बारिशों में भीग जाना इश्क़ है।
गीत कोई गुनगुनाना इश्क़ है।
बेसहारों का सहारा जो बनें,
उन के आगे सर झुकाना इश्क़ है ।
नाज़ से पलकें उठा कर देखना,
शर्म से नज़रें झुकाना इश्क़ है।
प्रेम से बढ़ कर इस संसार में कुछ भी नहीं।
इश्क को केंद्र बना कर कई मानवीय संदेश देने वाली रचनाकार डॉ.कृष्णा कुमारी ‘कमसिन’ की यह लोकप्रिय ग़ज़ल है जिसे सुनाने की फरमाइश हर कार्यक्रम में की जाती है। रचना में ‘इश्क़’ को गीता और रामायण के पौराणिक संदेशों को भी जोड़ते हुए आज के समाज को संदेश देने को कोशिश की गई है। ग़ज़ल को आगे बढ़ाती हुई वे लिखती हैं….
कर्म को अपने, इबादत जानना,
फ़र्ज़ को दिल से निभाना इश्क़ है।
होश गर बाक़ी रहे तो प्रेम क्या,
बेर चख-चख कर खिलाना इश्क़ है।
अपने जो भी हम से हैं रूठे हुए ,
प्यार से उन को मनाना इश्क़ है।
कहना कुछ था, कह गए कुछ और ही,
यूँ ज़ुबाँ का लड़खड़ाना इश्क़ है।
रचनाकार की मनोभावनाएं, शब्दों का गूंथन, प्रस्तुति, रचना कौशल, भावप्रवणता को समझने के किए एक उत्कृष्ट उद्धरण है। ऐसी अनगिनत रचनाओं की शिल्पी पिछले 27 वर्षों से साहित्य सृजन में निरंतर लगी हुई हैं। हिंदी, राजस्थानी, उर्दू, अंग्रेजी में समान अधिकार रखते हुए गद्य और पद्य दोनों विधाओं में कविता, गीत, ग़ज़ल, दोहा, मुक्तक, बालगीत,निबंध, कहानी, यात्रा वृतांत, साक्षात्कार , संस्मरण, डायरी, समीक्षा, पत्र, रिपोर्ट , शोध आलेख , परिचर्चा, पत्र लेखन आदि में प्रवीण हैं।
इनकी शैली सहज और सरल रूप में कथात्मक , वर्णनात्मक , व्याख्यात्मक, विश्लेषणात्मक, समीक्षात्मक है , जिस का विषयानुरूप स्वत: प्रयोग हुआ है। रचनाओं में श्रृंगार, करुण, शांत, वात्सल्य, हास्य, अद्भुत आदि रसों की धारा प्रवाहित हैं। इनका सृजन प्रकृति से प्रभावित है। संत सूरदास के पद ,जयशंकर प्रसाद की कामायनी, सुमित्रानंदन पन्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ,तुलसीदास, रामचंद्र शुक्ल के (चिंतामणि) के निबन्ध , बिहारी , रहीम, मैथिलीशरण गुप्त, (कनुप्रिया) आदि इनके प्रेरणास्त्रोत रहे हैं।
इनकी कविताओं की चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जब आंतरिक स्पंदन, संवेदनाएं और स्वानुभूतियाँ मन में गहरे तक उतर कर उथल-पुथल मचाती है, तब ये सहज भाव अनायास शब्दों के रूप में कागज पर उतरने लगते हैं और रचना का स्वरुप ग्रहण कर लेते हैं। इनकी कवितायें भी अमूर्त भावों का साकार स्वरुप हैं जिनमें जीवन के अनेक रंग उतर आए हैं।
कविताओं में ‘अभी छोटे हैं ये बच्चे’, ‘लड़की नहीं जानती’, ‘जीने दो पर्वतों को’,’ आदमी या चीज’ और चिड़िया, और मैं’ , ‘हे पर्वतों’, ‘शब्द नहीं जानते हैं कि..,’ ‘प्रेम है,’ ‘चिड़ियाएँ, पेड़ और मैं”, ‘बीज हैं …’ , ‘जरुरी तो नहीं’, ‘बेचारी’ , ‘कितनी बार कहा है तुमसे’ आदि कतिपय प्रतिनिधि रचनाएं हैं| सभी कवितायें पढने वालों के मन में सकारात्मक उर्जा का संचार करती हैं|। इनको प्रकृति, चाँदनी और बच्चों से बेहद लगाव है, पर्यावरण के प्रति आप बहुत सचेत हैं , लिखती हैं…
अभी तो है समय
हैं अभी छोटे ये बच्चे
इसलिए ले कर खिलौने, गोलियाँ मीठी
कि लेकर चीज़ हो जाते हैं, ख़ुश ये
और हम आश्वस्त, पर
कल जब ये होंगे कुछ बड़े
और आते ही स्कूल से
माँगेंगे हम से पूरा जंगल,
कोई ख़ाली टुकड़ा धरती का
सभी रंग आसमानों के
करेंगे हठ, हमें परबत ही ला कर दो
कभी रोयेंगे
“हम को पेड़ दिखलाने चलो ”
या फिर हवा का स्वाद
चखने के लिये होंगे परेशाँ,
हम को कर देंगे निरुत्तर…….
अभी भी है समय देखो
यदि आज हम चाहें तो
पहाड़ों के इस हंसी पावों में
रुन-झुन घुंघरूओं की बाँध सकते हैं
बना रख सकते हैं / आकाश को नीला
हवाओं को सुगंधें बाँट सकते हैं
बिछौना कर भी सकते हैं/ हरे मखमल का धरती पर
अभी तो है समय……
हम आज यदि चाहें तो…….
कल बच्चों को देने के लिए
उनके सवालों कर जवाबों का
मुरब्बा डाल सकते हैं,
कि दे सकते हैं इन बीजों को
अवसर वृक्ष बनने का
अभी तो है समय शायद
अभी छोटे हैं बच्चे… ।
प्रकाशित काव्य -कृतियों में राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित “मैं पुजारिन हूँ”, “कितनी बार कहा है तुम से”, “बहुत प्यार करते हैं शब्द” काव्य संग्रह, एवं “…तो हम क्या करें” ग़ज़ल संग्रह , और ‘अस्यो छै म्हारो गाँव’ राजस्थानी काव्य संग्रह शामिल हैं। इनकी काव्य रचनाओं में प्रेम, प्रकृति चित्रण, सामाजिक संदर्भ और सरोकार, मानवीय संवेदना, सांस्कृतिक संदर्भ, ग्रामीण परिवेश, शाश्वत मूल्य,जिजीविषा ,नैतिकता , जीव-जगत,पर्यावरण, सद्भाव, त्यौहार, स्त्री विमर्श , आम आदमी का दर्द ,हताशा , कुण्ठा, आधुनिक बोध आदि भावों की झलक दिखाई देती हैं।
बाल कविता संग्रह “जंगल में फाग” में संग्रहित बाल कवितायेँ और गीत, बाल मनोविज्ञान के अनुकूल, रोचक, मनोरंजक, जिज्ञासा जाग्रत करने वाले हैं। राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित “अस्यो छै म्हारो गाँव” में हाडौती भाषा में लिखित कविताएं गांव की ठेठ संस्कृति ,परिवेश,खेत , नदी , कुए, लोकोत्सव, ग्रामीण महिलाओं के संधर्ष, जन-जीवन, लड़के – लड़कियों खेल, रहन-सहन, टोटके , गोबर उगाना, घट्टी पीसना, नन्दी का आना, मनोरंजन के साधन अर्थात हमारी मूलभूत संस्कृति के विविध परिदृष्यों से साक्षत्कार करवाती है। कुछ अन्य विषयों पर दोहे, गीत, ग़ज़ल, कवितायेँ आदि भी शामिल हैं। जन-चेतना का बानगी के लिए एक शैर यूँ लिखती हैं……
शादी लायक हुआ है बेटा,
अब होंगी व्यापार की बातें ।
इनकी हिंदी कविताओं पर मुम्बई के प्रसिद्द ग़ज़लकार और फ़िल्मी गीतकार इब्राहीम ‘अश्क’ लिखते हैं ” कृष्णा जी के बोल सोने की तरह खरे और अनमोल हैं।इनकी कविता में रंग भी है, रस भी है, भावों का सौन्दर्य भी है और भाषा का माधुर्य भी।” ऐसी ही एक सुंदर कविता का कुछ अंश ….
शब्द नहीं जानते
रंग-भेद/ वर्ग-भेद….
जाति से/ धर्म से ऊँच-नीच से/ दूर हैं इतने
जितनी धरती से नीहारिकाऐं ……
शब्द बाँचते हैं गीता/ पढ़ते हैं नमाज़
गाते हैं आरती/ देते हैं अज़ान
बाईबिल का अनुवाद
करते हैं शब्द ही,
रामायण का पारायण भी ……
भरते हैं शुभ-कामनाओं के कलश….
शब्द/ केवल शब्द हैं / ये क्या समझें
सियासत मनुष्यों की….
ये क्या जानें/ दुनियादारी
किस चिड़िया का नाम है … ?
गद्य विधा में “स्वप्निल कहानियां” संग्रह में कहानियों के साथ कुछ लघु कथाएं भी शामिल हैं जिनके प्रमुख विषय -प्रेम, नारी- जीवन, मानव मूल्य,पर्यावरण ,साम्प्रदायिक सद्भाव, मानवीयता,, नैतिक मूल्यों का क्षरण, प्रकृति, संवेदना आदि हैं । “पगली” बेहद संवेदनशील एवं मार्मिक कहानी है। घटनाक्रम को ऐसा मोड़ दिया गया है जिस में उस असहाय , मानसिक विकलांग स्त्री के साथ कुछ ऐसा दुष्कृत्य होता है कि वह गर्भवती हो जाती है , एक बच्ची को जन्म देकर इस लोक से ….? जिसे एक संतानहीन परिवार गोद लेकर सम्मानित जिन्दगी देता है। यह कहानी पाठकों को मन को झकझोर कर रख देती है ।
इस कहानी को ‘कथांचल’ संस्था, उदयपुर द्वारा ‘कथाशिल्पी राजेन्द्र सक्सेना सर्वोत्तम कहानी पुरस्कार’ से नवाज़ा गया है। इनकी कहानी “नि:स्पृह समर्पिता” उदात्त प्रेम की पराकाष्ठा को चरितार्थ करती है। कुछ प्रतिनिधि कहानियां ‘रैनबसेरा’ ,’बस इतना ही कसूर था’, ‘पतझड़ का प्रभात’, ‘भूल -सुधार’ (जो पर्यावरण संरक्षण के भाव से ओतप्रोत है) ‘कैक्टस के जंगल’ , ‘सपना’, ‘स्वप्निल अहसास’ तथा लघु कथाएं- धर्म या ढोंग , पैर तो हैं , अनायास आदि प्रतिनिधि रचनाएं हैं जो इनकी सूक्ष्मदृष्टि को दर्शाती हैं | जाने-माने कहानीकार अरनी रोबर्ट् ने अपनी भूमिका में लिखा है- “ये कहानियां बहुत अच्छी हैं- एक से बढ़कर एक| कहानी में जो विशेषतायें होनी चाहिए वे सब इन में मौजूद हैं।”
इनकी दो यात्रा वृतांत की कृतियां “आओ नैनीताल चलें” और “हरित पगडंडी पर” अत्यंत रोचक व पठनीय यात्रा- साहित्य हैं। ‘हरित पगडंडी पर’, कृति में इन्होंने दक्षिण भारत के मैसूर, ऊटी, कोडाकनाल, बैंगलुरू के यात्रा वृत्त लिखे है। तीसरा यात्रा- वृतांत “अद्भुत देश हैं सिंगापुर” प्रकाशनाधीन है।
विविध विषयों पर निबंध लेखन इनकी प्रिय विधा है। इनकी निबन्ध की तीन पुस्तकें ” प्रेम है केवल ढाई आखर “, ‘ज्योतिर्गमय’ जिसे राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर से आर्थिक सहयोग मिला है , और “नागरिक चेतना” प्रकाशित हुई हैं। “ज्योतिर्गमय” ललित निबन्ध, साहित्य अकादमी , उदयपुर से ‘ देवराज उपाध्याय पुरस्कार से अलंकृत है। ये निबन्ध भारतीय सांस्कृति के प्रतिबिम्ब हैं। इस कृति में शामिल 22 निबन्धों में ‘सखि ! बसंत आया’, ‘श्री कृष्ण लौकिक और अलौकिक’,’ विज्ञान , संस्कृति और वृक्ष’ , ‘रावण: एक अविस्मरणीय चरित्र’, ‘हर पल एक पर्व है’, ‘बारात और शिष्टाचार’ उल्लेखनीय हैं।
प्रेम है केवल ढाई आखर’ में मूलत: नैतिक मूल्य और मनोभाव प्रतिबिम्बित हैं | इन में अध्यात्म, सामाजिक संदर्भ, प्रेम, क्षमा, अहंकार, आत्मशक्ति, विश्व मैत्री, आत्म साक्षात्कार, नशा , क्रोध , नारी जीवन से सम्बन्धित विषयवस्तु पर निबंध हैं जो मनुष्य में स्वविवेक जाग्रत करते हैं, सद्गुणों में वृद्धि करते हैं, सामाजिक विकास में सहायक हैं। अंधविश्वासों एवं नशे जैसी सामाजिक बुराइयों से दूर रहने को प्रेरित करते हैं। “नागरिक चेतना” एक दीर्घ निबन्ध कृति है। इस में श्रेष्ठ नागरिक के नैतिक कर्तव्यों, दायित्व बोध के निर्वहन करने की सोदाहरण विवेचना की गई है। हमारा राष्ट्र सुविकसित, सुदृढ, सुव्यस्थित, स्वच्छ, सुस्वास्थ्य प्रदान करने वाला बन सके , ये ही इस किताब का उद्येश्य है |
इनकी एक साक्षात्कार कृति “कुछ अपनी कुछ उनकी” में देश के जाने-माने विख्यात साहित्यकार,विचारक,कलाकार, चित्रकार, शिक्षाविद, गीतकार, गीत व ग़ज़ल गायक, पत्रकार, पायलट जैसे मनीषियों से उनके जीवन परिचय पर विमर्श है। अन्य विधाओं में नाटक लेखन के क्षेत्र में इन्होंने तीन नाटक वन्य जीव संरक्षण पर आधारित “अब चुप नहीं रहूँगी”,परिवार नियोजन पर आधारित “गलती हो गई” और “सडक सुरक्षा” लिखें हैं। इनके नाटक “अब चुप नहीं रहूंगी ” को पंजाब के विश्वविद्यालय से एक शोधार्थी ने एम्. फिल. के लघु शोध में शामिल किया है। ये करीब सात दर्जन पुस्तकों की समीक्षा और कई पुस्तकों की भूमिकाएं और कृति -परिचय भी लिख चुकी हैं। इन्होंने नाटक ‘गलती हो गई ” का निर्देशन भी किया तथा कुछ व्यंग्य रचनाएं भी लिखी हैं और डायरी भी लिखती हैं।
परिचय : प्रेम और प्रकृति से मुख्य रूप से प्रभावित सृजन करने वाली रचनाकार डॉ.कृष्णा कुमारी का जन्म कोटा जिले के चेचट ग्राम में पिता प्रभुलाल वर्मा के परिवार में हुआ। आपने एम.ए., एम.एड., (मेरिट अवार्ड) साहित्य रत्न, आयुर्वेद रत्न एवं बी.जे.एम.सी की शिक्षा प्राप्त की। “बाल साहित्यकार दीनदयाल शर्मा का रचना कर्म : एक समालोचनात्मक अध्ययन” विषय पर कोटा विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। आकाशवाणी केंद्र कोटा एवं जयपुर , दूरदर्शन जयपुर और विभिन्न स्थानीय चैनलों से समय- समय पर रचना पाठ, वार्तायें और साक्षात्कार प्रसारित होते हैं और अनेक काव्य गोष्ठियों, कवि सम्मेलनों, मुशायरों में भागीदारी की है।
इनकी देश के प्रतिष्ठित पत्र -पत्रिकाओं एवं संकलनों में हजारों रचनाएँ प्रमुखता के साथ प्रकाशित हो चुकी हैं| कई साहित्यकारों के व्यक्तित्त्व- कृतित्त्व पर भी इन के लिखे आलेख छपे हैं| उर्दू लिपि की भी कई पत्रिकाओं में गजलें प्रकाशित हैं| अपनी और अन्य रचनाकरों की पुस्तकों, कई पत्रिकाओं पर इनके बनायें आवरण चित्र प्रकाशित हैं| साथ ही रेखा चित्र, स्केच, डिजाइन आदि भी छपते हैं। इनकी कुछ रचनाओं का अंग्रेजी, उर्दू, राजस्थानी , गुजराती भाषा में अनुवाद हुआ है| कई शोध ग्रंथों, वि. विद्यालय के संदर्भ ग्रंथों अन्य कई महत्त्वपूर्ण किताबों में रचनाओं को का उल्लेख हुआ है । आप कई साहित्यिक संस्थाओं में सक्रिय हैं और आपको साहित्य सृजन के लिए कई उल्लेखनीय, प्रतिष्ठा प्राप्त संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत और सम्मानित किया गया है । आपने रचनाओं में कई नवाचार भी किये हैं।
चलते – चलते…..
इनकी सभी कवितायेँ अत्यंत भावपूर्ण और लोक-रंग से सराबोर हैं, ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की आप पुरजोर पक्षधर हैं…
सीमाओं में बाँध लूँ, कैसे अपना प्यार।
मुझको तो प्यारा लगे, सारा ही संसार।।