यों में से एक पुंडरीकाक्ष थे, जिन्होंने अपने पीछे कोई साहित्यिक कार्य नहीं छोड़ा है। ऐसा माना जाता है कि नाथमुनि के पास एक दृष्टि थी जहां उन्होंने अपने पोते यमुनाचार्य के जन्म का पूर्वाभास किया और पुंडरीक्ष को अपना आध्यात्मिक गुरु नियुक्त किया (जिन्होंने यमुनााचार्य का मार्गदर्शन करने के लिए अपने शिष्य राममिस्र को प्रतिनियुक्त किया । पुण्डरीकाक्ष जी महाराज परम वैष्णव अमानी संत थे । आप रत्न मुनि के शिष्य थे। “गुन तुम्हार समझय निज दोषा।” यह आपके जीवन का सिद्धान्त था।आप कहते थे कि दूसरों के दोष को छुपाने और अपने दोषों को प्रकट करने से मानसिक दुर्बलताएं दूर होती है और निज धर्म में दृढ़ता होती है। नाथ मुनि के शिष्य और विद्वान श्री राम मिश्र के समकालीन थे। वे आपमें बड़ा आदर भाव रखते थे। जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान पाने के लिए श्री मिश्र जी पुंडरीकाक्ष जी के पास आते थे और उनसे भक्ति पूर्वक सम्यक समाधान पाते थे।( गीताप्रेस भक्तमाल पृष्ठ 336) । परम् श्रद्धेय श्री पुण्डरीक जी महाराज के वचनानुसार कल्मष को जो निवृत्त कर दे वो कथामृत है । ये कथा श्रवण करते ही जीवन मे मंगल होता है ,या यूं कहिये श्रवण ही मंगल है ।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा ,
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।
निर्मल मन वाले जन ही प्रभु को प्राप्त कर सकते हैं ।निर्मल अर्थात मल रहित व्यक्ति प्रभु का सायुग्य प्राप्त कर सकता है। पहला मल जो है वह कपट ही है ।कपट ही वो कपाट है जो हमको ठाकुर जी से मिलने नहीं देते। ठाकुर जी कहते है तुम मेरे पास वैसे बनकर आया करो जैसे मैने तुम्हे बनाकर भेजा था । जीवन मे कपटता नही करना। ठाकुर जी से कपट नहीं करना। दूसरा मल छल है। छलछिद्र एक शब्द है । ये दूसरा मल है ।कभी किसी के साथ छल मत करो । व्यक्ति सबसे पहले अपने साथ ही छल करता है । ये कथा , सत्संग और आत्मशुद्धि के लिए प्रेरित करता है ।